आप शरीर नहीं हैं. आप ‘शरीर में’ हैं. कीजिये सत्यासत्य का तटस्थ अवलोकन; हमारे निष्काम सहयोगी ‘डॉ. विकास मानव‘ {मनोचिकित्सक/ध्यानप्रशिक्षक : निदेशक,चेतना विकास मिशन} की देशना से.
~ सम्पादक.
———————————————-
*हमारे शरीर का संरचनात्मक सत्य :*
मानव शरीर का सम्बन्ध प्रकृति से है। प्रकृति ने जिस प्रकार मानव शरीर की संरचना की है, वह अपने आप में विस्मयकारी है। शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर की रचना का जितना ही अधिक विचार-विश्लेषण किया जाय, उतना ही यह तथ्य स्पष्ट होता जाता है कि इसकी संरचना अद्भुत है।
_206 हड्डियों और 600 से भी अधिक मांसपेशियों के ऊपर त्वचा का चोला तना है। हड्डियों, मांसपेशियों और त्वचा–तीनों की संरचना का कौशल आश्चर्यजनक है। हड्डियों जैसी मजबूत और हल्की चीज़ की कल्पना करना भी कठिन है। शरीर का जितना वजन होता है, हड्डियां उसके पांचवें हिस्से से भी कम होती हैं।_
अपने शरीर का ही भार इन पर कम नहीं होता। जब हम ख़ाली हाथ डुलाते हुए चलते हैं तो उस समय हमारे जांघ की हड्डी के एक-एक वर्ग इंच क्षेत्र पर पांच-पांच सौ किलो का दबाव पड़ रहा होता है। शरीर का भार, धरती का गुरुत्वाकर्षण और हवा का तेज भार–ये तीन दबाव हड्डियां झेल रही होती हैं।
इस दबाव को सिर्फ स्टील की छड़ ही बर्दाश्त कर सकती है। सीमेंट और स्टील को मात करने वाली ये मानव अस्थियां कितनी मजबूत फिर भी कितनी हल्की होती हैं।
*मानव अस्थियां :*
हड्डियों की बनावट का कौशल और सूझबूझ विचित्र है। आधुनिक इमारतों में गोलाईदार पतली छत बनाई जाती है क्योंकि अंडाकार खोल पतला होने पर भी मजबूत होता है। मानव मस्तिष्क की रक्षा करने वाली खोपड़ी की हड्डियां गोलाकार प्लेटों की शक्ल में होती हैं।
जांघ की हड्डियों पर अधिक ज़ोर पड़ता है तो इन्हें भी एक खोखले बेलन की आकृति दे दी गयी है। जांघ, कूल्हे, बांह और कंधे की हड्डियों का जोड़ ऐसा है जैसे किसी गोल छल्ले में गेंद फंसा दी जाय ताकि आसानी से घूम भी सके और फंसी भी रहे। खोपडे, कूल्हे जैसे स्थानों में हड्डी का हिलना-डुलना घातक हो सकता है। इसलिए वहां के जोड़ बहुत मजबूत बने रहते हैं।
_स्त्री के कूल्हों की हड्डियां पुरुषों से अलग होती हैं। उनमें यह व्यवस्था रहती है कि प्रसव-काल समीप आते ही जोड़ कुछ खुल जाएं ताकि आसानी से प्रसव हो सके और शिशु सुरक्षित बाहर आ सके। पसलियों का जोड़ सीने की हड्डी के साथ कुछ इस तरह होता है कि उनके जोड़ को घूम और फिसल कर फैलने – सिकुड़ने में आसानी हो।_
हड्डियों के इन जोड़ों की व्यवस्था का परिणाम है हम शरीर को तरह-तरह से घुमा सकते हैं।
वास्तव में मनुष्य का शरीर ही नहीं, मन, बुद्धि, अंतःकरण–सभी इतने समर्थ होते हैं कि छोटी-छोटी भूलों को सुधार लेना या कहें हल्के-फुल्के आघातों को झेल लेना उनके लिए सरल बात होती है। अनाचार और अपव्यय की अति ही उन्हें कमज़ोर और बीमार बनाती है।
_अन्यथा प्रतिकूलताओं के बीच में रहते हुए भी मानव शरीर अनुकूलता में बदल सकता है। शरीर की मासपेशियां अपने से हज़ार गुना वजन संभाले रहती हैं।_
पेट की मांसपेशी खाना खाने के लिए स्वतः फैलती चली जाती है। ह्रदय की मांसपेशी गर्भस्थ शिशु में तीसवें दिन से काम शुरू कर देती है और रात-दिन सेवा में तत्पर रहती है। वह आजीवन क्रियाशील रहती है।
साधारण कार्य करते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपनी मांसपेशियों पर इतना ज़ोर डालता है जितना कि ज़ोर टनों माल उठाते समय किसी क्रेन पर लगातार पड़ता है। अपनी हड्डी और मांसपेशी तो आदमी साधारणतः देख नहीं पाता पर त्वचा पर उसकी नज़र तो रोज़ ही पड़ती है।
_इस त्वचा को रंगने-पोतने में हज़ारों रुपये खर्च करते हैं पर त्वचा के वास्तविक चमत्कार को कम ही लोग जान पाते हैं और जानने पर भी याद तो और भी कम लोग रख पाते हैं।_
1- बाहरी ताप को झेलने,
2- शरीर के भीतरी ताप को सामान्य बनाये रखने,
3- स्पर्श-बोध के द्वारा जानकारी देते रहने और
4- भीतरी अंगों को चोट-चपेट, कीटाणु-विषाणु से बचाये रखने का कार्य हमारी त्वचा निरन्तर करती रहती है।
जबकि शरीर के किसी भी हिस्से में यह एक इंच के पांचवें हिस्से से भी अधिक पतली होती है। इतनी नाजुक और पतली त्वचा के भी हिस्से होते हैं। त्वचा का बाहरी हिस्सा जो ‘एपिडर्मिस’ कहलाता है,एक चतुर चौकीदार होता है।
_अपने चौकीदार के कर्तव्य को करने के लिए जहाँ जैसी व्यवस्था आवश्यक है, वैसी ही व्यूह-रचना उसने कर रखी है। आँख जैसी कोमल स्थान की रक्षा के लिए वह इतनी पतली और मृदु हो गई है–एक इंच के दो हजारवें भाग के बराबर ही उसकी तह है। उँगलियों के नाजुक पोरों की रक्षा के लिए तो उसने नाखूनों का ही निर्माण कर डाला है।_
तलुओं में वह मोटे-तगड़े चौकीदार के रूप में बैठी है। हड्डियों के उन जोड़ों पर जहाँ मोड़ने की जरुरत पड़ती है,यह त्वचा ढीली-ढाली होती है।
बाहरी त्वचा के नीचे वाली तह किसी विशाल व व्यवस्थित दल के निष्ठावान स्वयंसेवकों की तरह चुपचाप काम करती रहती है। वह नित नए कोष रूपी कार्यकर्त्ता तैयार कर उन्हें व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ाती है ताकि समय आने पर वे बाहर मंच की व्यवस्था संभाल सकें।
