अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

 भयंकर अन्याय का शिकार है भारत की जनता

Share

मुनेश त्यागी 

        इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 के अनुसार 2021 दिसंबर तक के आंकड़ों के आधार पर हमारे देश में 77 फ़ीसदी कैदी विचाराधीन हैं। रिपोर्ट के अनुसार न्याय प्रदान करने के मामले पर कर्नाटक पहले स्थान पर और उत्तर प्रदेश 18वें स्थान पर बना हुआ है। 28 राज्यों के आंकड़ों के आधार पर भारत की न्यायपालिका में चार में से एक मामला पांच साल से ज्यादा समय से लंबित है। इस प्रकार एक चौथाई से ज्यादा मामले 5 साल से ज्यादा लंबित हैं।

     वर्ष 2020 और 2022 के बीच लंबित आजादी मामलों की संख्या चार करोड़ 10 लाख से बढ़कर 4 करोड़ 90 लाख हो गई है जिनमें 69 फ़ीसदी मामले अपराधिक प्रवृत्ति के हैं। रिपोर्ट में यह तथ्य उद्घाटित किया गया है कि भारत के उच्च न्यायालयों के स्तर पर 30 फ़ीसदी न्यायिक पद खाली पड़े हुए हैं और जिला अदालतों में 22 फीसदन्यायिक पद खाली पड़े हुए हैं। 

    जस्टिस  रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस, न्यायपालिका, जेल और कानूनी सदस्यता के आधार पर कर्नाटक ने शीर्ष रैंक हासिल की है तमिलनाडु दूसरे  और तेलंगाना तीसरे राज्यों पर है। उत्तर प्रदेश 18वें स्थान पर है जो सबसे पीछे है। यह रिपोर्ट दिखाती है कि  भारत का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश न्याय देने के मामले में सबसे पिछड़ा हुआ है और यहां जेल में सड रहे कैदियों को शीघ्र न्याय मिलने की कोई आशा और उम्मीद नहीं है।

     रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी गई है कि दिल्ली और चंडीगढ़ राज्य को छोड़कर पूरे देश में कोई भी राज्य न्यायिक बजट का एक परसेंट से ज्यादा खर्च नहीं करता, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी गई है कि 10 लाख जनसंख्या पर 19 जज हैं। 1987 में दी गई अपनी रिपोर्ट में भारत के लॉ कमीशन ने सुझाव दिया था कि 10 लाख जनसंख्या पर 50 जज होने चाहिए।

      रिपोर्ट में यह खुलासा भी किया गया है अधिकांश राज्यों ने उनको दिए गए बजट को खर्च नहीं किया गया है और राजू को दिए गए बजट में से अधिकांश राज्यों ने केवल 1% खर्च किया गया है। रिपोर्ट कहती है की sc.st.obc आरक्षण को केवल कर्नाटक में पूरा किया गया है देश के बाकी राज्यों में एससी एसटी और ओबीसी के कोटे को पूर्ण नहीं किया गया है।

     रिपोर्ट कहती है कि न्यायिक व्यवस्था में औरतों की भागीदारी काफी कम है जो जिनकी संख्या 10 में से एक  है पुलिस बल में औरतों की संख्या 12 परसेंट है तो ऑफिसर रैंक में इनकी संख्या केवल 8 परसेंट है। न्यायपालिका में उच्च न्यायालयों में औरत जजों की संख्या 13 परसेंट है और निचली अदालतों में इनकी संख्या 35 परसेंट है।

     रिपोर्ट में यह भी जानकारी दी गई है कि 28 राज्यों और यूनियन टेरिटरीज में चार में से एक केस पिछले 5 साल से ज्यादा समय से लंबित है। इस प्रकार यह रिपोर्ट इस तथ्य को पूर्ण रूप से स्थापित करती है कि भारतीय केंद्र और राज्य सरकारों का जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने में कोई ना तो कोई योगदान है ना ही कोई रुचि है। यही कारण है कि हम देख रहे हैं कि न्यायपालिका को दिए गए बजट का पूर्ण रूप से सदुपयोग नहीं हो रहा है जिस कारण न्यायालयों में अधिकारियों की, बाबुओं की और स्टेनोग्राफर्स की काफी कमी पिछले कई सालों से चली आ रही है।

    रिपोर्ट के अनुसार न्यायिक बजट का पूर्ण रूप से सदुपयोग नहीं किया गया है। अंडर ट्रायल कैदियों को रिहा करने का कोई कार्यक्रम उनके पास नहीं है और वे लगातार कई कई सालों से जेलों में रहे हैं जनसंख्या के अनुपात में जजों की नियुक्ति नहीं की गई है जिस कारण मुकदमों का समय सीमा में निस्तारण नहीं हो रहा है और लोगों के साथ सरासर, भयंकर  और जानबूझकर अन्याय किया जा रहा है।

     इंडिया जस्टिस रिपोर्ट पुख्ता तौर पर स्थापित करती है कि आजादी के 75 साल में सस्ते और सुलभ न्याय को लेकर न्यायपालिका और न्याय की स्थिति एक भयंकर त्रासदी के समान है लगातार कोशिशों के बावजूद भी सरकार जनता को सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध नहीं करा रही है। जनता के साथ इस भयंकर अन्याय की स्थिति ने संवैधानिक उद्देश्यों को धराशाई कर दिया है।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें