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सम्मोहन का विज्ञान : आत्म-सम्मोहन, ध्यान और तंत्र

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 डॉ. विकास मानव

_आत्म-सम्मोहन से साक्षीत्व में प्रवेश की संकल्प साधना :_

        ध्यान-साधना में हमेशा से ही सम्मोहन का प्रयोग होता आया है। लेकिन ध्यान-साधना में सम्मोहन का प्रयोग सिर्फ इतना ही है, जैसे कि हम मोटर साइकिल को सेल्फ बटन से स्टार्ट करते हैं। मोटर साइकिल स्टार्ट होने के बाद सेल्फ बटन की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है, अब सेल्फ स्टार्ट का बटन दबाना बाधा देगा।

      _ठीक इसी भांति ध्यान में भी शुरूआती चरण में ही साक्षी को जगाने के लिए सम्मोहन की जरूरत होती है, उसके बाद सम्मोहन निष्क्रिय हो जाता है। क्योंकि साक्षी जाग जाता है। हम सम्मोहन शब्द को साक्षी शब्द के विलोमअर्थी शब्द में भी प्रयोग कर सकते हैं। क्योंकि सम्मोहन है सोना और साक्षी है जागना।_

      आत्म-सम्मोहन स्वयं को सम्मोहित करने और स्वयं को सारे सम्मोहनों से मुक्त करने का एक वैज्ञानिक उपाय है।

 एक ऐसा कांटा जो दूसरे कांटे को निकालता है लेकिन है तो स्वयं भी एक कांटा ही! उपयोग के बाद इसे भी फेंक देना होता है। हमारी साक्षी चेतना मन से पूरी तरह से सम्मोहित होती है। साक्षी चेतना अपने मन से इस पूरी संलग्नता से सम्मोहित होती है कि स्वयं को मन ही समझने लगती है। विचार, जो कि बाहर से आया है, वह ठीक है या कि गलत है इसकी परिणति में जाए बिना ही हमारी साक्षी चेतना उस विचार से सम्मोहित हो जाती है, उससे एक हो जाती है और उसके लिए क्रोध और ईर्ष्या जैसे मनोविकारों में उलझ कर रह जाती है।

      _मोह सम्मोहन का अपभ्रंश है। मोह सम्मोहन का ही दूसरा पहलू है या कि दूसरा नाम है। अपनों के प्रति हमारा मोह हो जाता है। बच्चों को जन्म से लेकर बड़ा होने तक हम उनकी परवरिश करते हैं और उनसे हमारा मोह हो जाता है, उनसे हम मोहित हो जाते हैं, सम्मोहित हो जाते हैं। और जब चिजें हमारे अनूकुल नहीं होतीं हैं तो हमारा मोह टूट जाता है लेकिन बात अब भी वही रहती है, मोह टूट जाता है और घृणा आ जाती है। सिर्फ सम्मोहन का नाम बदलता है, सम्मोहन जारी रहता है।_

         पहले हम मोह रूपी सम्मोहन में उलझे हुए थे और अब घृणा रूपी सम्मोहन में उलझ जाते हैं। सम्मोहन का स्वरूप बदलता है लेकिन सम्मोहन जारी रहता है। यानी हम अपने मन के सम्मोहन में उलझे हुए ही रहते हैं। इसी सम्मोहन को तोड़ने के लिए, साक्षी चेतना को मन के इसी सम्मोहन से अलग करने के लिए आत्म-सम्मोहन का प्रयोग किया जाता है। जो कि ध्यान का आरंभिक चरण है। और यह है सम्मोहन से सम्मोहन को तोड़ना। यानी कांटे से कांटा निकालना। 

आत्म-सम्मोहन प्राथमिक है। पहले चरण में ही इसका उपयोग है, साक्षी के जगने तक ही इसका उपयोग है। साक्षी के बाद इसका कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि सम्मोहन नींद है और साक्षी जागरण है।

     _साक्षी को जगाने के लिए ही सम्मोहन का प्रयोग करना है। यानी नींद से जागरण में जाने के लिए इस सम्मोहन रूपी नींद का उपयोग करना है।_

       सम्मोहन में दूसरा व्यक्ति हमें सम्मोहित करते हुए नींद में ले जाकर हमारे अचेतन को सुझाव देता है। और आत्म-सम्मोहन में हम स्वयं के शरीर को नींद में ले जाते हुए, अपने साक्षी को जगाते हुए अपने अचेतन को स्वयं सुझाव देते हैं कि “मैं संकल्प लेता हूं कि मैं ध्यान में प्रवेश करके रहूंगा। ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा, अपने को जरा भी बचाकर नहीं रखूंगा।” 

हमारा संकल्प गहरा कैसे हो इसके लिए योग में आत्म-सम्मोहन की व्यवस्था दी गई है। जिसे हम आत्म-सम्मोहन न कहकर योग-तंद्रा या योग-निद्रा इत्यादि नामों से भी जानते हैं। जिनके तरीके अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन हैं सब सम्मोहन के ही अलग-अलग रूप। 

     _हम रोजाना संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठकर टहलने जाना है या कि अब धुम्रपान नहीं करना है लेकिन हमारे संकल्प कभी पूरे नहीं होते हैं। क्योंकि संकल्प हमारे मन की उपरी परत ही लेती है, भीतरी गहरा हिस्सा इससे अछूता ही रहता है।_

     तो कैसे मन के भीतरी हिस्से तक हमारे संकल्प प्रवेश करें ? इसलिए हम अपने लिए आत्म-सम्मोहन का प्रयोग करते हैं। 

दिन में जब हम संकल्प लेते हैं तो हमारे मन का भीतरी हिस्सा अचेतन सोया हुआ होता है और उपरी हिस्सा चेतन जागा हुआ होता है। तो संकल्प अचेतन तक कैसे जाए, क्योंकि संकल्प अचेतन से ही लिया जाता है। इसके लिए शरीर को सुलाना है और स्वयं को जागना है, साक्षी होना है। 

      _आत्म-सम्मोहन का यह प्रयोग हम सिर्फ शरीर को नींद में ले जाने के लिए कर रहे हैं। शरीर जब नींद में जाए और अचेतन जाग जाए तब संकल्प लेना है, ताकि अचेतन को संकल्प बता सकें कि “मुझे ध्यान में प्रवेश करना है, या कि मुझे व्यसन त्यागना है, मुझे बुरी आदतें छोड़नी है या मुझे विचारों से मुक्त हो निर्विचार में जाना है…।”_

       जो भी हमारा संकल्प हो वह हम अचेतन को बता सकें और हमारा आज्ञाकारी अचेतन उस पर काम करना शुरू कर सके। 

सम्मोहन में सम्मोहनविद हमारे मन की विचार वाली पर्त चेतन मन को सुलाकर “देखने” वाले यानी साक्षी को अर्थात हमें भी सुला देते हैं। लेकिन यहां आत्म-सम्मोहन में हमारे शरीर के साथ ही विचारों वाली पर्त यानी चेतन मन के सोने पर “देखने” वाला साक्षी पूरी तरह से जागा हुआ होता है क्योंकि यह साक्षी ही है जो संकल्प दोहरा रहा है कि “मुझे ध्यान में जाना है। मुझे ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगानी है…।”

     _साक्षी जब संकल्प कर रहा होता है तब।हमारे मन में कोई भी विचार नहीं होते हैं क्योंकि यदि विचार होंगे तो साक्षी संकल्प नहीं ले पाएगा और विचारों में ही उलझा रहेगा। और शरीर के नींद में जाते ही चेतन मन भी नींद में चला जाता है। अतः साक्षी विचारों से पूरी तरह मुक्त हो अपने आप में लौटा हुआ होता है, जागा हुआ होता है और हम आत्म-सम्मोहन में प्रवेश करने लगते हैं।_

       सम्मोहन में शरीर के साथ ही चेतन मन के सोने पर साक्षी भी सो जाता है और अचेतन सम्मोहनविद के संपर्क में आ जाता है और वह उसे सुझाव देने लगता है।

जबकि आत्म-सम्मोहन में शरीर के नींद में चले जाने और अचेतन के जागने का हमें पता होता है क्योंकि हमारा साक्षी जागा हुआ होता है। और अचेतन से उसका पूरा सामना होता है और वह स्वयं अचेतन को सुझाव देता है कि मुझे ध्यान में जाना है।

 यानी सम्मोहन में दूसरा हमें सुलाकर हमारे अचेतन को सुझाव देता है और आत्म-सम्मोहन में हम शरीर को सुलाकर जागते हुए, साक्षी होकर स्वयं को सुझाव देते हैं। अर्थात सम्मोहनविद हमारे बीच से हट जाता है। 

     _सम्मोहन में सम्मोहनविद ने हमारे अचेतन को क्या कहा है, यह हमें ज्ञात नहीं होता है। जबकि आत्म-सम्मोहन में हमें ज्ञात होता है कि हमने अपने अचेतन से क्या कहा है!_

         आत्म-सम्मोहन में हम अपने शरीर को नींद में ले जा रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे सम्मोहनविद सम्मोहन में हमारे शरीर को नींद में ले जाता है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि यहां हमारी साक्षी चेतना जागी हुई होती है और अचेतन को स्वयं अपना संकल्प बता देती है।

     जबकि सम्मोहन में शरीर के साथ ही हमारी साक्षी चेतना भी सो जाती है और सम्मोहनविद हमरे अचेतन को हमारा संकल्प या अपनी बात बताता है। 

दूसरी बात यहां पर यह घटती है कि सम्मोहन में हमारा सम्मोहन से बाहर आना सम्मोहनविद के हाथ में होता है क्योंकि वह हमारी दोनों आंखों को एक बिंदु द्वारा तीसरी आंख से सम्मोहित कर देता है। जबकि आत्म-सम्मोहन में हम तीसरी आंख से कोई छेड़छाड़ नहीं करते हैं। हम अपने शरीर को नींद में ले जाते हैं जिससे हमारे विचार  भी सोने लगते हैं और विचारों के सोते ही हमारी दोनों आंखें ठहर जाती है और ज्यों ही दोनों आंखें ठहरती है स्वतः ही दोनों आंखों की ऊर्जा हमारे साक्षी की ओर बहने लगती है क्योंकि साक्षी जागा हुआ होता है।

      _जबकि सम्मोहन में साक्षी सोया हुआ होता है अतः हमरी दोनों आंखों की उर्जा तीसरी आंख में प्रवेश कर जाती है और दोनों आंखें तीसरी आंख से सम्मोहित हो जाती है, तीसरी आंख में थींर हो जाती है।_ 

        तीसरी और महत्वपूर्ण घटना यहां पर यह भी घटती है कि अब हम अचानक तीसरी आंख के भी साक्षी हो जाते हैं। अब तीसरी आंख को हमारे साक्षी से ऊर्जा मिलने लगती है। यानी अब तीसरी आंख हमारे साक्षी से सम्मोहित हो जाती है लेकिन हमारी दोनों आंखें भी तीसरी आंख के प्रभाव क्षेत्र में ही होती है अतः हम तंद्रा में ही होते हैं लेकिन जागे हुए होते हैं और अपनी मर्जी से ही आत्म-सम्मोहन से बाहर आते हैं। 

