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नतीजे बताएंगे विपक्ष की रणनीति का असर

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अगले एक हफ्ते के अंदर हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनाव से लेकर दिल्ली में एमसीडी के चुनाव नतीजे आ जाएंगे। हालांकि अलग-अलग राज्यों के और निकाय चुनाव होने के कारण वहां अलग-अलग मुद्दे उठे, तो जाहिर है कि इन तीनों के नतीजों को भी एक ही फ्रेम में देखना मुनासिब नहीं होगा। लेकिन आज की तारीख में जिस तरह से हर छोटा-बड़ा चुनाव भी हाई वोल्टेज से लड़ा जा रहा है, जिनमें स्थानीय मुद्दे गौण रहते हैं और राष्ट्रीय और प्रतीकात्मक मुद्दे हावी होते हैं तो इन नतीजों को नैशनल ट्रेंड भी माना जाता है। यह कुछ हद तक सही भी है। इस बार चुनाव में जहां विपक्षी दलों की ओर से चुनाव लड़ने का तरीका बदलने की कोशिश की गई, वहीं बीजेपी अपने आजमाए हुए उसी प्लान पर टिकी रही, जिसके चलते वह पिछले आठ सालों से कामयाब रही है। इन तीनों चुनाव के नतीजे यह भी बताएंगे कि क्या विपक्ष की बदली हुई रणनीति ने कुछ काम किया या फिर बीजेपी का आजमाया हुआ प्लान अभी भी कामयाब है?

सब पर भारी लोकल
बीजेपी एक बार फिर गुजरात, हिमाचल प्रदेश से लेकर दिल्ली नगर निगम तक के चुनाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम को आगे रखकर ही लड़ रही है। 2014 से बीजेपी के लिए मोदी फैक्टर ही जीत की सबसे बड़ी वजह रहा है, जिसका उपयोग कर पार्टी ने कई मौकों पर तमाम स्थानीय कमजोरियों को दरकिनार कर चुनावी जीत हासिल की। इस बार भी हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी की बात सामने आई, पार्टी गुटबाजी से घिरती रही। ऐसे में नरेंद्र मोदी ने खुद को संकटमोचक के रूप में पेश करते हुए जनता को संदेश दिया कि वह उनके नाम पर वोट दे। इसका कितना असर हुआ, यह तो 8 दिसंबर को ही पता चलेगा, लेकिन जानकारों का भी मानना है कि अगर पार्टी वहां सत्ता वापसी की उम्मीद कर रही है तो इसके लिए एकमात्र रूप से मोदी फैक्टर ही जिम्मेदार होगा। उसी तरह गुजरात में भी नरेंद्र मोदी ने पूरी चुनावी कमान अपने जिम्मे ले ली। गुजरात में 27 सालों की एंटी इनकंबेंसी को दरकिनार कर अगर बीजेपी अभी भी फायदे की स्थिति में दिखती है तो इसका एकमात्र कारण मोदी फैक्टर है।

उधर दिल्ली एमसीडी चुनाव में भले नरेंद्र मोदी प्रत्यक्ष रूप से प्रचार में शामिल नहीं हैं, लेकिन बीजेपी पूरी तरह उनके नाम पर ही निर्भर है। कोई भी चुनाव हो, बीजेपी के पोस्टर में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का संकेत दिया जाता है। हालांकि सियासी जानकार बीजेपी की नरेंद्र मोदी के नाम पर अतिनिर्भरता को लंबे समय तक के लिए कोई सकारात्मक फैक्टर नहीं मान रहे हैं। उनका कहना है कि पार्टी को जीत के और नुस्खे जल्द निकालने होंगे। खासकर विधानसभा और स्थानीय चुनावों में। इसके पीछे वाजिब तर्क भी हैं। जब भी लोग स्थानीय या राज्य चुनाव को उसी तरह सोचकर वोट देने का मन बनाते हैं, तब मोदी फैक्टर काम नहीं करता। ऐसी सूरत में बीजेपी मुश्किल में जाती हुई दिखती है। इसीलिए विपक्षी दलों ने चुनावों में फोकस स्थानीय मुद्दों पर ही रखा और इन्हीं विषयों के इर्द-गिर्द सरकार को घेरने की भी कोशिश की। क्षेत्रीय दल भी अब बीजेपी के राष्ट्रीय मुद्दों को इग्नोर कर स्थानीय और आर्थिक मुद्दों की बात करने लगे हैं। 2014 के बाद से अब तक 50 विधानसभा चुनाव हुए हैं। इसमें 24 चुनाव बीजेपी और उनके सहयोगी दलों ने जीते हैं। कांग्रेस ने 7 चुनाव और 19 चुनाव क्षेत्रीय दलों ने जीते हैं। जहां बीजेपी की सरकार थी, वहां 11 जीते और 7 हारे। बीजेपी जहां भी हारी है, वहां क्षेत्रीय अस्मिता और स्थानीय मुद्दे ही अहम वजह बने हैं।

