अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

भारत में विज्ञान के पराभव का कारण ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना,न कि मुस्लिम शासन

Share

स्वदेश कुमार सिन्हा 

इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने हाल में कई विवादास्पद बयान दिए, निश्चित रूप से उनके ये बयान कॉर्पोरेट के हित को ही पूरा करते हैं, परन्तु उनका यह बयान कि, “1000 वर्ष के मुस्लिम शासन में जिसे वे हमलावर कहते हैं, ने प्राचीन भारत में विकसित हो रहे ज्ञान-विज्ञान के विकास को अवरुद्ध कर दिया।” निश्चित रूप से उनका यह बयान संघ परिवार के एजेंडे के अनुरूप ही है, जो एक हज़ार साल मुस्लिम ग़ुलामी की बात करते हैं। आगे हम इस विषय पर दृष्टि डालते हैं कि उनका बयान क्या है और उसमें कितनी सच्चाई है?

2024 इंफोसिस विज्ञान पुरस्कार समारोह में अपने वर्चुअल संबोधन के दौरान मूर्ति ने कहा कि आक्रमणकारियों के शासन के कारण भारत में विश्लेषणात्मक सोच और विज्ञान में प्रगति की प्रवृत्ति प्रभावित हुई। जब आक्रमणकारियों का राज था तब हमारी युवा पीढ़ी के सोचने और विज्ञान की दिशा में काम करने की क्षमता कमजोर पड़ गई और वैज्ञानिक नवाचारों की जगह उपेक्षित रह गई। 1000 ई. से लेकर 1947 तक का काल भारत के विज्ञान और नवाचार के लिए नकारात्मक साबित हुआ।

मूर्ति ने इजरायल के पूर्व प्रधानमंत्री शिमोन पेरेज के दृष्टांत को साझा करते हुए बताया कि इज़रायल ने अपनी सबसे बड़ी विरासत, अपने लोगों की बौद्धिक क्षमता को पहचाना और नवाचार के माध्यम से बंजर रेगिस्तानों को उपजाऊ बना दिया। ऐसे विचार किसी राष्ट्र के विकास में क्रांतिकारी भूमिका निभाते हैं और भारत को भी इसी दिशा में बढ़ना चाहिए।

नारायण मूर्ति ने यह भी कहा कि एक समय था, जब भारत गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा और शल्य चिकित्सा में दुनिया का अग्रणी था। वैदिक काल से लेकर 700 ई० तक भारत का विज्ञान में विशेष योगदान था, परन्तु 700 ई० से लेकर 1520 ई० तक अफ़ग़ानिस्तान और उज़्बेकिस्तान जैसे देशों से आए आक्रमणकारियों ने भारत की विज्ञान संस्कृति को नुक़सान पहुँचाया, इसके बाद अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन ने भी इस दिशा में प्रगति को सीमित किया, हालाँकि अंग्रेजो ने अन्य आक्रमणकारियों की तुलना में कुछ हद तक भारतीयों में महत्त्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया।

भारत में स्वतंत्रता के बाद से विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हुई है और यह साबित कर दिया है कि वैज्ञानिक दृष्टि से सोचने की क्षमता में अब भी अपार सम्भावनाएँ हैं।‌ जिज्ञासु मस्तिष्क और विश्लेषणात्मक सोच के अभाव ने हमारी प्रगति को सीमित कर दिया है। युवा पीढ़ी को प्रोत्साहित करने के लिए हमें वैज्ञानिक क्षेत्र में सुधार और नवाचार की आवश्यकता है,ताकि हम देश‌ को वैश्विक विज्ञान के मानचित्र पर एक नयी ऊँचाई पर ले जा सकें।

अगर हम उनके वक्तव्य या इस भाषण का विश्लेषण करें तो हमें यह दिखता है कि उन्होंने भारत में विज्ञान के पराभव के लिए अंग्रेजी शासन को जिम्मेदार न मानकर इसके लिए मुस्लिम शासकों को जिम्मेदार ठहराया।‌ जब वे एक हज़ार साल की ग़ुलामी की बात करते हैं,तब वे संसद में प्रधानमंत्री के दिए गए उस बयान को ही दोहराते हैं, जिसमें वे एक हज़ार साल की मुस्लिम ग़ुलामी की बात करते हैं। अब मैं थोड़ा विश्लेषण करता हूँ, कि उनके इस बयान की वास्तविक सच्चाई क्या है?

अकसर जब इन मुद्दों पर बहस चलती है, तो इसमें दो पक्ष हो जाते हैं। एक पक्ष कहता है कि “हमारे देश में पहले ही से सारा ज्ञान-विज्ञान उपलब्ध था।” दूसरा पक्ष कहता है कि हमारा समूचा अतीत अंधकार में डूबा हुआ था। कठोर जातिप्रथा के कारण यहाँ किसी तरह का ज्ञान-विज्ञान विकसित नहीं हो पाया, चूँकि आधुनिकता का जन्म यूरोप में हुआ, इसलिए हमें पहली बार वहीं से विज्ञान का प्रकाश मिला।” वास्तव में दोनों ही बातें पूर्णतः सत्य नहीं हैं।

प्राचीन पूर्वी सभ्यताओं में पश्चिम तथा यूरोप से बहुत पहले ही विज्ञान की शुरूआत हो गई थी, जिसमें भारत चीन और अरब की सभ्यता प्रमुख थी। चीन में सबसे पहले कागज़, छापाखाना, बारूद और क़ुतुबनुमा जैसी महत्वपूर्ण चीज़ों का अविष्कार हुआ, तो भारत में शल्य चिकित्सा से लेकर खगोलशास्त्र, गणित तथा अरब में महत्वपूर्ण गणितीय सूत्रों और रेखागणित का विकास हो चुका था, इसके अलावा भारत में ; विशेष रूप से दक्षिण भारत में विशाल मंदिर के निर्माण में ज्यामितीय सूत्रों और स्थापत्य कला का जैसा अभूतपूर्व प्रयोग हुआ, वह आज भी विश्व को आश्चर्यचकित करता है। परन्तु क्या कारण था, कि भारत सहित सभी प्राचीन सभ्यताओं का ज्ञान-विज्ञान अंधकार में विलुप्त हो गया तथा इस क्षेत्र में पश्चिम बाज़ी मार ले गया।

यह सही है कि अपने खगोलविज्ञान की खोज़ों के कारण यूरोप में ब्रूनो को जिन्दा जला दिया गया और गैलीलियो एवं कोपरनिकस को अपनी खगोल संबंधी खोज़ों के कारण चर्च के सामने जाकर माफ़ी माँगनी पड़ी, क्योंकि उनके सिद्धांत बाइबिल में वर्णित सिद्धांतों के विपरीत थे, इसके बावज़ूद वहाँ पर विज्ञान लगातार विकसित होता रहा तथा आज अपने शीर्ष पर पहुँच गया, परन्तु भारत तथा अन्य पश्चिमी सभ्यताओं में इसका पराभव क्यों हुआ? इसके कारणों की तलाश करने के लिए मैं भारत आयुर्वेद सर्जरी तथा खगोल विज्ञान के विकास पर प्रकाश डालूँगा।

अक्टूबर 1794 में लंदन की बहुत ही लोकप्रिय और चर्चित पत्रिका ‘जेंटलमैन्स मैगज़ीन’ में एक लम्बा पत्र छपा था। पत्र लिखने वाले ने अपना नाम महज़ बी० एल० लिखा था, जिसमें उसने भारत में सम्पन्न एक सर्जरी का विवरण लिखा था, “कावसजी नामक एक मराठा व्यक्ति, जो अंग्रेज़ सेना के लिए बैलगाड़ी चलाता था, उसे टीपू की सेना ने बंदी बनाया था और सज़ा के तौर पर उसका नाक-हाथ काट दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी से पेंशन ले रहे कावसजी के एक साल बिना नाक के रहने के बाद उसके नाक की सर्जरी ईंटा पाथने वाली जाति से जुड़े एक व्यक्ति ने की और उस पर नयी नाक आरोपित की गई थी।