यहां पर साक्षी के जगने के कारण हम निर्विचार हो अचेतन की ओर सरकने लगते हैं। 

     _सम्मोहन में सम्मोहनविद हमें नींद से बाहर आने का सुझाव देते हैं और आत्म-सम्मोहन में एक गहन विश्राम के बाद हम स्वतः ही नींद से बाहर आ जाते हैं। लेकिन हां, यह गहन विश्राम भी एक तंद्रा ही है, लाई हुई नींद है, स्वाभाविक नींद नहीं है। इसलिए इसके भी आदि होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन यहां अति-महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें अपनी साक्षी चेतना की अनुभूति होने लगती है।_

        धीरे धीरे हमारा साक्षी जागने लगता है, हमारा संकल्प भी प्रगाढ़ होने लगता है और आत्म-सम्मोहन का काम यहां पूरा हो जाता है क्योंकि साक्षी जाग जाता है। साक्षी है जागना और सम्मोहन है सोना। अब हम जाग गए, हमने नींद का उपयोग नींद से जागने के लिए कर लिया है। हमने कांटे से कांटा निकाल लिया है। हमने इस आत्म-सम्मोहन वाले कांटे से अपने साक्षी का मन के प्रति सम्मोहन का कांटा निकाल दिया है। अतः अब दोनों कांटों को फेंक देना है। 

      _आत्म-सम्मोहन में खतरे भी हैं, इसलिए इसको ज्यादा बताया नहीं गया है।_

       इस विज्ञान में सोच समझ कर ही प्रवेश करना होगा। इसमें खतरा यह है कि अक्सर हम साक्षी को खोकर नींद में चले जाते हैं और यह हमारी स्वाभाविक नींद नहीं है, लाई हुई नींद है जो शरीर को गहरे विश्राम में ले जाती है, जिसे योग-तंद्रा कहते हैं, जो ध्यान का धोखा देती है, साधक इस नींद का आदी हो जाता है और इसी में उलझकर रह जाता है। 

आत्म-सम्मोहन में जब हम उतरते हैं तो पहले तो हमारे शरीर का आक्सीजन-जनित होना जरूरी है… इसके लिए प्राणायम सहयोगी होगा क्योंकि जब हमारा शरीर नींद में जा रहा होगा तब आक्सीजन हमारी साक्षी चेतना को संकल्प के लिए जगाए रखेगी क्योंकि आक्सीजन में छुपे प्राण तत्व हमारी साक्षी चेतना का भोजन है। 

      _प्राणायाम में कम या ज्यादा आक्सीजन हमारे भीतर प्रवेश करती है इसलिए व्यायाम या सुबह सूर्योदय से पहले दौड़ना लाभकारी होगा क्योंकि शरीर को जितनी आक्सीजन चाहिए उतनी यह स्वयं ले लेगा। सिर्फ खूब पसीना निकलने तक दौड़ना है। जितना पसीना शरीर के बाहर जाएगा उतनी ही आक्सीजन हमारे भीतर आएगी तो साक्षी को जगाने में आसानी होगी और पसीने के साथ ही ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले तत्व भी शरीर से बाहर चलें जाएंगे।_

       यहां व्यायाम का मतलब कसरत या जिम जाने से कदापि नहीं है। 

        आत्म-सम्मोहन में हमारा शरीर विश्राम में होना आवश्यक है। हमारा शरीर विश्राम में होगा तो श्वास गहरी होगी, नाभि तक जाएगी जो शरीर को नींद में ले जाने में सहयोगी होगी। आराम-कुर्सी या डेंटिस्ट के यहां जो कुर्सी होती है उस तरह की कुर्सी सहयोगी होगी या दीवार के सहारे तकिया लगाकर भी कर सकते हैं।

          जमीन पर लेटकर प्रयोग करने में साक्षी के नींद में चले जाने का खतरा बना रहेगा। लेकिन यदि शरीर हल्का हो तो लेटकर भी प्रयोग किया जा सकता है। 

श्वास के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करनी है क्योंकि यह श्वास वाली विधि नहीं है। श्वास को अपने स्वभाव से ही चलने देना है, न घटाना और न ही बढ़ाना है। सम्मोहनविद हमें सम्मोहित करता है तो हमें कहता है कि “तुम्हें नींद आ रही है और तुम नींद में प्रवेश कर रहे हो” अतः हमें भी अपने शरीर से यही कहना है कि “तुम्हें नींद आ रही है और तुम नींद में प्रवेश कर रहे हो।” 

      _मैं, मेरा और मुझे शब्द से हमारा साक्षी पहले से ही सम्मोहित है अतः भूलकर भी यह नहीं कहना है कि “मुझे नींद आ रही है और मैं नींद में प्रवेश कर रहा हूँ।” नहीं तो शरीर और चेतन मन के साथ ही हमारा साक्षी भी नींद में चला जाएगा। हमने अपने शरीर को कभी तू या तुम्हें कहकर नहीं पुकारा है। कई संत स्वयं को अपना नाम लेकर पुकारते थे। स्वामी रामतीर्थ और झेन संत बोकोजु खुद को अपना नाम लेकर संबंधित करते थे, ताकि शरीर से दूरी बन सके और साक्षी को अनुभव किया जा सके।_

         यदि हम अपने शरीर को तुम कहकर पुकारते हैं तो शरीर से दूरी निर्मित होने लगेगी, शरीर हमें अलग दिखाई पड़ेगा और हम शरीर के साक्षी होंगे। तुम शब्द ही शरीर से हमें दूर कर देगा क्योंकि तुम शब्द हम दूसरों के लिए प्रयुक्त करते हैं इसलिए तुम कहते ही साक्षी के लिए शरीर दूसरा हो गया। यानी साक्षी का शरीर से तादात्म्य टूटेगा। 