_दुनियां को गोरे-काले, भूरे-पीले के भेदों में फंसाने वाला ‘मेलेनिन’ नामक पदार्थ इसी तह में होता है। ‘मेलेनिन’ पदार्थ की अधिकता से रंग काला हो जाता है। तेज धूप और गर्मी से शरीर की रक्षा के लिए अधिक ‘मेलेनिन’ की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए गर्म देशों के लोग ज्यादा काले रंग के होते हैं।_
मोर भी ज्यादा समय यहाँ रहें तो ताम्बई रंग होने लगते हैं। भीतरी त्वचा का कारोबार तो और भी जटिल है। उनमें लाखों बारीक तार अर्थात् स्नायु-तंतु फैले हुए हैं जो प्रत्येक स्पर्श की संवेदना मस्तिष्क तक ले जाते हैं और वहां से आवश्यक सूचना- निर्देश लाते हैं। सर्दी-गर्मी, पीड़ा-रोमांच आदि की अनुभूतियों के सन्देश-वाहक में बारीक तार कुल मिला कर अपने आप में किसी विशाल दूरभाष केंद्र की छवि पैदा करते हैं।
_मस्तिष्क के ‘हाइपोथैलेमस’ केंद्र से जैसे ही दूरभाष पर खबर मिली कि शरीर का तापमान बढ़ गया है, वैसे ही रक्तप्रवाह की और त्वचा में स्थित पसीने की ग्रंथियों की गति तेज हो जाती है और रक्त की बढ़ी हुई गर्मी बाहरी त्वचा के रास्ते पसीने के रूप में निकलने लगती है। तापमान गिरने की इस टेलीफोन से खबर मिलने पर रक्त प्रवाह कम हो जाता है। पसीने की ग्रन्थियां भी अपना काम धीमा कर देती हैं।_
त्वचा और चर्बी की पर्तें शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देती। इस प्रकार किसी वायरलेस-सज्जित, अनुशासित और पुलिस-दल की तरह चौकस, सक्रिय, समर्पित स्वयंसेवकों की तरह निष्काम भाव से सेवारत तथा परिपक्व बुद्धि संचालकों की तरह सूझ-बूझ से काम लेने वाली यह शरीर की व्यवस्था जितनी विशाल है, उतनी ही जटिल भी है।
*आश्चर्यजनक शरीर :*
शरीर की क्रियाशीलता, लचीलापन, संतुलन, क्षमता, दृढ़ता–सभी कुछ आश्चर्यजनक है। योग-व्यायाम, जिम्नास्टिक,
सर्कस, ओलम्पिक खेलों में शरीर के इस सन्तुलन के करतब देखकर लोग मुग्ध होते हैं।
_हाथ की उँगलियों से उसी हाथ की कुहनी को छू सकना या कि गर्दन को मोड़कर चेहरा पीठ की ओर ले जाना जैसे मोड़ भी असम्भव है। अन्यथा मानव शरीर में इतनी अधिक मुड़ सकने, झुक सकने की सामर्थ्य है जोकि बेमिशाल है। क्रियाशीलता ऐसी ही बेजोड़ है।_
बहुत अधिक मेहनत करने पर मांसपेशियों में जो थकान होती है, वह भी आराम करने के बाद दूर हो जाती है पूरी तरह। सामान्यतया मनुष्य अपने शरीर की इस आश्चर्यजनक क्षमता के प्रति जागरूक नहीं रहते। दूसरों की असामान्यता आकर्षित करती है उन्हें।
बिना कभी सोये दिन रात लगातार वर्षों काम करने वाले व्यक्ति के शरीर की क्रियाशीलता याद दिलाते हैं। चलती रेल, मोटर रोक देने वाले राममूर्ति जैसे व्यायाम विशारदों के करतब हमें शक्ति का भान कराते हैं। कीलें, पिन और रेत खाकर पचा लेने वालों को देखकर पाचन शक्ति का ध्यान आता है।
_यदि अपने शरीर की अंतरंगता के प्रति जागरूकता हो तो ऐसी असामान्य घटनाओं को बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं पड़े। प्रत्येक मनुष्य के शरीर में प्रतिक्षण चल रहा भव्यक्रिया-व्यापार स्वयं ही इतना विस्मय विभोर कर देने वाला है कि उसे खोजने के लिए बाहर दौड़ने की मेहनत ज़रूरी नहीं है।_
अपने भीतर ही एक जादूगर मौजूद है। आवश्यकता है शरीर की इन विलक्षणताओं को समझने की, उनका मूल्य आंकने की है।
माँ के स्तन से जो दूध प्राप्त होता है वह किसी भी रेफ्रीजिरेटर से संरक्षित दूध को ताजगी में मात करता है। कान जैसा यंत्र मनुष्य द्वारा बनाया जाना अभी स्वप्न ही है। आँख जैसे कैमरों का बन पाना अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है।
_फ़िल्म बनाते समय भी फोटो दृश्य और केमरे की दूरी का सन्तुलन साधते हुए फोकस मिलाना पड़ता है। फोकस लेंथ को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता।_
पर पास-से-पास और दूर-से-दूर की वस्तु देखने के लिए अपनी आँखों को आगे पीछे किये बिना मजे में देखते रह सकते हैं। फिर वे एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।
*प्राण~ साधना की अभिक्रियाएँ :*
दसों प्राणों का संयोजन- नियोजन करने, कुप्रवृत्तियों का निवारण करने और प्राणशक्ति पर अधिकार प्राप्त करने साथ ही आत्मिक उन्नति के लिए प्राण-विद्या का रहस्य अवश्य जानना चाहिए, चाहे वह योगी हो या साधक हो या हो गृहस्थ।
_योगशास्त्र में प्राणों को साधने के लिए काफी क्रियाएँ हैं लेकिन उनमें से कुछ यहाँ दी जा रही हैं। बन्ध, मुद्रा, प्राणायाम और ध्यान– ये मुख्य हैं योगशास्त्र में।_
प्राण को साधने के लिए मुख्य तीन बन्ध हैं–
*1. मूलबंध :*
प्राणायाम की सहायता से यह सिद्ध होता है। इससे अपान प्राण स्थिर हो जाता है। वीर्य-स्तंभन होता है। वीर्य उर्ध्वभाग की ओर अग्रसर होता है। अपान प्राण का स्पन्दन बढ़ जाता है और मूलाधार स्थित कुण्डलिनी पर भी प्रभाव पड़ता है।
उसमें ऊर्जा का प्रभाव बढ़ जाता है। अपान प्राण और कूर्म प्राण दोनों पर मूलबन्ध का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। रक्त संचार ठीक होता है।
*2. जालंधर बन्ध :*
