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“परोपकारी” पूँजीपतियों की असलियत

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आनन्द

भारत में अम्बानी और अदानी जैसे पूँजीपतियों के लुटेरे चरित्र के बारे में सभी जानते हैं और यहाँ तक कि पूँजीवादी मीडिया में भी ऐसे पूँजीपतियों के भ्रष्ट व अनैतिक आचरण के बारे में तमाम ख़बरें प्रकाशित हो चुकी हैं। परन्तु नारायण मूर्ति व अज़ीम प्रेमजी जैसे पूँजीपतियों की छवि न सिर्फ़ नौकरियाँ पैदा करके समाज का उद्धार करने वालों के रूप में स्थापित है बल्कि उनकी सादगी, दयालुता, परोपकार व नैतिकता के तमाम क़िस्से समाज में प्रचलित हैं और मीडिया में भी अक्सर उनकी शान में क़सीदे पढ़े जाते हैं। मिसाल के लिए उनके बारे में यह बताया जाता है कि वे अपनी सम्पत्ति का एक हिस्सा सामाजिक कामों के लिए दान में देते हैं, वे इतना धनी होने के बावजूद साधारण कार से चलते हैं और अपने कार्यकाल के दौरान वे ऑफ़िस में खाना खाने के लिए कैण्टीन में आम कर्मचारियों के साथ लाइन में खड़े होते थे, आदि-आदि। यही नहीं, वे समय-समय पर समाज में बढ़ती असमानता पर सार्वजनिक रूप से चिन्ता भी ज़ाहिर करते रहते हैं और मुखर रूप से एक “दयालु”, “परोपकारी” व “मानवीय चेहरे वाले” पूँजीवाद की वकालत भी करते हैं।
वास्तव में ऐसे पूँजीपति अपने बारे में इस प्रकार के क़िस्से-कहानियाँ प्रायोजित रूप से इसलिए फैलाते हैं ताकि मेहनतकशों के श्रम की बेहिसाब लूट से खड़ी की गयी उनकी अपार सम्पत्ति पर पर्दा डाला जा सके और पूँजीवाद से लोगों के हो रहे मोहभंग की प्रक्रिया को रोका जा सके। सच तो यह है कि “सादगीपसन्द” मूर्ति महोदय के पास 30 हज़ार करोड़ से भी ज़्यादा और “परोपकारी” प्रेमजी महाशय के पास एक लाख करोड़ रुपये से भी ज़्यादा की सम्पत्ति है। पूँजीपति के रूप में बने रहने के लिए और मुनाफ़े की अन्तहीन हवस को पूरा करने के लिए वे बुढ़ापे में भी अपनी कम्पनियों के अलावा तमाम वेंचर कैपिटल व हेज फ़ण्ड्स में भी निवेश करते रहते हैं। यही नहीं, इन दोनों ने अपने परिवार के सदस्यों को भी अपनी कम्पनी का शेयरहोल्डर बनाया है जिसकी बदौलत उनके परिवार के हरेक सदस्य की व्यक्तिगत सम्पत्ति करोड़ों में है। इनके परिवार के सदस्यों के पास कितनी सम्पत्ति है इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नारायण मूर्ति की बेटी अक्षता मूर्ति, जो ब्रिटेन के प्रधामंत्री पद के दावेदार ऋषि सुनक की पत्नी हैं, के पास ब्रिटेन की महारानी से भी ज़्यादा सम्पत्ति है और ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादी देश के लोगों के भी इतनी सम्पत्ति की बात गले नहीं उतर रही है। अज़ीम प्रेमजी ने तो अपनी पारिवारिक परम्परा को आगे बढ़ाते हुए विप्रो की पूरी बागडोर ही अपने बेटे रिशद प्रेमजी के हवाले कर दी है।