“… तुम्हें नींद आ रही है और तुम नींद में प्रवेश कर रहे हो। “

इस बात को ज्यादा समय तक नहीं कहना है नहीं तो साक्षी खो सकता है, और पता ही नहीं चलेगा कि कब हम नींद में चले गए हैं? यह पहला और महत्वपूर्ण खतरा है। और भोजन के तुरंत बाद भी यह प्रयोग नहीं करना है, नहीं तो प्रयोग वाली नींद में नहीं, वास्तविक नींद में चले जाएंगे और हम फिर एक अवसर गंवा देंगे।

      _शरीर पूरी तरह से विश्राम में होगा, आंखें बंद होंगी और श्वास गहरी हो नाभि तक चलेगी, जैसी शरीर के नींद में चले जाने पर चलती है। अब शरीर को संबोधित करते हुए कहना है कि “तुम्हें नींद आ रही है और तुम नींद में प्रवेश कर रहे हो… तुम्हें नींद आ रही है और तुम नींद में प्रवेश कर रहे हो।” यह शुरूआती सुझाव थोड़ी देर, दो से तीन मिनट हम अपने शरीर को देंगे। यदि एक मिनट में ही शरीर नींद में प्रवेश करने वाली स्थिति में आने लगे तो फिर एक मिनट ही सुझाव देंगे और यदि तीन से पांच मिनट शरीर को शिथिल होने में लगते हैं तो पांच मिनट तक यह नींद में चले जाने वाला सुझाव देना है।_

       सबको बराबर समय नहीं लगता है अतः अपने शरीर को नींद के तल पर जाने में जितना समय लगे, उतने समय तक सुझाव देना है। 

       जब हमारा शरीर शिथिल होने लगे और श्वास और भी गहरी होने लगे, नींद में चलती है वैसी चलने लगे और हमारा शरीर नींद वाली स्थिति में आने लगे तब हमारा अचेतन जागने लगता है। अब हमें शरीर को सुझाव देना बंद कर अचेतन को सुझाव देना है। अपना संकल्प अचेतन के सामने दोहराना है कि “मैं संकल्प लेता हूँ कि मुझे ध्यान में प्रवेश करना है।”

        या जो भी हमारा संकल्प हो उसे दोहराना है। यहां संकल्प दोहराते समय “मैं”और “मुझे” का प्रयोग करना है। “तुम” या “तुम्हें” नहीं कहना है। क्योंकि शरीर को सुलाना था इसलिए तुम कहा और संकल्प साक्षी ले रहा है और साक्षी मैं और मुझे शब्द से सम्मोहित है इसलिए मैं या मुझे शब्द प्रयोग करना सहयोगी होगा। 

इस साधना का प्रयोग केवल पहले चरण पर ही है। जैसे ही हमारे संकल्प पूरे होने लगे, साक्षी का अनुभव होने लगे और हमारा ध्यान लगने लगे हमें इस प्रयोग से आगे बढ़ जाना है। नहीं तो इसके आदी होने का डर है। क्योंकि यह शरीर पर लाई गई नींद है।

      _यह नींद एक नशा बन जाती है क्योंकि यह ध्यान और समाधि का भ्रम दे देती है और साधक इसी में उलझकर रह जाता है, उसकी आगे की यात्रा रुक जाती है और ध्यान में उसका प्रवेश नहीं हो पाता है योग-निद्रा और योग-तंद्रा में इसी तरह से साधक उलझकर रह जाता है क्योंकि वे सम्मोहन के ही दूसरे पहलू हैं।_ 

        यदि हम इस तरह की गहरी नींद वाली साधना के आदी हो जाते हैं तो उससे बाहर आने के लिए शरीरिक श्रम करना ही एक उपाय है। चाहे इसके लिए कठोर परिश्रम करना पड़े या रोजाना लंबी दौड़ लगानी पड़े। कम दूरी से शुरू करेंगे और रोजाना दूरी बढ़ाते जाएंगे। क्योंकि सामान्य नींद जितनी गहरी होती जाएगी, तंद्रा वाली नींद की जरूरत उतनी ही कम होती जाएगी और हम इस उलझन के बाहर आते जाएंगे। 

       _इस प्रयोग से पहले शरीर को हम थोड़ा थका लेंगे तो साक्षी को सुलाने वाले तत्व पसीने के द्वारा शरीर से बाहर चले जाएंगे और गहरी श्वास से आक्सीजन द्वारा प्राण तत्व मिलेंगे जो साक्षी को जगाए रखेंगे।_

     पुनश्च : इस विज्ञान के लाभ भी हैं और खतरे भी हैं। हमें सोच-समझकर ही इस विज्ञान का प्रयोग करना है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ध्यान साधना में सम्मोहन का प्रयोग जरूरी नहीं है और अनिवार्य तो है ही नहीं।

      _इसके बिना भी हमारा ध्यान में प्रवेश आसानी से हो सकता है। हम यहां सिर्फ इस विज्ञान की वैज्ञानिकता साझा कर रहे हैं। ताकि साधक इसके खतरों से अवगत हो सके।_

*समाधि (समग्रतृप्ति) में प्रवेष हेतु आत्मघाती होगा आत्म-सम्मोहन*

        _आत्म-सम्मोहन हमें नींद में ले जाता है, जागरण में नहीं ले जाता है। समाधी में नहीं ले जाता है. आत्म-सम्मोहन एक नींद है। जिसका उपयोग ध्यान में प्रवेश करने के लिए साधक करते आए हैं। ध्यान में विचार बहुत आते हैं।_

        ध्यान करने के लिए आलस्य आ जाता है। ध्यान में ज्यादा समय तक बैठ नहीं पाते हैं। ध्यान बार-बार उचटता है। यह सब समस्याएं ध्यान के समय आती है।

        हमारा जो चेतन मन है यह आलसी प्रवृत्ति का है। और फिर ध्यान में यह विलीन हो जाता है। इसकी मौत हो जाती है। तो यह जिंदा रहने के लिए तरह-तरह से बहाने बनाता है “कि इतनी जल्दी क्या है! अभी तो सारी उम्र पड़ी है ध्यान करने को? आज तो हम सोते हैं कल देखेंगे।” 