श्वास क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञान-तंतु बलवान होते हैं। इसकी क्रिया से 16 ऊर्जा क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ता है।
विशुद्ध चक्र को जागृत करने में इसकी बड़ी भूमिका होती है। हठयोग प्रदीपिका में इसका विस्तार से वर्णन आया है।
*3. उड्डीयान बन्ध :*
जीवनी शक्ति को बढाने के लिए परम सहायक सिद्ध होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता लाता है। सुषुम्ना नाड़ी को खोलने में सहायक है और स्वाधिष्ठान चक्र चैतन्य करता है।
कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में ये तीनो काफी सहायक होते हैं।
*ज्ञान~ तन्तु समूह :*
हमारे रहस्यमय मस्तिस्क पर वैज्ञानिक लोग शोध और खोज कार्य कर रहे हैं और उनको अब तक जो तथ्य उपलब्ध हुए हैं और भविष्य में होंगे, हज़ारों वर्ष पहले उनसे भारतीय योगी पूर्णरूप से परिचित थे–इसमें कोई संदेह नहीं।
_मस्तिष्क का सबसे रहस्यमय भाग ‘सेरेब्रेल-कारटेक्स’ है। उसी के द्वारा जीवन के सारे क्रिया-कलापों का नियन्त्रण होता है। मनुष्य के ज्ञान, बुद्धि, विवेक, तर्क तथा सोचने-समझने की क्षमता न्यूरॉन्स पर आधारित है। न्यूरॉन्स जितने सूक्ष्म, सक्रिय और सक्षम होंगे, उतनी ही उन सबकी मात्रा अधिक होगी।_
मस्तिष्क द्वारा विचार- सम्प्रेषण की गति कोशिकाओं में उत्पन्न होने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगों पर आधारित है जिसका सम्बन्ध ‘रेबरेटिंग सिस्टम’ से होता है। उसी में स्मृतियों का भंडार भी है।
मनुष्य के शरीर में ज्ञान तन्तु समूह के दो भाग हैं–
1- मस्तिष्क और मेरुदण्ड के भीतर खाली स्थान।
2-. छाती, पेड़ू और पेट।
_इन दोनों स्थानों में ज्ञान तन्तु समूह का मायाजाल फैला हुआ है। पहले ज्ञान तन्तु समूह को ‘सेरिब्रो स्पाइनल सिस्टम’ कहते हैं। और दूसरे को कहते हैं–‘सिम्पैथेटिक सिस्टम’।_
शरीर में इच्छानुसार क्रियाओं और भावनाओं का व्यापार पहले प्रकार के ज्ञानतन्तु समूह करते हैं और बुद्धि, पुष्टि, पाचन-क्रिया आदि स्वाभाविक व्यापार दूसरे तरह के ज्ञानतन्तु समूह करते हैं। शब्द, रूप, स्पर्श, रस और गन्ध आदि की क्रिया और व्यापार मस्तिष्क और मेरुदण्ड के ज्ञानतन्तु समूह करते हैं। इसके आलावा विचार करने की क्रिया भी इन्हीं के द्वारा होती है।
मेरुदण्ड के ज्ञानतन्तु बाल से भी पतले और सूक्ष्म होते हैं। बुद्धि जैसे समस्त मानस व्यापार मुख्य मस्तिष्क में होते हैं।
मस्तिष्क को तीन भागों में विभक्त किया गया है–
1. मुख्य मस्तिष्क,
2. गौण मस्तिष्क
3. अधो मस्तिष्क।
_मुख्य मस्तिष्क को ‘सेरीब्रम’, गौण मस्तिष्क को ‘सेरिबेलम’ तथा अधो मस्तिष्क को ‘मेडुला आबलोंगेटा’ कहते हैं। मुख्य मस्तिष्क की सीमा में खोपड़ी, कपाल प्रदेश के आगे ,मध्य और पीछे का हिस्सा है। गौण मस्तिष्क की सीमा में मस्तक की खोपड़ी के नीचे तथा पिछले भाग का समावेश है। अधो मस्तिष्क मुर्गी के अंडे के आकार का है जिसके अंदर पीले रंग का द्रव भरा है।_
एक रहस्य की बात यह है कि उस अज्ञात और रहस्यमय द्रव में अत्यन्त सूक्ष्म एक हज़ार की संख्या में ज्ञान तंतुओं का समूह तैरता रहता है जिसे योग की भाषा में ‘सहस्त्रार’ कहते हैं।
इस भाग में हल्का-सा आघात लगने पर व्यक्ति मूर्छित हो सकता है, पागल हो सकता है और कभी-कभी तो उसके अवचेतन मन की परामानसिक शक्ति भी जागृत हो सकती है और व्यक्ति असीम शक्ति का स्वामी हो जाता है जिसे वह स्वयं भी नहीं जान पाता।
इन ज्ञान तंतुओं का एक सिरा ब्रह्मरंध्र से जुड़ा हुआ है और दूसरा सिरा मेरुदण्ड के ज्ञानतन्तु समूह से। वह अंडाकार मेडुला आबलोंगेटा मेरुदण्ड के शिखर पर स्थित है। उसके ज्ञानतंतुओं का जो सिरा मेरुदण्ड से जुड़ा हुआ है, वह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी के रूप में पोला मेरुदण्ड के भीतर से नीचे मूलाधार चक्र तक आई है।
_इड़ा और पिंगला नाड़ी को ‘मनोवहा’ और ‘प्राणवहा’ नाड़ी भी कहते हैं। क्योंकि इड़ा नाड़ी में मन का प्रवाह है और पिंगला नाड़ी में प्राण का प्रवाह है।_
सुषुम्ना शून्य नाड़ी है। उसमें आत्मऊर्जा का प्रवाह है लेकिन तब जबकि कुण्डलिनी का जागरण होता है।
*शरीर में शक्ति के नौ केंद्र :*
हमारे मेरुदण्ड के भीतर ऊपर से नीचे तक ज्ञानतंतुओं का एक लम्बा समूह है जिससे सम्बंधित असंख्य ज्ञानतन्तु का जाल सारे शरीर में फैला हुआ है। शरीर में जो और जितने प्रकार के ज्ञानतन्तु हैं, वे मनोविकार से अत्यधिक प्रभावित होते हैं।
_यदि अधिक समय तक मस्तिष्क मनोविकार से ग्रस्त हो तो तरह-तरह के मानसिक रोगों के उत्पन्न होने की आशंका बन जाती है। भूत-प्रेत आदि अशरीरी आत्माएं भी विकारग्रस्त मस्तिष्क को प्रभावित कर अनेक प्रकार से कष्ट पहुंचाती हैं। इसलिए मस्तिष्क को स्वच्छ रखना आवश्यक है और यह तभी सम्भव है जब हम सदैव निर्भय रहें, प्रसन्न रहें, उत्साह से भरे रहें, हमारे विचार रचनात्मक हों और आत्म – विश्वास से भरे हों।_
मेरुदण्ड में जो ज्ञानतन्तु हैं उनकी कुल नौ ग्रन्थियां हैं। वे ग्रन्थियां नौ प्रकार की भिन्न-भिन्न शक्तियों के केंद्र हैं जिनको योग की भाषा में चक्र कहते हैं।
नौ में छः चक्रों को क्रमशः 1.मूलाधार चक्र, 2.स्वाधिष्ठान चक्र, 3.