रेखांकित करने वाली बात यह थी कि इस सर्जरी को चिकित्सा पेशे में जुड़े दो‌ विशेषज्ञों ने देखा था, जो ब्रिटिश सेना में काम करते थे। पत्र में बताया गया था कि इस तरह की सर्जरी भारत में सदियों से चली आ रही है। पत्र के साथ वे रेखांकन भी छपे थे,जिसमें एक तरफ़ कावसजी की तस्वीर थी और नीचे इस सर्जरी की प्रक्रिया को चित्रमय ढंग से प्रस्तुत किया गया था, जिसका विवरण पत्र में शामिल था। जानने योग्य है कि इस पत्र को जोसेफ कार्पुए नामक एक ब्रिटिश सर्जन ने पढ़ा तथा पत्र में दिए विवरणों और रेखांकनों के आधार पर उसने अपने दवाखाने में यूरोप में पहली बार ऐसी सर्जरी को अंज़ाम दिया और फिर यह सर्जरी पश्चिमी जगत में आम हो गई।” (चरक संहिता/पृष्ठ-164,167, प्रोग्रेस एण्ड कन्जर्वेटिज्म इन एंशिएन्ट इण्डिया, एस जी सरदेसाई, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस,1983)

दरअसल यह वही शल्यज्ञान था, जिसे हम सुश्रुत संहिता के नाम से जानते हैं। कावसजी के नाक पर अपनाए गए तरीके का हूबहू वर्णन हम सुश्रुत संहिता में देख सकते हैं। वे अपनी रचना में महज़ नाक की सर्जरी का विवरण नहीं देते, परन्तु कान और होंठों की सर्जरी कैसे की जाए, वह भी बताते हैं, इसके अलावा आँखों का मोतियाबिंद ठीक करना, मूत्राशय की पथरी को दूर करना, शरीर में धँसे तीर और छर्रे आदि को लेकर शल्य चिकित्सा के तरीके बयान किए गए हैं।

सुश्रुत अपनी किताब में शव के विच्छेदन का भी पूरा विवरण देते हैं। शव को धोने के बाद उसे घास में लपेटकर सात दिन वैसे ही रखने के बाद घास की बनी झाड़ू से उसकी चमड़ी उतारकर शरीर के हर हिस्से को आँखों से बारीकी से देखने की बात करते हैं-“देखो मगर स्पर्श मत करो।” इन्हीं शब्दों से पूरी प्रक्रिया का सार संकलन किया जा सकता है। आँखों से ही परीक्षा; मगर हाथ से स्पर्श नहीं- इस नीति पर चलने की ढेर सारी सीमाएँ थी, जिसके चलते शरीर के तमाम आंतरिक हिस्सों पर ध्यान नहीं दिया जाता था। (मीरा नन्दा, साइंस इन सैफरन, रैंडम हाउस, पृष्ठ-109-110)

प्रश्न उठता है कि आख़िर दो हज़ार साल से अधिक के अंतराल में भारत में शल्यचिकित्सा तकनीकि का आगे कोई विकास क्यों नहीं हुआ? अट्ठारहवीं सदी के अंत में जिस शल्य चिकित्सा ने यूरोप में तहलका मचा दिया तथा एक किस्म का इतिहास रचा, वह अपनी ही जन्मस्थली भारत में दूर-दूर तक क्यों नहीं पहुँची और इसमें कोई सुधार या इज़ाफा क्यों नहीं हुआ? क्या इसकी वज़ह यह थी कि आयुर्वेद चरक संहिता और सुश्रुत संहिता आदि से निर्मित चिकित्सा प्रणाली भले ही विज्ञान के तौर पर शुरू हुई हो, मगर वह बाद में आध्यात्म विज्ञान / मेटा फिज़िक्स में बदल गई।

इसका एक कारण यह भी था कि जो विद्वान सुश्रुत संहिता पढ़ सकते थे, वे संस्कृतभाषी ब्राह्मण थे, उनके हाथों में चिकित्सक की छूरी नहीं थी, जिन्हें शरीर के आंतरिक विज्ञान की कोई जानकारी नहीं थी। वे पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवहार के आधार पर प्राप्त कुशलता के आधार पर इसे अंज़ाम दे रहे थे। इसके साथ वे सामाजिक और धार्मिक कारक भी ज़िम्मेदार थे, जिन्होंने मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच अंतर क़ायम किया।

जातिप्रथा के निर्माण के आधार पर इसे वैधता मिली, इसने हाथ से काम करने वाले तथा शिक्षित समुदाय के बीच ऐसी दीवार खड़ी कर दी,जिसे धार्मिक मान्यता प्राप्त थी। ब्राह्मणवादी संस्कृति में ज्ञान के हस्तांतरण पर गोपनीयता बरती जाती थी, उसने भी इसकी प्रगति को बाधित किया। आयुर्वेद विद्वानों का बहुलांश कथित ऊँची जातियों से संबंधित था,उसके तहत शल्यचिकित्सा / सर्जरी का काम उन्हीं जातियों को सौंप दिया गया, जो सामाजिक दृष्टि से हेय समझी जाती थीं।