यह रोज रोज टालते हुए दिखाने के लिए कल का संकल्प लेता है कि कल से करेंगे। रोज रोज कल संकल्प लेने का कहने पर यह बात अचेतन में चली जाती है क्योंकि सुबह जागने पर जब हम कहते हैं कि” कल से शुरू करेंगे” तब हम अचेतन मन हमारे निकट होता है और वह सुन लेता है कि अभी क्या जल्दी है कल कर लेंगे और अचेतन अपनी आदतें जारी रखता है। 

       _हमारा चेतन मन दिन में यह कितना ही संकल्प ले ले, इसके संकल्प पूरे नहीं होते हैं। क्योंकि सारी चीजें अचेतन से संचालित होती है। चेतन मन द्वारा लिये संकल्प का अचेतन मन को पता ही नहीं चलता है क्योंकि जब चेतन मन संकल्प करता है तब अचेतन मन सोया होता है अतः चेतन मन के द्वारा ध्यान करने का संकल्प अचेतन तक पहुंचता ही नहीं है।_

      क्योंकि संकल्प अचेतन मन ही ले सकता है क्योंकि सारी चीजें अचेतन मन से ही संचालित होती है।

हम भोजन करते हैं, और ज्यादा भोजन कर जाते हैं तो हमारी सारी ऊर्जा भोजन को पचाने के लिए पेट में चली जाती है और हमें सुस्ती छाने लगती है। इस सुस्ती को दूर करने के लिए हम धुम्रपान शुरू कर देते हैं ताकि निकोटिन से थोड़ी ताजगी आए। 

हम बातचीत करते रहते हैं और हमें पता ही नहीं चलता है कि कब हमारा हाथ हमारी जेब में चला गया है और हम सिगरेट निकालकर जलाने लगे हैं? यह काम स्वतः घटता है, यह एक यांत्रिक आदत है, अपने से ही घटती है, जैसे कोई मशीन कर रही हो! क्योंकि यह सब हमारा अचेतन संचालित करता है। चेतन मन तो भूल जाता है।

      _लेकिन अचेतन को पता है क्या करना है और कब करना है। नियत समय पर वह शरीर को इन प्रक्रियाओं के लिए संचालित करता है। यदि अचेतन मन संचालन करना छोड़ देगा तो सिगरेट पीने की तलब ही नहीं लगेगी क्योंकि तलब भी अचेतन ही लगाता है। इसलिए हमें संकल्प भी अचेतन से ही लेना होगा।_ 

       हमारा अचेतन मन संचालित करता है बुरी आदतों को। बुरी आदतों की शौक-शौक में शुरूआत तो चेतन मन ही करता है। लेकिन धीरे-धीरे वे आदतें अचेतन में अपनी जड़ें जमा लेती है, जिन्हें उखाड़ना चेतन मन के हाथ में नहीं रह जाता है। अतः हमें आत्म सम्मोहन में अचेतन को ही कहना पड़ता है कि बुरी आदतों को छोड़ना है… ध्यान करना है… और वह मान लेता है।

चेतन मन ने सिगरेट शुरू की तो अचेतन ने कोई प्रश्न नहीं उठाया, वह मान गया। इसी भांति सिगरेट छोड़ने का कहेंगे तो भी अचेतन कोई प्रश्न नहीं उठाएगा! वह मान लेगा। वह बहुत भोला और आज्ञाकारी है। वह भीतर से तलब ही नहीं जगने देगा। 

      _चेतन मन बुरी आदतों को नहीं छोड़ सकता है। वह रोज-रोज संकल्प लेकर प्रयास करता है और उसे असफलता ही मिलती है। क्योंकि बुरी आदतों को छोड़ने वाली बात उसके हाथ में ही नहीं है! उसके हाथों से निकलकर अचेतन में चली जाती है। इसलिए संकल्प अचेतन को ही बताना पड़ेगा कि बुरी आदतों को छोड़ना है। ध्यान में प्रवेश करना है।_

        अब समस्या यह आती है कि हम अचेतन से कैसे कहें अपने संकल्प की बात? क्योंकि दिन में संकल्प के समय तो अचेतन सोया हुआ होता है! और रात नींद में जब अचेतन जगता है तब हम सो जाते हैं तो उस तक हमारा संकल्प पहुंचता ही नहीं है? 

         तो कैसे हमारा संकल्प अचेतन तक पहुंचे और वह बुरी आदतों को छोड़कर ध्यान में प्रवेश करने में हमारी मदद करने लगे ? इसलिए ध्यान के प्राथमिक चरण के रूप में सम्मोहन का उपयोग किया जाता रहा है। ताकि संकल्प अचेतन तक पहुंचाया जा सके! 

आत्म-सम्मोहन हमारे चेतन मन को सुलाता है और अचेतन मन को जगाता है।

     _आत्म-सम्मोहन में हम अपने शरीर को नींद में ले जाते हैं। यह शरीर पर बुलाई गई नींद है। उसे सम्मोहित करके नींद में चले जाने का सुझाव देते हैं। हम अपने शरीर को कभी सुझाव नहीं देते हैं! आदेश नहीं देते हैं। यदि हम इसे कुछ कहते हैं तो यह वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगता है। यदि हमारे हमारे मन में कामवासना का विचार आता है तो यह बिना कहे ही सक्रिय होने लगता है? तो यदि हम इसे ध्यान में जाने का कहेंगे तो यह सक्रिय क्यों नहीं होगा? और  ज्यादा प्रभावी रूप से सक्रिय होगा!_ 