मणिपूरक चक्र, 4.अनाहत चक्र, 5.विशुद्ध चक्र और 6. आज्ञा चक्र कहते हैं।
साधना की दृष्टि से मानव शरीर को दो भागों में विभक्त किया गया है–जिनको ज्ञान- खण्ड और कर्म-खण्ड कहते हैं। कण्ठ से ऊपर का भाग ज्ञान-खण्ड है। इस खण्ड में सभी ज्ञानेंद्रयां हैं। कण्ठ से नीचे का भाग कर्म-खण्ड है। इस खण्ड में सभी कर्मेन्द्रियाँ हैं।
_आज्ञा चक्र को छोड़ कर शेष पांच चक्र कर्म खण्ड के अंतर्गत हैं। आज्ञा चक्र ज्ञान खण्ड में है। आज्ञा चक्र समस्त ज्ञान-विज्ञान का केंद्र समझा जाता है।_
उपर्युक्त ज्ञानतन्तु समूहों के अतिरिक्त एक विशेष प्रकार का ज्ञान तन्तुओं का समूह है जिनकी तीन ग्रन्थियां या चक्र हैं जिनको योग में कहते हैं–सहस्त्रार चक्र, सोम चक्र और पीयूष चक्र। ये तीनों चक्र भी ज्ञान खण्ड में हैं। ये तीनों चक्र क्रमशः-अधो मस्तिष्क (मेडुला आबलोंगेटा), गौण मस्तिष्क (सेरी बेलम) और मुख्य मस्तिष्क (सेरिब्रम) में स्थित हैं।
इनमें अधोमस्तिष्क (सहस्त्रार चक्र) का सम्बन्ध ब्रह्मरंध्र द्वारा सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड और उसमें स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों से समझना चाहिए।
_सहस्रार चक्र, सोम चक्र तथा पीयूष चक्र की जो विशेष ज्ञानतन्तुओं की ग्रन्थियां है, अपनी-अपनी शक्तियां हैं जिनको तांत्रिक साधना-भूमि में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती कहते हैं।_
दूसरी दृष्टि से नौ चक्रों की शक्तियों को ‘नवदुर्गा’ भी कहते हैं। सोमचक्र का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है जिसकी अभिव्यक्ति नेत्रों द्वारा होती है। नेत्र-ज्योति सोम-चक्र का परिणाम है।
इसके बाद पीयूष चक्र का महत्व है। इस चक्र से ब्राह्म मुहूर्त में तीन बून्द अमृत का क्षरण नित्य होता है। अमृत के उन तीनों बूंदों का पर्याय ‘सत्यम्’, ‘शिवम्’, ‘सुंदरम’ हैं। सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् अमृत के तीन बून्द हैं। पहली बून्द जीभ को प्राप्त होती है जिसके फलस्वरूप मुख कभी सूखता नहीं है। उसमें लार बनती रहती है।
_मृत्यु के एक दिन पूर्व मुख को वह बून्द प्राप्त होना बन्द हो जाती है जिसके फलस्वरूप मृत्यु पूर्व व्यक्ति का मुख सूखने लगता है।_
दूसरी बून्द ह्रदय को प्राप्त होती है जिससे ह्रदय को प्राकृतिक ऊर्जा प्राप्त होती रहती है और शरीर में प्राण-संचार की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती रहती है।
तीसरी बून्द नाभि को प्राप्त होती है जिसके फलस्वरूप ‘परावाणी’ की उत्पत्ति होती है जो क्रमशः ‘पश्यन्ति’, ‘मध्यमा ‘के रूप में परिवर्तित होकर अन्त में ‘बैखरी’ वाणी के रूप में मुख से प्रकट होती है। लेकिन मरणासन्न अवस्था में वह बून्द नाभि को प्राप्त नहीं होती है और यही कारण है कि मृत्यु पूर्व वाणी बंद हो जाती है.
ऐसी ही स्थिति ह्रदय को प्राप्त होने वाली बून्द की भी है। मृत्यु के कुछ पल पूर्व ह्रदय को भी बून्द प्राप्त होना बन्द हो जाती है जिससे ह्रदय अपना काम करना बन्द कर देता है।
*विशेष ज्ञान~तन्तुओं का कार्य :*
विशेष ज्ञान-तन्तुओं के प्रभाव के अन्तर्गत स्वतन्त्र तन्त्रिका-तंत्र है। इस तंत्र के द्वारा विशेष ज्ञान-तंतु शरीर में कार्य करते हैं। साँस लेना, पलकों का अपने आप झपकना-उठना-गिरना, ह्रदय का अपने आप धड़कना, अपने आप आंतों का काम करना, स्वाभाविक क्रिया के अंतर्गत है।
_इसके लिए किसी प्रकार का प्रयास नहीं करना पड़ता है। स्वयं होता है सब। उन पर प्रकृति का अधिकार है। उसी के द्वारा वे संचालित होते हैं।_
योग-तांत्रिक साधना-भूमि में तीन ‘भाव’और सात ‘आचार’ हैं। ‘पशुभाव’,
‘वीरभाव’ और ‘दिव्यभाव’–ये तीन भाव हैं। ‘वामाचार’, ‘कौलाचार’, ‘समयाचार’ आदि सात आचार हैं। एक योग-तंत्र साधक के लिए सर्वप्रथम तीसरे प्रकार के भाव को उपलब्ध होना होता है।
_जब तक मनुष्य के शरीर पर प्रकृति का अधिकार है, तब तक वह पशु है। जैसे पशु पराधीन है, उसी प्रकार मनुष्य भी प्रकृति के पराधीन है। इसी को कहते हैं–पशुभाव। इसके बाद है–वीरभाव। प्रकृति के द्वारा संचालित शरीर के अंगों (इन्द्रियों) पर अपना अधिकार प्राप्त कर लेना वीरभाव है।_