अब थोड़ा मैं भारतीय खगोलशास्त्र पर प्रकाश डालूँगा, जिसकी आजकल बहुत चर्चा है कि दुनिया को रॉकेट साइंस वेदों से मिला। अट्ठारहवीं सदी की शुरूआत में दिल्ली, मथुरा, जयपुर, उज्जैन और वाराणसी में वेधशालाओं का निर्माण हुआ। इन पाँच वेधशालाएँ में केवल जयपुर का जंतर-मंतर ही ठीक स्थिति में है, बाकी तीन स्थानों पर यह महज़ दर्शनीय स्थल बनकर रह गया है। मथुरा में बनी वेधशाला उन्नीसवीं सदी के मध्य में ही नष्ट हो गई थी। ये वेधशालाएंँ प्राचीन समय से ही भारतीयों की खगोल विज्ञान में चली आ रही रुचि को ही दर्शाती हैं।

खगोल विज्ञान के शुरुआती रिकाॅर्ड ईसा पूर्व 2000 वर्ष में ऋग्वेद में दिखाई देते हैं। प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के आधार पर ज्योतिष की तालिकाओं का निर्माण किया और शगुन-अपशगुन तय किए,कुछ गणितीय मॉडल बनाए और कुछ दिलचस्प सिद्धांत विकसित किए। ऋग्वेद के मुताबिक़ भारतीय एक वर्ष को 360 दिनों में बाँटते थे और फ़िर हर साल को 30 दिन के बारह महीनों में विभाजित किया जाता था। हर पाँच साल पर चार दिन आगे बढ़ाकर कैलेण्डर को ठीक करने की कोशिश की जाती थी। ज्योतिष देवांग पहला वैदिक ग्रंथ कहा जाता है, जिसमें खगोलशास्त्रीय तथ्य पेश किए गए और उनमें कुछ सदी पुराने तथ्य भी शामिल किए गए। (चार्वाक के वारिस, सुभाष गाताडे, पृष्ठ-101,ऑथर्स प्राइड पब्लिशर्स)

प्राचीन भारतीय खगोलविज्ञान का स्वर्णिम काल पाँचवीं-आठवीं सदी कहा जाता है। जब आर्यभट्ट (ईसवी 476-550) का आगमन हुआ है, उनके देहांत के बाद भी हम खगोलवैज्ञानिकों की एक कतार देखते हैं, जिनमें अग्रणी थे- वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और लल्ला आदि, जिन्होंने आर्यभट्ट के सिद्धांतों पर बातें कीं, उनकी आलोचना भी की, मगर यह सिलसिला बाद में ठहर सा गया। यह अलग बात है कि आर्यभट्ट के योगदान पर विमर्श बाद में भी ज़ारी रहा।

मिसाल के तौर पर 1930 शिकागो में यूनिवर्सिटी प्रेस से आर्यभट्ट के अहम ग्रंथ आर्यभट्टीय का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ। किताब का शीर्षक था आर्यभट्टीय ऑफ आर्यभट्ट एन एन्शिएंट इंडियन वर्क ऑन मैथेमेटिक्स एण्ड एस्ट्रोनामी, जिसे किसी विशिष्ट लेखक के नाम से अंकित पहली भारतीय रचना कहा गया, जिसका फोकस गणित और खगोलविज्ञान पर था, जिसका मूल ग्रंथ छठवीं शताब्दी में रचा गया था। इससे यह लगता है कि एक समय में आर्यभट्ट पश्चिम के लिए भी कितने महत्वपूर्ण बन गए थे। आर्यभट्ट ने यह ग्रंथ बामुश्किल 23 साल में लिखा था, उनके जीवन के बारे में थोड़े- बहुत तथ्य उपलब्ध हैं, वे बताते हैं कि वे आगे की पढ़ाई के लिए कुसुमापुरा (बाद में पाटलिपुत्र या आज का पटना) गए थे, जहाँ वे किसी संस्था के प्रमुख भी थे।