        आत्म-सम्मोहन में यदि हम विश्राम में जाकर अपने शरीर को कहेंगे कि “तुम्हें नींद आ रही है…तुम्हें नींद आ रही है… ।” तो यह नींद में प्रवेश करने लगेगा। जब शरीर नींद में प्रवेश करने लगेगा तो हमारा चेतन मन जो सतत विचार करता है यह भी नींद में प्रवेश करने लगेगा। चेतन मन नींद में प्रवेश करने लगेगा तो अचेतन मन जागने लगेगा और अब हम “तुम्हें नींद आ रही है…।”

         यह सुझाव बंद कर देंगे क्योंकि यह शरीर के साथ चेतन मन को सुलाने के लिए था। यह सुझाव दिया था हमने शरीर को नींद में ले जाने के लिए, और शरीर और मन एक-दूसरे का अनुगमन करते हैं अतः शरीर को दिया सुझाव मन पर भी काम करता है और शरीर के साथ ही मन भी यानी विचार भी सोने लगते हैं और हमारा निर्विचार यानी अचेतन में प्रवेश हो जाता है। अब हम अपने अचेतन को संकल्प बताते हैं कि “मुझे बुरी आदतें छोड़ना है कि मुझे ध्यान में प्रवेश करना है।”

        आत्म-सम्मोहन हमारे चेतन मन को सुलाता है और अचेतन मन को जगाता है, ताकि हम उसे ध्यान में प्रवेश करने का संकल्प दे सकें ! 

आत्म-सम्मोहन में प्रवेश कर जब हम अपने शरीर को नींद में ले जाते हैं तो हमारा चेतन मन सोने लगता है और अचेतन जागने लगता है। और हमारा साक्षी होना भी शुरू हो जाता है क्योंकि जो साक्षी सदा चेतन मन के साथ विचारों में उलझता आया है, चेतन मन के सोते ही वह विचारों से मुक्त हो अपने आप में आ जाता है और शरीर के नींद में चले जाने और अचेतन के जागने पर सुझाव देने लगता है कि “मुझे बुरी आदतों को छोड़ना है… कि मुझे ध्यान में प्रवेश करना है…।” 

       _यहां पर हमें साक्षी का स्मरण होता है। क्योंकि शरीर के नींद में चले जाने पर विचार विलिन हो गये हैं और साक्षी जागा हुआ सुझाव दे रहा है तो सपने भी शुरू नहीं होते हैं। क्योंकि जो साक्षी शरीर के नींद में चले जाने पर विचार करते-करते सपने में खो जाता था वही साक्षी अचेतन को संकल्प बता रहा होता है कि मुझे ध्यान में प्रवेश करना है…! और दूसरी बात यहां यह भी घटती है कि जो ऊर्जा विचारों में बह रही थी, वह उर्जा अब साक्षी को मिलने लगती है, इसलिए भी हमें साक्षी का अनुभव होने लगता है।_

       तो संकल्प और साक्षी के अनुभव के लिए साधना के पहले चरण में ही सम्मोहन का उपयोग है। साक्षी घटने और संकल्प गहराने के बाद सम्मोहन का कोई उपयोग नहीं है। अब सम्मोहन नुकसान देगा। अब वह फिर-फिर नींद में ले जाएगा जबकि हमें जागरण में प्रवेश करना है।

      _आत्म-सम्मोहन से हमें साक्षी का अनुभव होता है और हम अचेतन मन को संकल्प बता देते हैं कि बुरी आदतों को छोड़कर ध्यान में प्रवेश करना है। संकल्प के अचेतन में प्रवेश करते ही अचेतन हमारे संकल्प को पूरा करने लगता है। रोजाना हमारा चेतन मन सुबह नींद खुलने पर कह देता था कि “कहां जल्दी है कल से सुबह उठ जाएंगे।_

        कल से प्राणायाम कर लेंगे, कल से घूमने चले जाएंगे?” सुबह जब जागने पर चेतन मन ऐसा कहता है तो अचेतन निकट होता है और यह बात वह सुन लेता है इसलिए अचेतन भी कल पर टाल देता है, लेकिन आज हमने आत्म-सम्मोहन में शरीर के साथ ही चेतन मन को सुलाकर अचेतन से कह दिया है कि सुबह जल्दी उठना है और वह कल की बजाय आज ही सुबह जगाने लगेगा। हम जैसा उसे कहते हैं वह वैसा ही करने लगता है।

       तो आत्म-सम्मोहन का काम सिर्फ इतना ही है कि हमारी साक्षी और संकल्प की यात्रा शुरु हो सके। जब हमें साक्षी का अनुभव होता है और अचेतन हमारे संकल्प को पूरा करने के लिए तैयार हो जाता है तो हम अपने शरीर और उसकी क्रियाओं के साक्षी होने लगते हैं और धीरे-धीरे  हमारा ध्यान टिकने लगता है। हम जहां पर भी ध्यान लगाना चाहते हैं वहां हमारा ध्यान टिकने लगता है।

हम श्वास पर ध्यान करते हैं तो हमारा ध्यान श्वास पर टिकने लगता है। हम जहाँ पर भी ध्यान लगाते हैं तो हमारा ध्यान आसानी से लगने लगता है। हमें विचार और निर्विचार का फर्क समझ में आने लगता है। हम शरीर के साथ ही भाव और विचारों के भी साक्षी होने लगते हैं और इस तरह से हमारा भीतर प्रवेश होने लगता है।

      _धीरे-धीरे हम आत्मकेंद्रित होने लगते हैं और हमारी अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है।_

       समाधि के लिए जो लोग आत्म-सम्मोहन का प्रयोग करते हैं वह सही नहीं है। वह आत्मघाती है। क्योंकि समाधि साधना का अंतिम चरण है और अंतिम चरण में प्राथमिक उपाय कैसे काम करेंगे? यदि हम अपने अचेतन को समाधि में प्रवेश करने का सुझाव देंगे तो समाधि का उसका अपना कोई अनुभव नहीं है।