सच तो यह है कि इन पूँजीपतियों के पास जो सम्पत्ति का भण्डार है वह उनकी कम्पनी में काम कर रहे कर्मचारियों के श्रम की लूट से पैदा हुए अतिरिक्त मूल्य की बदौलत ही मुमकिन हुआ है। सॉफ़्टवेयर उत्पादों व सेवाओं के रूप में जो माल इंफ़ोसिस व विप्रो जैसी आईटी कम्पनियों में बनता है वह नारायण मूर्ति व अज़ीम प्रेमजी के ख़ुद के व उनके परिवार के सदस्यों के श्रम से नहीं बल्कि उनमें काम कर रहे आईटी इंजीनियरों व अन्य कर्मचारियों के श्रम की बदौलत बनता है। इन इंजीनियरों व कर्मचारियों को उनके श्रम के बदले उनके द्वारा पैदा किये गये कुल मूल्य का एक छोटा-सा हिस्सा ही तनख़्वाह के रूप में मिलता है। यही नहीं, ये आईटी कम्पनियाँ विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आईटी इंजीनियरों को सप्लाई करने का भी काम करती हैं और उनसे डॉलर में प्राप्त मोटी रक़म का एक बेहद छोटा हिस्सा उन इंजीनियरों को रुपये में तनख़्वाह के रूप में देकर बाक़ी अपने पास रख लेती हैं।
कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि मूर्ति व प्रेमजी जैसे लोग स्वयं भी मानसिक श्रम किया करते थे जिसके बिना उनकी कम्पनियाँ तरक़्क़ी नहीं कर सकती थीं, इसलिए उन्हें बदले में मुनाफ़ा कमाने का अधिकार है। लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सीईओ के रूप में अपनी मानसिक श्रमशक्ति के मूल्य के बदले वे तनख़्वाह (जो उनके मानसिक श्रमशक्ति के मूल्य से कहीं ज़्यादा हुआ करती थी) अलग से लेते थे जो उनके मुनाफ़े से बिल्कुल अलग चीज़ है। मुनाफ़ा उनकी मानसिक श्रमशक्ति का मूल्य नहीं होता बल्कि एक मालिक के रूप में कर्मचारियों के श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हड़पने से पैदा होता है। नारायण मूर्ति के बारे में एक क़िस्सा यह भी प्रचलित है कि उन्होंने अपनी पत्नी सुधा मूर्ति के गहने बेचकर इंफ़ोसिस की स्थापना के लिए आवश्यक प्रारम्भिक पूँजी इकट्ठा की थी। लेकिन ऐसे क़िस्से सुनाने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि उन गहनों को सुधा मूर्ति ने ख़ुद नहीं बनाया था, बल्कि उन्हें किसी अन्य कारख़ाने में मज़दूरों ने ही बनाया होगा। इंफ़ोसिस जैसी आईटी कम्पनी में लगे कम्प्यूटर व तमाम प्रौद्योगिकी भी किसी अन्य कम्पनी में काम करने वाले इंजीनियरों व मज़दूरों के मानसिक व शारीरिक श्रम की बदौलत ही बनते हैं। अज़ीम प्रेमजी को विप्रो की स्थापना के लिए आवश्यक आरम्भिक पूँजी अपने पिता से विरासत में मिली थी। लेकिन उनके पिता के पास जो पूँजी थी वह भी उनके कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूरों के श्रम की लूट से ही अर्जित की गयी थी। यही नहीं, इंफ़ोसिस व विप्रो जैसी कम्पनियों को सरकार की ओर से भाँति-भाँति की सब्सिडी दी जाती रही है जो इस देश की मेहनतकश आबादी से वसूले करों द्वारा ही मुमकिन होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन पूँजीपतियों के पास जो सम्पत्ति की अट्टालिका है उसकी एक-एक ईंट इस देश की मेहनतकश आबादी की मेहनत की बदौलत ही मुमकिन हुई है।
अपनी इस अकूत सम्पत्ति का एक छोटा-सा हिस्सा ख़ैरात में देकर ये पूँजीपति ख़ुद को दयालु व परोपकारी दिखाने का जो पाखण्ड रचते हैं, आइए उसकी असलियत उन्हीं की ज़ुबानी जानते हैं। अपने एक हालिया इण्टरव्यू में नारायण मूर्ति ने अपनी सादगी का राज़ ख़ुद ही उगल दिया। उन्होंने बताया कि वे सादगी से इसलिए रहते हैं क्योंकि वे गाँधी से बहुत प्रभावित हैं। हालाँकि सरोजनी नायडू जैसे लोग गाँधी की इसलिए आलोचना करते रहते थे कि उनको ग़रीब दिखाने में बहुत ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है, लेकिन फिर भी गाँधी सादगी से रहते थे क्योंकि वे भारत के लोगों