नालन्दा विश्वविद्यालय उन दिनों पाटलिपुत्र में ही था तथा वहाँ खगोल शास्त्र के अध्ययन के लिए वेधशाला भी बनी थी, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि आर्यभट्ट शायद नालन्दा विश्वविद्यालय के ही प्रमुख रहे होंगे। यह भी कहा जाता है कि बिहार के तारेगड़ा के सूर्य मंदिर में आर्यभट्ट ने एक वेधशाला का भी निर्माण करवाया था। आर्यभट्ट के मौलिक योगदानों को किस प्रकार देखा जा सकता है? भारतीय खगोलविज्ञान उस समय तक पृथ्वी को स्थिर मानता आया था और कहता था कि अन्य आकाशीय पिण्ड उसके इर्द-गिर्द घूमते हैं। वहीं आर्यभट्ट मानते थे कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है और नक्षत्र बिलकुल स्थिर हैं।

उस समय ग्रहणों के बारे में भी यह मान्यता चली आ रही थी कि राहु-केतु जैसे राक्षस इन आकाशीय पिण्डों को निगलते हैं, इसलिए ग्रहण दिखलाई देते हैं। ज्योतिषशास्त्र के मानने वालों के लिए यह बेहद अशुभ अवसर होता है और लोगों को ऐसे समय घर के अंदर ही रहना होता है,वरना उसका बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आर्यभट्ट ने इसका अपने अध्ययन में खंडन किया और कहा कि “चाँद,सूरज और पृथ्वी के एक सीधी रेखा में आने के कारण ग्रहण लगता है।”

इन सबके अलावा भी संस्कृत भाषा में लिखी खगोलशास्त्र तथा गणित से संबंधित उनकी अनेक रचनाएँ अनुपलब्ध हैं, परन्तु उसका वर्णन उनके शिष्यों की अनेक रचनाओं और अरबी अनुवादों में मिलता है, जिसका वर्णन पर्शिया से भारत में आए विद्वान अलबिरूनी अपनी भारत यात्रा के वृत्तांत में करते हैं। उस युग में आर्यभट्ट की रेडिकल लगने वाली प्रतिस्थापनाओं ने अरब, ग्रीस और चीन के खगोल वैज्ञानिकों में नयी बहस को जन्म दिया था, उनकी रचनाओं के अनुवाद भी हुए थे,मगर उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।

आर्यभट्ट के विद्यार्थी लल्ला भी पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने की आर्यभट्ट संकल्पना से सहमत नहीं दिखते और अन्य स्थानों पर पुरानी मान्यताओं पर ही बल देते हैं। आर्यभट्ट के बाद वराहमिहिर,ब्रह्मगुप्त जैसे खगोलशास्त्री; जिन्होंने आर्यभट्ट की विरासत को आगे बढ़ाया,वे बाद में ख़ुद ही आर्यभट्ट की आलोचना करने लगते हैं। ब्रह्मगुप्त जैसा प्रकाण्ड विद्वान भी आर्यभट्ट की प्रतिस्थापनाओं के बहाने जो बात लिखता है, वह समझ से परे है:-

“कुछ लोग यह कहते हैं कि ग्रहण (राहु-केतु आदि के) मस्तिष्क से नहीं घटित होता है, हालाँकि यह बेहद मूर्खतापूर्ण विचार है, क्योंकि वही ग्रहण को अंज़ाम देता है और दुनिया के आम निवासी इसी बात की ताईद करते हैं। वेद ; जो ब्राह्मण के मुख से ईश्वर के बोल हैं, कहते हैं कि मस्तिष्क से ही ग्रहण होता है, उसी तरह मनु द्वारा रची गई स्मृति भी कहती है…, इसके विपरीत वराहमिहिर, श्रीसेना, आर्यभट्ट और विष्णुचंद्र सभी का विरोध करते हुए कहते हैं कि ग्रहण मस्तिष्क से नहीं होता है, मगर चंद्र और पृथ्वी पर उसकी छाया से होता है। अगर वाकई मस्तिष्क से ग्रहण नहीं होता,तब ग्रहण के वक़्त ब्राह्मण जो रस्म निभाते हैं, जैसे अपने शरीर में गर्म तेल मलना और पूजा के लिए आवश्यक अन्य सामग्री का इंतज़ाम करना भ्रामक साबित होगा और फिर उससे स्वर्गीय कृपा नहीं होगी। अगर कोई इन बातों को भ्रामक कह देता है,तो वह मान्यता प्राप्त सिद्धांतों के बाहर खड़ा होता है और जिसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती…, इसलिए लोग धर्मनिष्ठा के हिसाब से आचरण करते हैं और उन लेखकों को चाहिए कि वे आम राय का विरोध करना छोड़ दें,क्योंकि जो बात वेदों, स्मृतियों और संहिताओं में लिखी है, वह बिलकुल सत्य है।”