ह्रदय उसके आदेश पर धड़कता है और आदेश पर धड़कन बंद भी हो सकती है। इसी प्रकार पलकों और आँतों पर भी उसका अधिकार हो जाता है। श्वास और प्रश्वास तो होता ही है उसके वश में।
प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। उसका ‘सत्वगुण’ आकाश तत्व है। ‘रजोगुण’ वायु और जल तत्व हैं और ‘तमोगुण’ अग्नि और भूतत्व है। इस प्रकार प्रकृति का पंचतत्वों पर पूरा अधिकार है। निर्माण, रक्षा और नाश उसका स्वाभाविक कार्य है।
_जिस प्रकार पंचभूत तत्वों से मानव शरीर की रचना हुई है, उसी प्रकार उन्हीं से इस जगत का भी निर्माण हुआ है। इसीलिए कहा गया है कि इस जगत में जो कुछ भी है, वह सब मानव शरीर में भी विद्यमान है। एक सफल और सिद्ध योगी पञ्च तत्वों का सहारा लेकर प्रकृति को पराजित करता है और अपने शरीर पर अधिकार प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार का वीरभाव प्राप्त योगी सम्पूर्ण जगत को भी अपने अधिकार में कर लेता है।_
प्रकृति उसकी अनुगामिनी बन जाती है। प्रकृति से वह कोई भी कार्य कराने में वह सफल हो जाता है।
वीरभाव के बाद है–दिव्यभाव।
दिव्यभाव प्राप्त योगी की सहचरी होती है प्रकृति। इस अवस्था में प्रकृति की सहायता से किसी भी भौतिक वस्तु की सृष्टि कर सकने में समर्थ होता है।
उक्त अवस्थाओं के बाद आता है–प्रकृति-तादात्म्य। यह साधक की अवर्णनीय विशेष अवस्था है। साधक का जो पुरुष है, वह प्रकृति से युक्त होता है। उससे तादात्म्य स्थापित करता है।
_दोनों एकाकार होकर अद्वैतानुभूति को उपलब्ध होते हैं। इसी अवस्था को शाक्ततंत्र कहता है–‘सामरस्य महामिलन’। बोद्धतंत्र कहताहै–‘महासुख’।_
दूसरे प्रकार के ज्ञानतन्तु समूह का सम्बन्ध ‘स्वतंत्र तंत्रिका-तंत्र’ से है। दोनों प्रकार के ज्ञान-तंतुओं द्वारा मस्तिष्क जिस शक्तितत्व को सम्पूर्ण शरीर में समान रूप से वितरित करता है, वह है-
‘प्राण-तत्व की गतिशक्ति’ जिसके कारण सभी अंग संचालित और क्रियाशील होते हैं शरीर के। शरीर विज्ञान उसी को कहता है–Nerve Force. योग के अनुसार प्राण-तत्व की उस शक्ति की गति विद्युत-गति से भी अधिक है। पांच प्रकार के मुख्य प्राण हैं।
उन पांचों प्राणों के मिश्रण से तीन प्रकार की शक्तियां उत्पन्न होती हैं–गतिशक्ति (Force), बलशक्ति (Power) और स्थिरशक्ति (Energy). इन तीनों शक्तियों के भिन्न भिन्न तीन रूप हैं। इस प्रकार नौ रूप हैं और जिनका स्थान शरीर में स्थित नौ केंद्र या चक्र हैं।
_यदि मस्तिष्क द्वारा ज्ञान-तन्तु समूहों में गतिशक्ति का प्रवाह न हो तो शरीर में रक्त का प्रवाह न हो, ह्रदय की क्रिया न हो, फेफड़े का काम न हो, श्वास-प्रश्वास की क्रिया भी न हो। कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर की आन्तरिक और बाह्य सभी क्रियाएँ प्राण की उसी गतिशक्ति (Force) द्वारा होती है।_
प्रवाह बन्द होने का अर्थ है–मृत्यु। प्रवाह बन्द होते ही ज्ञानखण्ड और कर्मखण्ड एक दूसरे से तुरंत अलग हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि भीतर से सिर और धड़ एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। दोनों का भार भी अलग-अलग हो जाता है।
किसी मृत व्यक्ति का सिर हाथ में लीजिये। उसका भार कितना है ?–इसका अनुभव हो जायेगा। जीवित व्यक्ति के सिर का भार अलग से अनुभव नहीं होगा, इसलिए कि वह धड़ से जुड़ा हुआ होता है। लेकिन एक आश्चर्य की बात अवश्य है और वह यह है कि प्राण की गतिशक्ति का प्रवाह रुक जाने पर भी उससे उत्पन्न होने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगें मस्तिष्कीय कोशिकाओं से काफी समय तक निकलती रहती हैं जिसके फलस्वरूप सिर गर्म रहता है मृत्यु के बाद भी कुछ अवधि तक।
_यह एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था है कि जिसमें मृतक अपने अंतःकरण में अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं का अनुभव करता है। लेकिन उसका विरोध करने में असमर्थ रहता है।_
*मणिपूरक चक्र :*
शरीर की संरचना में हमारी नाभि का महत्वपूर्ण कार्य है। नाभि में ही मणिपूरक चक्र स्थित है। योग का यह बहुत महत्वपूर्ण केंद्र है। इसके नीचे के दो चक्र मूलाधार और स्वाधिष्ठान सदैव क्रियाशील रहते हैं। उनका सम्बन्ध जागृत और सुषुप्ति अवस्थाओं से है। जब तक हम जागते रहते हैं, तब तक मूलाधार चक्र सक्रिय रहता है.