की मानसिकता को जानते थे कि अगर उनके बीच अपनी अच्छी छवि बनाये रखनी है तो सादगी से ही रहना सबसे अच्छा उपाय है। इस प्रकार मूर्ति ने स्वयं ही यह बता दिया कि वे भारत के लोगों के बीच अच्छी छवि बनाये रखने के लिए सादगी से रहते हैं। दरअसल उन्हें यह चिन्ता सताये रहती होगी कि कहीं भारत की जनता को यह पता न चल जाये कि देश के लोगों की मेहनत को लूटकर उन्होंने पूँजी का अम्बार खड़ा किया है जिसका लाभ उनका पूरा परिवार उठा रहा है। वैसे इस सादगी का उनको एक दूसरा फ़ायदा भी मिलता है। उनकी सादी जीवनशैली की वजह से उन्हें अपने मुनाफ़े का बहुत छोटा हिस्सा ही अपने निजी उपभोग पर ख़र्च करना पड़ता है और शेष हिस्सा पूँजी को बढ़ाने के लिए फिर से निवेश के लिए उपलब्ध रहता है। इस प्रकार उनकी सादगी उनकी पूँजी को लगातार बढ़ाने में भी मदद करती है।
अज़ीम प्रेमजी की छवि भी सामाजिक सरोकार रखने वाले “परोपकारी” पूँजीपति के रूप में स्थापित है। वारेन बफ़ेट व बिल गेट्स सरीख़े साम्राज्यवादी देशों के लुटेरे पूँजीपतियों द्वारा परोपकार के नाम पर किये गये ढोंग-पाखण्ड से प्रभावित होकर प्रेमजी न सिर्फ़ अपनी सम्पत्ति के एक हिस्से को सामाजिक कामों में लगाते हैं बल्कि अन्य पूँजीपतियों से भी ऐसा करने का आग्रह करते रहते हैं। उनके द्वारा स्थापित अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन शिक्षा व पर्यावरण जैसे मुद्दों पर काम कर रही तमाम ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को फ़ण्ड करता है और स्वयं भी शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है। अपने इन “परोपकारी” कामों की ज़रूरत के बारे में कुछ समय पहले एक इण्टरव्यू में उन्होंने बताया था कि अगर भारत के पूँजीपति ऐसा नहीं करेंगे तो यहाँ समाजवाद की शक्तियाँ हावी हो जायेंगी। प्रेमजी भी गाँधी से प्रभावित हैं और यह स्वीकार करते हैं कि अपने “परोपकारी” कामों के लिए उन्हें गाँधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त से प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार हम पाते हैं कि गाँधी न सिर्फ़ अपने समय में समाजवादी शक्तियों यानी मज़दूर वर्ग की शक्तियों से भयाक्रान्त पूँजीपति वर्ग के मार्गदर्शक बने थे बल्कि आज भी भारत के पूँजीपतियों के तारनहार बने हुए हैं।
मज़दूर वर्ग के महान शिक्षकों मार्क्स व एंगेल्स ने आज से 174 साल पहले कम्युनिस्ट घोषणापत्र में ही यह कहा था कि बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा समाज की बुराइयों को दूर करना चाहता है और दान-पुण्य करता रहता है ताकि बुर्जुआ समाज को बरक़रार रखा जा सके। नारायण मूर्ति व अज़ीम प्रेमजी जैसे पूँजीपति इसी श्रेणी के भारतीय पूँजीपति हैं और वे समाज की भलाई के नाम पर जो काम करते हैं उसका मक़सद एक ऐसी व्यवस्था को बचाना है जो मेहनतकशों के निर्मम शोषण व उत्पीड़न पर टिकी है। इस मायने में वे अम्बानी व अदानी जैसे पूँजीपतियों से ज़्यादा शातिर व ख़तरनाक हैं क्योंकि उनका ध्यान केवल आने वाले क्वार्टर में अर्जित मुनाफ़े पर ही नहीं रहता, बल्कि वे मुनाफ़े की जननी पूँजीवादी व्यवस्था की आयु लम्बी करने के लिए भी लगातार काम करते रहते हैं।

मज़दूर बिगुल,से साभार

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