       _समाधि अचेतन के तल पर नहीं घटती है। समाधि में तो चेतन मन और अचेतन मन दोनों ही छूट जाएंगे? अचेतन एक स्थिति है और समाधी दूसरी स्थिति है। यदि हम ट्रेन में सफर करते हुए पहले स्टेशन से दूसरे स्टेशन में प्रवेश करते हैं तो पहला स्टेशन पीछे छूट जाता है, दूसरे स्टेशन में ट्रेन प्रवेश करती है, पहला स्टेशन अपनी जगह खड़ा रहता है, वह ट्रेन के साथ दूसरे स्टेशन में प्रवेश नहीं करता है।_

         यानी चौथे तल अचेतन को पांचवें तल समाधी का कोई पता नहीं होता है अतः अचेतन को समाधी में प्रवेश करने का सुझाव देना मूर्खतापूर्ण कृत्य होगा। क्योंकि अचेतन को समाधी का कोई पता नहीं है। समाधी अचेतन के आगे की या कहें कि बाद की घटना है। 

इसे हम इस तरह से समझने की कोशिश करते हैं। जैसे हम स्वीमिंग पूल में नहाने जा रहे हैं। हमारे घर को हम चेतन मन समझ लेते है, हमारा घर हमारा चेतन मन है। हम घर से निकलते हैं और स्वीमिंग पूल पर पहुचते हैं। स्वीमिंग पूल का पूरा भवन है अचेतन मन। फिर हम उस जगह खड़े होते हैं, जहां से हमें पानी में छलांग लगानी है। यह छलांग लगाना समाधि है। 

   _अभी हम चेतन मन पर ही हैं। अभी हम घर में ही हैं। हम अपने घर में से सीधे स्वीमिंग पूल में छलांग केसे लगा सकते हैं? इसके लिए तो पहले हमें घर में से निकलकर स्वीमिंग पूल जाकर उस जगह पर खड़ा होना पड़ेगा जहां से छलांग लगती है? यदि हम घर में से ही स्वीमिंग पूल में छलांग लगाने की सोचेंगे तो वह सिर्फ सपने में ही होगा! हकीकत में नहीं होगा!_

        उसके लिए तो हमें स्वीमिंग पूल में जाकर वहां खड़े होना होगा जहां से छलांग लगाई जाती है? समाधि के लिए आत्म-सम्मोहन का प्रयोग करना अपने घर में बैठकर स्वीमिंग पूल में छलांग लगाने की कोशिश करना है जो कि असंभव ही नहीं, नामुमकिन भी है? 

      _अतः यदि हम समाधि में प्रवेश करने के नाम पर आत्म-सम्मोहन का प्रयोग करते हैं तो हमारे अचेतन का कोई अनुभव नहीं है समाधि में प्रवेश करने का! क्योंकि समाधि अचेतन के छूटने के बाद ही घटती है। हवाई पट्टी पर ही हम उड़ने का अनुभव कैसे कर सकते हैं? क्योंकि हवाई जहाज के उड़ान भरने के बाद ही हम उड़ने का अनुभव कर सकते हैं! लेकिन हवाई पट्टी तो छूट जाती है।_

          हवाई पट्टी का तो हवा में उड़ने का कोई अनुभव नहीं है? इसी भांति हमारे अचेतन को समाधि का कोई अनुभव नहीं है क्योंकि समाधि में प्रवेश करते ही अचेतन छूट जाता है? हमारा चौथे मन के तल से पांचवें आत्मा के तल पर प्रवेश हो जाता है तो चौथा छूट जाता है। 

हमारे अचेतन का समाधि का कोई अनुभव नहीं होने के कारण वह हमें उसी समाधि में प्रवेश करवाएगा जिस समाधि की हम हमेशा से कल्पना करते आए हैं। जिस समाधि के हमने सपने देखे हैं। इसलिए आत्म-सम्मोहन से जब हम समाधि में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं तो हमारा अचेतन पूर्व में की गई हमारी समाधि की धारणा को जिंदा करने लगता है और हम समाधि के एक सुंदर सपने में खो जाते हैं।

      _वह सपना इतना वास्तविक लगता है जैसे कि हम हाथ से छू दें! और आत्म-सम्मोहन इसमे बहुत ही सहयोगी होता है।_

       समाधी के लिए जब हम आत्म-सम्मोहन का उपयोग करते हुए अचेतन को सुझाव देते हैं कि “मैं समाधी में प्रवेश कर रहा हूँ… मैं समाधी में प्रवेश कर रहा हूँ…।” तो हमारा सम्मोहन वाली तंद्रा में प्रवेश होता है।

         यह तंद्रा शरीर में लाई हुई नींद है, जो हमारे शरीर को गहरी नींद में ले जाती है जहां और कोई सपना नहीं होता है सिर्फ अचेतन का दिखाया समाधि का सपना होता है। और समाधि की हमारी कल्पना में गहन विश्राम और प्रकाश ही होता है अतः प्रकाश और विश्राम का कोई चित्र नहीं बनता है अतः सपना याद भी नहीं रहता है। और वैसे भी नींद गहरी होती है, और गहरी नींद के सपने याद नहीं रहते हैं।

         _यह योग द्वारा लाई गई नींद है जो शरीर को गहरे प्रभावित करती है और इस नींद से हम तरोताजा होकर निकलते हैं क्योंकि तंद्रा वाली इस नींद में सपने नहीं होते हैं और शरीर को बहुत ज्यादा आक्सीजन मिलती है जिससे हम स्वयं को जीवंत अनुभव करते हैं और यही जीवंतता हमें समाधि का भ्रम दे देती है और हम इसमें उलझकर रह जाते हैं।_

