क़ुरबान अली
“मेरी राय में यह नेहरू-लोहिया रिश्तों का बहुत ही सरलीकरण और सामान्य ढंग से विश्लेषण है, जबकि नेहरू-लोहिया के रिश्तों का मामला इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और निजी रंज़िश तक चला गया था”। वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली का आलेख
समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख भाष्यकार और वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने नेहरू और लोहिया के रिश्तों पर हाल ही में एक लेख लिखा ‘लोहिया और नेहरू: दोस्ती और दुश्मनी का सच’ वह लिखते हैं ‘आमतौर पर नेहरू और लोहिया रिश्तों की व्याख्या करते समय राममनोहर लोहिया को पण्डित नेहरू का सबसे बड़ा ‘दुश्मन’ माना जाता है। यह भी तथ्य है कि नेहरू ही कभी उनके नेता थे। उन्होंने नेहरू से गांधी तक का सफर कैसे तय किया, यह विषय बहुत लम्बी चर्चा की माँग करता है लेकिन इतना कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस बदलाव में न तो कोई न्यस्त स्वार्थ काम कर रहा था, न कोई व्यक्तिगत द्वेष था और न ही लोहिया किसी महत्त्वाकांक्षा के वश में होकर ऐसा कर रहे थे। इसी के चलते नेहरू-लोहिया टकराव में काफी सारे लोग नेहरू-गांधी का टकराव भी देखते थे और हैं।’
इसी तरह के कुछ और लेख भी हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। मेरी राय में यह नेहरू-लोहिया रिश्तों का बहुत ही सरलीकरण और सामान्य ढंग से विश्लेषण है, जबकि नेहरू-लोहिया के रिश्तों का मामला इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और निजी रंजिश तक चला गया था।दस्तावेज़ी तथ्य ‘लोहिया और नेहरू’ रिश्तों की कुछ दूसरी ही कहानी बयां करते हैं।
राममनोहर लोहिया जब 1933 में जर्मनी से वापस लौट कर आये (जहाँ वे हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी में पीएचडी करने गए थे लेकिन वह पूरी नहीं हो पायी माने एवार्ड नहीं हो पाई) तो फ़ौरन राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए और 1934 में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने।1936 में लखनऊ कांग्रेस में कांग्रेस पार्टी का दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद जब जवाहरलाल नेहरू ने अपना सेक्रेटेरिएट बनाया तो 26 वर्ष के लोहिया को अखिल भारतीय कांग्रेस विदेश विभाग का सचिव बनाया।
1933 से लेकर 1947 तक की यदि राममनोहर लोहिया की राजनीति और उनके विचारों और सिद्धांतों पर गौर करें तो वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़िम्मेदार नेता होने के साथ साथ कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता भी थे। कांग्रेस की विदेश नीति बनाने के साथ साथ सांप्रदायिकता के सवाल पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी की रीति-नीति और सिद्धांत को भी बहुत मुखर रूप से पेश किया और राष्ट्रीय एकता तथा सांप्रदायिक सदभाव को राष्ट्रीय आंदोलन का एक प्रमुख स्तंभ बताया। मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत और ‘हिंदुत्व’ की राजनीति की पुरजोर मुखालिफत करते हुए डा. लोहिया ने मौलाना अबुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं का समर्थन किया और उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया।
उस समय तक सही मायनों में वह एक सच्चे राष्ट्रवादी नेता थे और 1947 में भारत विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान कई बार उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर मुसलमानों की जान बचायी। लेकिन 1947 में सोशलिस्ट पार्टी के कानपुर सम्मेलन के बाद जिसकी अध्यक्षता स्वयं लोहिया ने की थी और जिस सम्मेलन के एक वर्ष बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होने का फैसला किया, सरहदी गाँधी, खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़कर लगभग सभी तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं के बारे में डा. लोहिया की राय बदलने लगी।