_इसी प्रकार हमारी सुषुप्ति अवस्था में स्वाधिष्ठान सक्रिय रहता है। तीसरा चक्र मणिपूरक चक्र है। विशेष ज्ञान-तंतुओं का समूह है इस चक्र में। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीर के सभी अंगों से यह अंग अति महत्वपूर्ण है। इसे ‘उपांग’ कहते हैं। इसलिए कि अन्य सभी अंगों की श्रेणी में इसकी गणना नहीं होती है।_
सबसे बड़ी बात तो यह है कि नाभि- केंद्र में मन का स्थान है। स्वप्न का सम्बन्ध मन से है। जागृत और सुषुप्ति के बीच स्वप्नावस्था है। उस अवस्था में मणिपूरक चक्र सक्रिय होता है। इस चक्र का सम्बन्ध तीनों कालों से है। इसीलिए स्वप्नावस्था में हमें किसी न किसी रूप में भविष्य की झांकी मिल जाती है तो कभी अतीत की भी।
वास्तव में स्वप्न अवस्था अन्य दोनों अवस्थाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसलिए कि यह यथार्थ के ज्यादा निकट है। इसीलिए जागृत से स्वप्न का मूल्य अधिक है।
_मानसिक व्यापार अधिकांश मस्तिष्क में होते हैं। इसलिए मन का स्थान तो मस्तिष्क ही होना चाहिए किन्तु शरीर के आतंरिक मुख्य अंगों का नियामक और संचालक नाभि स्थित मन ही है।_
मस्तिष्क जिस प्रकार श्वेत और भूरे रंग के पदार्थ से बना है, उसी प्रकार इस मणिपूरक चक्र में भी वही द्रव्य विद्यमान है। एक बात यह भी कि जीवन-तत्व का संचय इसी केंद्र में होता है। मन और जीवन-तत्व का केंद्र मणिपूरक चक्र के होने के कारण योगिगण इसी चक्र पर अपना ध्यान लगाते हैं और सहज ही उन्हें ध्यान में सफलता भी मिल जाती है. तीनों कालों की झलक मिलने की क्षमता भी आ जाती है।
*जीवन की गुप्त और रहस्यमयी किरणें :*
मानव शरीर के महत्व और उसकी गरिमा के विषय में अब तक हमने जाना जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव शरीर का सार्वभौमिक मूल्य क्या है ? अब हम शरीर के आन्तरिक स्वरुप पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करेंगे।
_शरीर में अपने ढंग के परमाणु परिवर्तक (एटॉमिक रिएक्टर) भी संख्यातीत होते हैं। मानव शरीर में असंख्य नन्हें-नन्हें बिजली-घर हैं और हैं–नन्हें एटॉमिक रिएक्टर जो आपस में मिल-जुल कर किस प्रकार जीवन की प्रक्रिया को चलाते हैं–जिसको समझना साधारण बात नहीं है।_
उनकी प्रक्रियाओं द्वारा जीवन, उसके स्पंदनों तथा शैशव, किशोरावस्था, युवास्था और वृद्धावस्था का आरोपण और नियंत्रण भी विचित्र ढंग से होता है।
*शारीरिक विद्युत :*
शरीर में विद्युत् होती है–हम सब जानते हैं। इसका अध्ययन विज्ञान के क्षेत्र में कई सीढियां चढ़ चूका है। परन्तु शरीर से किरणें भी निकलती हैं। उस विकरण द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंग में, उसकी यात्रा-लीलाओं में तथा उसकी तरुणाई के आकर्षण और रूप-निर्धारण में बड़ी आश्चर्यजनक बातें होती हैं।
इन सब बातों का अध्ययन अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है। फिर भी वैज्ञानिक बड़े मनोयोग से कौतूहलपूर्वक जीवन की परिभाषा, प्रक्रिया और यौवन के रहस्य तथा उनसे सम्बद्ध विकिरणों को समझने और उद्घाटित करने में लगे हुए हैं।
*दैहिक रस्मियों की विस्मयकारी लीला :*
जीवन और यौवन का रहस्य नए बनने वाले कोशिका-यूथों, मज्जा, मस्तिष्क, मांस-तन्तु और स्नायु-तन्तुओं में विशेष निहित रहता है। इन सभी कोशिकाओं और समस्त सजीव प्रोटीनों में लौह- चुम्बकत्व गुण धर्मवती धातुओं की विशेषतायें होती हैं। परुन्तु इन सभी सजीव प्रोटीनों में उक्त विशेषतायें तभी तक वर्तमान रहती हैं, जब तक वे न्यूक्लिक एसिड युक्त रहती हैं।
_इनमें विद्युत संचालकता और चुम्बकीय ध्रुवीय भवन का गुण होता है। इन सभी प्रकार के कोशिका- यूथों की विविधि कार्यशीलता और क्षमता में शरीर में, जीवन की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाली आतंरिक पराकासनी किरणों का सबसे बड़ा हाथ होता है। वे किरणें कोशिकाओं के विभाजन या विखंडन को उत्तेजित एवं संदीप्त करती हैं।_
रक्त के ऐंजाइम्स तथा सीरम इन पराकासनी किरणों के सबसे बड़े उद्गम-स्रोत होते हैं। जैसे-जैसे मनुष्य की अवस्था बढ़ती जाती है, वैसे-ही-वैसे रक्त के सीरम के प्रकाशात्मक (ऑप्टिकल) गुणधर्म शिथिल होते जाते हैं। रक्त सीरम के प्रकाशात्मक गुणधर्म का घटते जाना ही वृद्धावस्था का अग्रदूत होता है। योगिगण उक्त गुणधर्म को घटने नहीं देते।
अपनी प्राणशक्ति से उसे रोक देते हैं और इसीलिए वे दीर्घकाल तक यौवन संपन्न बने रहते हैं।
_योग की जिस क्रिया से यह कार्य सिद्ध होता है, उसे ‘प्राण-संकोचिनी क्रिया’ कहते हैं। वह क्रिया कैसे की जाती है ?_
यह हमें एक योगी ने बतलाया था और हमने यह क्रिया स्वयं की भी थी जिसके फलस्वरूप उसका प्रभाव शरीर के आतंरिक और बाह्य अंगों पर पूरे तीस वर्षों तक रहा। फिर दुबारा हमनें नहीं की वह क्रिया किसी कारणवश।
*मानव शरीर : एक अभिनव दृष्टि :*
एक साधारण मनुष्यात्मा अध्यात्मिक मार्ग पर धीरे-धीरे चलती हुई उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचती है. परिणामस्वरूप उसे परम~ शिखर परमात्मा की उपलब्ध होती है.
_विशुद्ध दिव्य अवस्था। योग की दृष्टि से यह परम सौभाग्य है और ऐसा सौभाग्य विरले ही किसी मनुष्यात्मा को प्राप्त होता है। इस परम आध्यात्मिक प्राप्ति के मूल में है–ज्ञान और कर्म। यह प्राप्ति संभव है मानव शरीर में।_
मानव योनि को छोड़कर सभी योनियाँ यहां तक कि देवयोनि भी भोगयोनियां हैं। लेकिन एकमात्र मानव योनि ही एक ऐसी योनि है जो भोगयोनि के साथ-साथ कर्मयोनि भी है। मनुष्य ज्ञान भी प्राप्त करता है और कर्म भी करता है।
_लेकिन उपलब्ध ज्ञान के अनुसार कर्म नहीं करता। ज्ञान कुछ और है और कर्म कुछ और। यही आध्यात्मिक मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान के अनुसार कर्म और आचरण करने वाला सच्चा मनुष्य है।_
इसके मूल में ‘प्रज्ञा’ है क्योंकि प्रज्ञा का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। आत्मा ज्ञान-विज्ञान का भण्डार है। प्रज्ञा द्वारा ही वह बाहर निकलता है। कहा जाता है–“प्रज्ञावान लभते ज्ञानम्।” प्रज्ञावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है।
प्रज्ञा ही ज्ञान को कर्म में और कर्म को ज्ञान में नियोजित करती है। यह कार्य अति कठिन है–एक घाट पर बाघ और बकरी को एक साथ पानी पिलाने के समान है।
_हमें अपनी प्रज्ञा के बारे में कुछ पता नहीं है। उसका बोध हमें तभी हो सकता है जब हम अपने आपको, अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को चारों ओर से समेंट कर अपने आप से पूछें कि ‘हम कौन हैं’ ? यह प्रश्न यदि हम बार-बार दोहराते रहें तो एक-न-एक दिन हमारे भीतर प्रज्ञा का बोध जागृत हो जायेगा और इसके जागृत होते ही ज्ञान और कर्म के परस्पर नियोजित होने की कला भी उपलब्ध हो जायेगी।_
प्रज्ञा मनुष्य के आलावा और किसी प्राणी के पास नहीं है। इस कारण मनुष्य शरीर अति मूल्यवान है। जरा सोचिये–परब्रह्म परमात्मा भी मनुष्य शरीर प्राप्त करने के लिए अवसर की प्रतीक्षा करता है।
_आश्चर्य की बात है कि इतना मूल्यवान, इतना दुर्लभ होते हुए भी मानव शरीर को समझने में मानवता ने बराबर भूल की है।_
केवल शरीर ही ऐसी चीज़ है जो मनुष्य के अत्यंत समीप है और सबसे प्रमाणिक मित्र भी। उससे मनुष्य शत्रुता क्यों रखता है?