विपक्षी रणनीति का हाल
मोदी फैक्टर की काट खोजने की तलाश में विपक्ष ने इस बार जो रणनीति बदली, उसके बारे में भी 8 दिसंबर को पता चलेगा कि वह कितनी कारगर रही। कांग्रेस ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव को इस बार पूरी तरह स्थानीय चुनाव के रूप में प्रॉजेक्ट करने की कोशिश की। यहां तक कि इस बात के लिए कांग्रेस की आलोचना तक हुई कि वह इन चुनावों को गंभीरता से नहीं ले रही है। इस पर पार्टी नेताओं का तर्क यह रहा कि वह राष्ट्रीय मसलों और नेताओं से चुनाव को दूर रखकर स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेतृत्व के भरोसे इसे लड़ रहे हैं। इसका लाभ पार्टी को इतना जरूर हुआ कि दोनों चुनावों में भले बीजेपी ने राष्ट्रीय मुद्दों को लाने की पूरी कोशिश की, लेकिन अंत तक चुनाव में यह मुद्दा पिछले चुनावों के मुकाबले कम प्रभावी दिखा। कांग्रेस को इसी में उम्मीद की किरण दिखी। पूरे चुनाव में पार्टी नरेंद्र मोदी के नाम को अलग करके उन राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके मुद्दों पर ही फोकस करती दिखी। इसके अलावा ओल्ड पेंशन योजना, मुफ्त बिजली जैसे मसलों को उसने चुनाव में आगे किया। पार्टी के राष्ट्रीय नेता खासकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी चुनाव से दूर ही रहे। आम आदमी पार्टी ने भी गुजरात में यही रणनीति बनायी। पार्टी ने तो यहां तक कहा कि अगर वह सत्ता में आती है तो दिल्ली में नरेंद्र मोदी का नाम और बढ़ाएंगे। दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी कूड़े और दूसरे स्थानीय मुद्दे को लेकर चुनाव लड़ रही है।

लेकिन जानकारों के अनुसार अगर कांग्रेस इस रणनीति के प्रति गंभीर है तो उसे स्थानीय नेतृत्व को भी मजबूत करना होगा। ऐसे चुनावों में अपने मुख्यमंत्री का चेहरा भी सामने लाना होगा, तभी यह तरीका और कारगर हो सकता है। आंकड़े भी इस बात को साबित करते हैं। बीजेपी जिन राज्यों में हारी है, वहां स्थानीय स्तर पर स्थापित विपक्ष के चेहरे थे। चाहे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हों या झारखंड में हेमंत सोरेन या तेलंगाना या ऐसी कई और मिसालें- स्थानीय स्तर पर नाम सामने लाने का लाभ मिला। ऐसे में कांग्रेस ने जरूर इस बार अलग रणनीति अपनाने की कोशिश की, लेकिन वह आधी-अधूरी सी ही रही। 8 दिसंबर को जब चुनाव के नतीजे आएंगे, तब परिणाम के साथ इन रणनीतियों के हासिल पर भी विस्तार से चर्चा होगी।

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