जून 1947 में कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक के बाद जिसमें देश के विभाजन को स्वीकार किया गया और जिसमें जयप्रकाश नारायण और लोहिया भी विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल हुए थे, कांग्रेस पार्टी के बारे में डॉ. लोहिया की राय बिलकुल बदल गई। देश विभाजन और आजादी के 7-8 माह बाद समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और डा. लोहिया कांग्रेस पार्टी और सरकार के विरोध में अब खुलकर आ गए।
यहीं से लोहिया के नेहरू विरोध बल्कि रंजिश की शुरुआत होती है।1952 के आम चुनाव के दौरान डा. लोहिया अपने पूर्व नेता जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी से इतने बदजन हो गए कि फूलपुर में वह पंडित नेहरू के विरोध में खड़े हिंदू महासभा के लोकसभा उम्मीदवार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तक का समर्थन करने लगे।
इस बीच 1950 में राममनोहर लोहिया की अमेरिका यात्रा और उसे लेकर उठे विवाद ने भी नेहरू-लोहिया रिश्तों में और तल्ख़ी पैदा करदी। 12 फ़रवरी 1952 को जयप्रकाश नारायण ने पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा कि बिहार के कई चुनावी हल्क़ों में कांग्रेसी, कम्युनिस्टों के साथ मिलकर यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि सोशलिस्ट अमेरिकी एजेंट हैं और यह नारा लगा रहे हैं कि ‘अमरीका के तीन दलाल, मेहता, लोहिया, जयप्रकाश।’
इसके जवाब में पंडित नेहरू ने जयप्रकाश नारायण को 14 फरवरी 1952 को खत लिखा कि ‘मैंने बिहार के सांसदों से इस बारे में मालूमात की लेकिन उन्होंने इस बारे अनभिज्ञता दिखाई कि उन्होंने इस तरह के नारे नहीं सुने। यक़ीनन अगर ऐसा कहा गया तो यह बहुत ही ग़लत था। लेकिन साथ ही बिहार के लोगों ने यह भी बताया कि सोशलिस्ट उम्मीदवारों ने खासकर राममनोहर लोहिया ने अपने कई भाषणों में (हमारे ख़िलाफ़) बहुत ही आक्रामक और निजी हमले किये।’
जयप्रकाश नारायण ने अपने पत्र में यह भी लिखा था कि ‘कम्युनिस्ट कह रहे हैं कि लोहिया पर अमेरिका से सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए हज़ारों डॉलर लाने के जो आरोप लगे, दरअसल उसके लिए वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास ज़िम्मेदार है।’
इसके जवाब में पंडित नेहरू ने लिखा कि ‘भारतीय दूतावास ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। मैंने खुद भारतीय राजदूत (विजयालक्ष्मी पंडित) से इस बारे में मालूमात की हालाँकि उन्होंने यह बताया कि वाशिंगटन में इस तरह की अफ़वाहें गश्त कर रही थीं कि लोहिया के अमेरिका आने का एक मक़सद सोशलिस्ट पार्टी के लिए चंदा इकठ्ठा करना था। हमारी राजदूत ने यह भी कहा कि उन्होंने ख़ुद इसकी सच्चाई जानने की कोशिश की और निजी तौर पर इन अफवाहों का खंडन भी किया। तुम्हें याद होगा नॉरमन थॉमस (1884-1968, अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के तीन बार राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार) जब पिछले वर्ष भारत आये थे तो उन्होंने कई मर्तबा यह बयान दिया था कि अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट मूवमेंट को भारत में सोशलिस्ट संगठन के विकास में मदद करनी चाहिए। मेरा ख्याल है उन्होंने ‘जनता’ को दिए गए एक इंटरव्यू में भी यह बात कही थी जबकि अख़बारों में इससे कहीं ज़्यादा बातें कही गयीं। इस समय मेरे पास इंडियन न्यूज क्रॉनिकल, दिल्ली, दिनांक 25 मार्च, 1951 से एक कटिंग है। इसमें नॉर्मन थॉमस ने कथित तौर पर नई दिल्ली में कहा था कि “दुनिया भर के समाजवादियों को भारत में समाजवादी अभियान की सहायता के लिए एक अंतरराष्ट्रीय कोष स्थापित करना चाहिए।” मुझे नहीं पता कि इस कथन का कभी खंडन किया गया था या नहीं। इसके तुरंत बाद लोहिया विश्व सरकार आंदोलन के अतिथि के रूप में अमेरिका गए, मेरा मानना है। संभवत: इस सब ने कुछ लोगों को यह विश्वास दिलाया कि अमेरिका में धन एकत्र किया जा सकता है।
मैं नहीं जानता कि तुम्हारे कहने का क्या मतलब है कि लोहिया और अमरीका स्थित भारतीय दूतावास के बीच ठीक से संपर्क नहीं बन पाया। जहां तक मैं जानता हूं, उनके बीच बिल्कुल भी संपर्क नहीं था और इसलिए साथ रहने या ठीक नहीं होने का कोई अवसर नहीं था। दरअसल, उस समय हमारे पास एक रिपोर्ट आई कि किसी समारोह में हमारे दूतावास के कर्मचारियों में से एक लोहिया से मिला और उन्हें हमारे चांसरी में आने के लिए आमंत्रित किया ताकि भारतीय अधिकारियों को उनसे बात करने का अवसर मिल सके। लोहिया का जवाब शिष्टाचार अनुरूप नहीं था। उसके बाद स्वाभाविक रूप से भारतीय दूतावास के कर्मचारियों का उनसे कोई और संपर्क नहीं रहा। भारतीय दूतावास की नजर में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के आपत्तिजनक होने का कोई सवाल ही नहीं था और न है। विदेशों में हमारे मिशनों को निर्देश दिया जाता है कि वे प्रत्येक भारतीय आगंतुक, चाहे वह कोई भी हो, के प्रति शिष्टाचार का व्यवहार करें। उन्हें राजनीति या व्यक्ति के अन्य विचारों से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। साथ ही, भारतीय आगंतुकों से अपेक्षा की जाती है कि वे विदेश में हमारे मिशनों के प्रति सामान्य शिष्टाचार प्रदर्शित करें, भले ही उनका कोई भी विचार हो। मिशन उनके देश का प्रतीक है। किसी विदेशी द्वारा उस मिशन का कोई भी अनादर करने पर हमारे देश द्वारा गहराई से ऐतराज़ होगा, क्योंकि इसका मतलब देश का अपमान होता है। यह और भी आश्चर्य की बात है कि विदेश जाने वाला कोई भी भारतीय अपने दूतावास के साथ अभद्र व्यवहार करे। अन्य देशों में यह प्रथा नहीं है कि उनके नागरिक अपनी सरकारों और लोगों को नीचा दिखाने के लिए विदेश जाते हैं। वे अपने विवादों को अपने देश तक ही सीमित रखते हैं और उन्हें विदेश नहीं ले जाते हैं। मेरी राय में राममनोहर लोहिया ने इस हितकारी नियम का पालन नहीं किया और विदेशों में उनके संबोधनों का मुख्य कारण यहां की सरकार और अन्य लोगों को नीचा दिखाना था। तुमने (जयप्रकाश) अपने खत में मेरे एक बयान का भी जिक्र किया है कि “मैंने कहा है कि इन लोगों (सोशलिस्टों) ने जनसंघ के साथ चुनावी समझौता किया है।” यह बयान आंशिक रूप से सच है, लेकिन हर मौके पर मैंने यह पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया कि मैंने इस मामले में पार्टी को नहीं, बल्कि व्यक्तिगत उम्मीदवारों को संदर्भित किया, जिन्होंने कुछ स्थानीय व्यवस्थाएं की थीं, जो मेरी जानकारी में आई थीं। राजस्थान में कुछ लोग अपने को समाजवादी कहने वाले जागीरदारों का सहयोग कर रहे थे। जबकि हिमाचल प्रदेश में जनसंघ का सहयोग था और कई अन्य मामले मेरे संज्ञान में आए।
दूसरी ओर यह भी काफी संभावना है कि कुछ कांग्रेसी उम्मीदवारों ने स्थानीय गठजोड़ किए जो अवांछनीय थे। वास्तव में मैंने कुछ निश्चितता के साथ जहां कहीं भी इनका पता लगाया जा सका लगाया और कार्रवाई की। यदि आप मेरा ध्यान ऐसे किसी मामले की ओर दिला सकते हैं तो मैं निश्चित रूप से उनसे पूछताछ करूंगा।’सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू (सैकंड सीरीज,वॉल्यूम 17, पेज नंबर 163-164) और जयप्रकाश नारायण सिलेक्टेड वर्क्स वॉल्यूम 6 (1950-1954).
इन रिश्तों में और ज़्यादा तल्ख़ी दिसम्बर 1957 में उस समय आई जब राममनोहर लोहिया लखनऊ जेल में बंद थे और उन्होंने 10 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश सरकार के जेल मंत्री मुज़्ज़फ़्फ़र हुसैन को एक लंबा खत लिखा जिसका शीर्षक था “वशिष्ठ और वाल्मीकि।” यह खत राममनोहर लोहिया रचनावली भाग 2, पेज 149-165 में प्रकाशित हुआ है। इस खत में लोहिया ने नेहरू पर बहुत ही तीखे हमले किये हैं और उन्हें बौखलाया हुआ प्रधानमंत्री, हिन्दू, विदेशी, राजा और वशिष्ठी कट्टर ब्राह्मण के ख़िताब से नवाज़ा है
Add comment