भारतीय भाषाओँ में शरीर के लिए जो भी शब्द हैं, वे सब उसकी क्षुद्रता और नश्वरता के प्रतीक हैं।
*1-शरीर :*
-शरीर का अर्थ है जो निरन्तर क्षीण हो रहा है (शीर्यते इति शरीरः)।
*2-देह :*
देह का अर्थ है जिसका दहन किया जाता है।
*3-तनु (तन):*
जो आकार में छोटी हो।
*4. काया :*
काया वह है जिसे काल दबोच लेता है।
*5-घट (घड़ा) :*
घड़ा तो फूटने के लिए ही बना है।
_समस्त आध्यात्मिक ग्रन्थ और महात्मा बार-बार मनुष्य को सतर्क करते रहे हैं कि देह मिट्टी की बनी है और एक दिन मिटटी में ही मिल जायेगी, उस पर ध्यान मत देना।_
हमारा तो कहना है कि मिट्टी में जब मिलेगी तब मिलेगी, लेकिन जब तक उसमें जी रहे हैं तब तक क्या उसकी उपेक्षा करें ?
इस प्राणवान अद्भुत यंत्र की महिमा का वर्णन करने वाला कोई शास्त्र इस संसार में नहीं है–एक ‘तंत्र’ को छोड़ कर। क्या इसका कारण यह हो सकता है कि जिस समय ये शास्त्र निर्मित हुए, उस समय मनुष्य अपने शरीर के प्रति अत्यंत आसक्त रहा हो।
_उसका जीवन शरीर-ही-शरीर रहा हो। भोग में लिप्त मनुष्य की ऑंखें इन्द्रियों के ऊपर उठती ही न हों और उसे सावधान करने के लिए ज्ञानियों ने शरीर की निन्दा की हो। फिर ईसाईयत का विस्तार हुआ और नैतिकता की ऐसी पकड़ हुई मानव के सभी अंगों को उसने ग्रसित कर लिया।_
नैतिकता नैसर्गिक वस्तु नहीं है।(नैतिकता की नकाब के पीछे घोर अनैतिकता मौजूद है। अनैतिकता को ढकने के लिए ही नैतकता का चोंगा पहना गया है।) नैसर्गिक के बिलकुल विरुद्ध है यह।
शरीर ही सबसे नैसर्गिक चीज़ है जो मनुष्य के अत्यन्त निकट है इसीलिए उसी का दमन सबसे अधिक हुआ है।
शरीर को मानने वाला एक वर्ग अवश्य है जो गलत कारणों से शरीर को देता है महत्व। एक सूत्र भारत में बहुत प्रचलित है–“शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनम्।” धर्म को साधने का सबसे पहला साधन शरीर है।
_लेकिन इसके मर्म को बिना समझे उन लोगों ने इसे अपना लिया जो केवल शरीर को ही महत्व देते हैं। जो शरीर को व्यायाम के द्वारा केवल बलिष्ठ बनाने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं। ध्यान और योग के प्रचलित रूप भी इसके पीछे पड़े रहते हैं।_
प्रचलित प्राणायाम भी शरीर की केवल बलिष्ठता की ओर ही ले जाते हैं, देह के रहस्य जानने के लिए नहीं, इसमें निहित असीम ऊर्जा के रहस्य को जानने के लिए नहीं। वे शरीर को मन का गुलाम बना कर अति प्रसन्न होते हैं। उनके लिए योग का अर्थ है–इन्द्रियों का दमन कर शरीर को अपने वश में करना।
एकमात्र तंत्र ही ऐसा शास्त्र है जो शरीर को अन्तर्विज्ञान की दृष्टि से देखता है। उसने शरीर को बहुत सम्मान दिया है।
शरीर की निसर्गदत्त प्रज्ञा, अद्भुत कार्य-प्रणाली,उसकेे भीतर के रहस्यों की पर्त–इन सबकी ओर तंत्रशास्त्र ने बार-बार हमारा ध्यान आकृष्ट किया है।
*स-शरीर पारलौकिक जगत में प्रवेश का प्रश्न :*
आज का युग विज्ञान का युग है, कम्प्यूटर का युग है। जीवन में आज भौतिकवाद उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। ज्यों-ज्यों यह जीवन, यह जगत भौतिकवाद की जकड में फंसता जा रहा है, त्यों-त्यों मनुष्य अपने अस्तित्व से दूर होता जा रहा है। वह अपने अस्तित्व की अकाट्य वास्तविकता को भूलता जा रहा है।
_यह जानकर के भी कि मानव-शरीर व मानव- जीवन परब्रह्म परमात्मा की अनुपम देन है, उसकी अनुकम्पा है, मनुष्य जानबूझ कर अनजान बनता जा रहा है। सब कुछ देखते-सुनते हुए भी वह अँधा-बहरा बना हुआ है और इस मायाजाल में फंसा हुआ है।_
मायाजाल में फंसा हुआ वह यह भी भूल गया कि ‘वह कौन है और इस संसार में आखिर उसने क्यों जन्म लिया है ?’
इस संसार में जन्म लेना, शादी-विवाह रचाना, घर-गृहस्थी बसाना, बच्चे पैदा करना, नौकरी-धन्धा करना, मकान आदि बनाना और अन्त में हाय-हाय करते हुए मर जाना कोई जीवन नहीं है। ये कार्य तो हज़ारों-लाखों बार, हर जन्म में वह करता आया है।
_इसमें नया क्या है ? यदि कुछ नया है या होगा तो वह इस गोरख धंधे से बाहर निकलना, कोई नया आयाम तलाशना, इस दिशा में और आगे बढ़ना, प्रकृति और इस जीवन-जगत के नित नए रहस्यों को उद्घाटित करना, अपने अस्तित्व की वास्तविकता को जानना और लोक-परलोक, ब्रह्म-जीव, ब्रह्म-माया से जुड़े रहस्यों की पर्तो को खोलना–यही मानव जीवन का लक्ष्य है. यही मानव जीवन का पुरुषार्थ होना चाहिए._
क्या भौतिक (स्थूल) शरीर रहते, जीते-जी अदृश्य सीमारेखा पार कर, पारलौकिक जगत में प्रवेश किया जा सकता है ? वहां का अनुभव प्राप्त किया जा सकता है और वहां के निवासियों से संपर्क किया जा सकता है ?
_जहाँ तक अदृश्य सीमारेखा पार कर पारलोकिक जगत में प्रवेश करने का सवाल है, वह समाधि द्वारा संभव है। योग की उच्चतम अवस्था है–समाधि। समाधि में प्रवेश करने के लिए ध्यान में प्रवेश करना होगा।_
मरने के बाद प्राणी उस अदृश्य सीमारेखा को पार् कर पारलौकिक जगत में प्रवेश करता है। पर जीते-जी वह केवल समाधि के द्वारा ही उसमें प्रवेश कर सकता है।
_वहां का अनुभव प्राप्त कर सकता है और वहां के निवासियों से भी संपर्क कर सकता है। दोनों में अंतर यह है कि मृत व्यक्ति वहां बेहोशी की अवस्था में पहुँचता है जबकि ध्यान की उच्चतम स्थिति समाधि में वह वहां जागृत और चैतन्य अवस्था में पहुँचता है।_
समाधि की अवस्था में मनुष्य की ‘व्यष्टि चेतना’ का विस्तार होकर ‘समष्टि चेतना’ में लय हो जाता है। उसका ‘तीसरा नेत्र’ खुल जाता है तथा उसे ‘अतीन्द्रिय दर्शन’ होना शुरू हो जाता है। आत्मा-परमात्मा के एकत्व की स्थित पैदा हो जाती है।”
_15 वर्ष पूर्व, 12वीं में अध्ययन के दौरान स्व- साधना के काल में धीरे-धीरे मेरा पूरे चार महीनों का समय बीत गया। अब मेरा ध्यान सहज भाव से अपने- आप बिना किसी प्रयास के निर्विघ्न लगने लगा था और उस अवस्था में मैं अपने शरीर से अलग होने का अनुभव करता था।_
अपने शरीर को अपने से अलग देखता था। उन दोनों स्थितियों में अपने आप में एक विचित्र सी भारहीनता का बोध करता था और अनुभव करता था कि मैं अपने अस्तित्व और अपनी आतंरिक अवस्था में, शरीर के अभाव में भी किसी भी प्रकार के परिवर्तन का अनुभव नहीं करता था।
पहली बार मैंने यह जाना कि स्थूल शरीर से जीवन का कोई-रिश्ता-नाता नहीं। उसके बिना भी जीवन का अस्तित्व है। कमरे में बंद और पद्मासन की मुद्रा में बैठे अपने पार्थिव शरीर से कभी-कभी बहुत दूर निकल जाया करता था और बहुत देर तक स्वच्छंद और निर्विघ्न विचरण करता रहता था।
देहहीन होने के कारण लोग मुझे तो नहीं देख पाते थे पर मैं सभी को देख सकने में समर्थ था। इतना ही नहीं, लोगों के भावों, विचारों और वृत्तियों से भी तत्काल परिचित हो जाता था।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह थी कि अशरीरी प्राणियों को भी देख लेती थी मेरी दृष्टि। गंगातट पर स्नान करते हुए शरीरधारियों से कहीं अधिक अशरीरी लोगों की भीड़ देखी मैंने। इसी प्रकार निम्न कोटि की निकृष्ट आत्माओं को भी देखा करता था। झुण्ड के रूप में वे विशेष कर श्मशान में, मदिरालय में, मांस की दुकानों के आलावा वहां दिखाई देती थी जहाँ मार-पीट, झगड़ा-लड़ाई और असामाजिक कार्य होते थे।
_यह देख कर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि ऐसी अशरीरी आत्माएं लोगों के मस्तिष्क पर अपना प्रभाव डालकर वासना की तृप्ति के लिए लोगों को प्रेरित किया करती थीं। मनुष्य कितना असहाय प्राणी है और है कितना विवश। उसका न अपने पर अधिकार है और न तो अधिकार है अपने कर्मों पर ही। अच्छे संस्कार और चरित्र की विदेही आत्माओं की संख्या नगण्य मिली मुझे। संस्कारहीन, निकृष्ट विदेही आत्माओं का बाहुल्य देखा मैंने और देखा 75% लोगों की मानसिकता को उनसे प्रभावित।_
और फिर एक दिन न जाने कैसे अचानक उस परम अवस्था में भौतिक वातावरण की अदृश्य सीमारेखा पार कर अदृश्य अभौतिक वातावरण में प्रवेश कर गया मैं और एक अभूतपूर्व अनिर्वचनीय दृश्य देखा मैंने।
_हे भगवान् ! कितना मोहक और अविश्वसनीय दृश्य था वह ! उस समय मैं अपने अस्तित्व का बोध अंतरिक्ष के ऐसे वातावरण में कर रहा था–जहाँ गहन शून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। मेरे चारों ओर स्वच्छ, निर्मल आकाश का नीला विस्तार था और उस नीले विस्तार में एक-दूसरे से काफी दूर अगणित ग्रह-नक्षत्र और तारे झिलमिला रहे थे।_
उनके आकार-प्रकार काफी बड़े थे और उनमें से निकलने वाले प्रकाश भी भिन्न-भिन्न वर्णों के थे। उन्हीं ग्रह-नक्षत्र तारा- मंडलों के बीच गोलाकार पृथ्वी को भी देखा अपने स्थान पर तीव्र गति से घूमते हुए। उसके जल का भाग नीला और धरती का भाग नारंगी रंग का था। उसके चारों ओर शुभ्र् वर्ण का वलय था। बड़ी ही मोहक और आकर्षक लगी पृथ्वी मुझे।
_इस स्तर के सत्यदर्शन और सत्यानुभूति के लिए अभीप्सु को सिर्फ़ 15 दिन के लिए मेरे प्रशिक्षण-सत्र में शामिल होना होगा. व्हाट्सप्प +919997741245 पर विमर्श करके मेरे साथ ‘स्व-संगम’ किया जा सकता है. हमारी सारी सेवाएं सर्वथा निशुल्क सुलभ हैं._
(चेतना विकास मिशन)