(साइंस एण्ड सोसायटी इन एंशिएन्ट इण्डिया,पृष्ठ संख्या-158 से उद्धृत, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय एवं एस जी सरदेसाई) क्या इस ब्रह्मगुप्त द्वारा प्रकट असहमति की जड़ वैज्ञानिक समझदारी में थी या समाजशास्त्र में। ब्रह्मगुप्त के विज्ञान और आध्यात्मिक किस्म की बातों के घालमेल के पीछे वास्तविकता यह है कि वे लोग समाज के प्रभुत्वशाली तबकों को नाराज़ नहीं करना चाहते थे, जैसा कि ऊपर के अनुच्छेद में वे कहते हैं कि अगर राहु-केतु की अवधारणा ख़ारिज होगी, तो फ़िर ब्राह्मणों पर ‘स्वर्गीय कृपा’ नहीं होगी। ज़ाहिर है कि ग्रहण के बहाने जजमानों से भारी दक्षिणा वसूलने वाले ब्राह्मणों के लिए आर्यभट्ट के सिद्धांत ख़तरा हो सकते थे।

ब्रह्मगुप्त ने एक तरह से समाज के बदलते वातावरण को भाँप लिया था तथा उस समय ब्राह्मणवाद अपने उभार पर था और बौद्धधर्म का उस समय का तेज़ी से पतन हो रहा था, तर्क, बुद्धि और विवेक की बातों के लिए समाज में जगह बहुत कम होती जा रही थी, अंधश्रद्धा का बोलबाला हो रहा था। धर्मशास्त्रों के चिन्तन को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से चुनौती देने पर समाज से बहिष्कृत होना तय था। निश्चित ही भारत की स्थिति यूरोप की तरह नहीं थी, जहाँ धर्मशास्त्रों की अवधारणाओं का विरोध करने पर मृत्युदंड तय था, मगर इससे यह भी नहीं कहा जा सकता कि यहाँ पर स्वतंत्र विचारकों के लिए रास्ता कठिन नहीं था।

एक बंद सामाजिक संरचना में स्वतंत्रमना लोगों को प्रताड़ित करने के अलग तरीकों का विस्तार किया गया था, जहाँ उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता था। आपको जब अपने समुदाय और परिवेश से बहिष्कृत किया जाए, आपको दिनों-दिन ज़रूरत की चीज़ें मिलना बंद हो जाएँ, कहीं से भी टिकने का ठिकाना न मिल पाए और न आपके साथ कोई संबंध रखने को न तैयार हो, तो मज़बूत से मज़बूत लोग डगमगा जाते हैं।

कोई नहीं जानता कि ब्रूनो को ज़िंदा जलाने का आदेश देने वाले चर्च के अधिकारियों का नाम क्या था और न ही उस वक़्त रोमन कैथोलिक चर्च के पोप के पद पर कौन विराजमान था, लेकिन विचारों की हिफ़ाज़त के लिए उसकी शहादत को लोग आज भी याद करते हैं, ऐसी शहादत जिसने प्राकृतिक विज्ञान के धर्मशास्त्र की जकड़ से मुक्ति के रास्ते को सुगम किया तथा यूरोप में आधुनिक विज्ञान के मार्ग को प्रशस्त किया। दुर्भाग्यवश भारत में ऐसा नहीं हो पाया, जाति-धर्म की मज़बूत ज़ंजीरों से वह आज भी जकड़ा हुआ है, जिससे हमारे यहाँ प्राचीन भारत में विज्ञान की गौरवशाली परंपरा होने के बावज़ूद वह अंधकार में डूब गया और हम इस क्षेत्र में बहुत अधिक पिछड़ गए तथा अंततः पूरी तरह से पश्चिम पर निर्भर हो गए।

वास्तव में विज्ञान के पराभव की ये प्रक्रिया तो मुस्लिम आगमन से पहले ही घटित हो गई थी, अब आप ही विश्लेषण करें कि भारत में विज्ञान की पराभव का कारण ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना है,न कि एक बहुत छोटे से कालखंड का मुस्लिम शासन।

Add comment

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें