अग्नि आलोक
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 *बंद  है मर्तबान में विचारों का अचार*

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शशिकांत गुप्ते

समाजवादी विचारक चिंतक स्व. किशन पटनायकजी ने सन 1991 में अपने इंदौर प्रवास के दौरान एक व्याख्यान में तात्कालिक राजनैतिक स्थिति पर एक समीकरण कहा था।
भ्रष्ट सरकार,गैर जिम्मेदाराना विपक्ष और उदासीन जनता
वर्तमान में उक्त समीकरण बदलकर यूं लिखा जाना चाहिए।
सत्ता,पूंजी, और व्यक्ति केंद्रित राजनीति,बिखरा हुआ विपक्ष,मूलभूत समस्याओं से पीड़ित जनता समाचार माध्यमों पर पक्ष पात के आरोप?
इतना लिखा हुआ पढ़कर सीतारामजी ने मुझे सलाह दी,ज्यादा कुछ लिखने की जरूरत नहीं है।
वर्तमान सियासी स्थिति पर प्रसिद्ध शायर शम्सी मीनाई की लिखी एक नज्म के कुछ मिसरे ही पर्याप्त है।
सब कुछ है अपने देश में रोटी नहीं तो क्या
वा’दा लपेट लो जो लंगोटी नहीं तो क्या

शायर कानून व्यवस्था पर तंज करते हुए यह पंक्ति लिखता है।
हाकिम हैं ऐसे देश का क़ानून तोड़ दें
रिश्वत मिले तो क़त्ल के मुजरिम भी छोड़ दें

जीवन के हर एक क्षेत्र का व्यापारीकरण होते देख शायर निम्न पंक्ति लिखता है।
हर क़िस्म की जदीद इमारत हमारे पास
(जदीद = नया)
हर एक पर्दा-दार-ए-तिजारत हमारे पास
धोखा,फरेबी,ठगी, लूटपाट, पर निम्न पंक्ति में व्यंग्य है।
अपनों को लूटने की जसारत हमारे पास
खेलों में हारने की महारत हमारे पास

(जसारत = वीरता,बहादुरी)
सिर्फ और सिर्फ लुभावने बयान सुनने,पढ़ने,पर तंज है निम्न पंक्तियों में
हर काम चल रहा है यहाँ पर बयान से
सरकार के सुतून तो रहते हैं शान से

( सुतून = रसूखदार,सत्ता के स्तंभ)
रेवोडियां बाटने पर शायर लिखता है।
क़र्ज़ा तो मिल रहा है हमें हर दुकान से
ख़ैरात आ रही है बड़ी आन-बान से

धार्मिकता की आड़ में पनप रहे पाखंड के विरुद्ध में निम्न पंक्तियां हैं।
ये नूर का नहीं तो सियाही का तूर है
फ़न्न-ए-गदागरी पे हमें भी उबूर है

(तूर=महारथी) ( फन्न-ए- गदागरी= भीख मांगने का हूनर)
( उबूर = माहिर)
गुमराह होती जनता के लिए शायर ने लिखा है
तकलीफ़ का बयान सुनाना फ़ुज़ूल है
शाहान-ए-क़ौम को तो सताना फ़ुज़ूल है

(शाहान-ए-कौम= राजसी ठाठ)
जनता को ग़फ़लत में रखने के लिए,जनता की ही गाढ़ी कमाई से,महंगाई से त्रस्त जनता को प्रगति के साथ विकास की ऊंची उड़ान को महंगे विज्ञापनों में दर्शाया जा रहा है।
सीतारामजी का अंत में शायर
ख़ुशबीर सिंह शाद का यह शेर लिख दो।
समुंदर ये तिरी ख़ामोशियाँ कुछ और कहती हैं
मगर साहिल पे टूटी कश्तियाँ कुछ और कहती हैं

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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