         हमारा जीवन विरोधाभासी हो जाता है। समाधि का भ्रम हमें सहज जीवन नहीं जीने देता है। क्योंकि काम, क्रोध, लोभ, और मोह सारे मनोविकार वहीं के वहीं खड़े मिलते हैं। और इन्हीं को भुलाने के लिए हम रोज-रोज इस तंद्रा वाली झूंठी समाधि में प्रवेश करने लगते हैं, यह नशे की भांति हो जाता है और हम इसके आदी हो जाते हैं। 

समाधी में हम प्रवेश “कर” नहीं सकते हैं, समाधी में हमारा प्रवेश “होता” है। और एक बार हम समाधी में प्रवेश हो जाते हैं तो बार-बार प्रवेश करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है, फिर तो हम रात नींद में भी वहीं होता है और किसी से बात करते हुए भी समाधी में ही होते हैं। समाधी को तो अब हमें सिर्फ जीना ही होता है। 

       _आत्म-सम्मोहन ध्यान के आरंभीक चरण का हिस्सा है जिसे हम अचेतन मन तक संकल्प पहुंचाने और साक्षी को अनुभव करने के लिए प्रयोग में लाते हैं। समाधि का इससे कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि समाधि में चेतन और अचेतन दोनों ही छूट जाते हैं सिर्फ साक्षी साथ जाता है।_

        आत्म-सम्मोहन की अपेक्षा यदि हमें अचेतन को संकल्प देना है कि “बुरी आदतें छोड़नी है और ध्यान में प्रवेश करना है।” तो रात को सोते समय संकल्प करना बहुत ही उपयोगी होगा। रात को सोते समय यदि हम संकल्प लेते हैं तो वह संकल्प अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है वह सुन लेता है क्योंकि वह अचेतन मन के जागने का समय है। 

       _आत्म सम्मोहन में हम स्वयं को कृत्रिम नींद में ले जाते हैं। शरीर में नींद को निर्मित करते हैं। जबकि हमारा शरीर रात को रोजाना अपनी स्वाभाविक नींद में प्रवेश करता है। तो क्यों नहीं हम अपने शरीर की स्वाभाविक नींद का ही उपयोग कर लेते हैं अपने अचेतन मन को संकल्प देने के लिए?_

        रात को सोते समय जब हमारे शरीर के साथ ही हमारा चेतन मन सोने लगेगा और अचेतन मन जागने लगेगा तब हम अपने संकल्प को दौहराएंगे कि “मुझे ध्यान में प्रवेश करना है… कि मुझे बुरी आदतों को छोड़ना है…।”   

       सोते समय यदि हम रोजाना संकल्प को दौहराते हुए नींद में प्रवेश करते हैं तो हमारा संकल्प गहराने लगता है और हमें साक्षी का स्मरण भी होने लगता है अतः साधना में आत्म-सम्मोहन या सम्मोहन जरूरी नहीं है और अनिवार्य तो है ही नहीं।

*सम्मोहन और आत्म-सम्मोहन का भेद समझें :*

        आत्म समोहन के लिये दो आदमियों की जरूरत होती है…. अकेले  ध्यान में कैसे मगन हुआ जा सकता है इस पर हो सके तो प्रकाश डालिये?

       _आत्म-सम्मोहन का मतलब ही है कि स्वयं को सम्मोहित करना, अपने आपको सम्मोहित करना। दूसरा इसमें सिर्फ मददगार ही साबित होता है। दूसरा इसमें महत्वपूर्ण नहीं है यदि हम अपनी समझ से प्रवेश कर जाएं। हम यदि स्वयं संकल्प से प्रवेश कर जाते हैं तो दूसरे की जरूरत नहीं रह जाती है।_

        लेकिन सीखने के लिए शुरुआत तो लगभग दूसरे व्यक्ति से ही होती है। हम किसी से भी ध्यान सीखने जाते हैं। वह हमें श्वास की विधि प्रयोग करवाता है और हमें विश्राम में लिटाकर सुझाव देता है कि भाव करें कि “शरीर शिथिल हो रहा है… श्वास शिथिल हो रही है… मन शिथिल और शांत हो रहा है…।” हम भाव करते हैं और हम जैसा भाव करते हैं वैसा ही हमारे साथ घटित होने लगता है, शरीर और मन के शिथिल होने पर हमारा ध्यान में प्रवेश होने लगता है। शरीर को किसी भी प्रकार का सुझाव देना आत्म-सम्मोहन की ही श्रेणी में आता है।

       _तो दूसरा हमें शुरू में मददगार होता है। सीखने तक ही सीमित होता है। बाद में तो हमें स्वयं ही शरीर और मन को शिथिल कर ध्यान में ले जाना है। यदि हम किसी विधी में प्रवेश करते हैं जिसमें शरीर और मन को किसी प्रकार का सुझाव देना होता है, वह आत्म-सम्मोहन का ही एक हिस्सा है। इसमें दूसरा हमारे आत्म-सम्मोहन में सिर्फ सहयोगी है।_

        सिर्फ सहयोगी, सहभागी नहीं है वह! क्योंकि हमारे लिए तो यह आत्म-सम्मोहन है लेकिन दूसरे के लिए यह आत्म-सम्मोहन नहीं है? उसके लिए तो यह सम्मोहन है और वह भी हमारे लिए है, उसके लिए नहीं है। वह तो इससे अछूता ही है। 

पहले तो हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि हमें आत्म-सम्मोहन की जरूरत क्यों होती है? हम रोज-रोज संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठकर मार्निग वाक पर जाना है और सुबह होने पर फिर आलस्य कर जाते हैं। हम रोज कहते हैं कि कल से सिगरेट नहीं पीयूंगा या गुटखा तंबाकू नहीं लूंगा लेकिन वह कल कभी आता ही नहीं है।

       _हमारे संकल्प कभी पूरे होते ही नहीं है। क्योंकि यह सारी चीजें हमारे अचेतन मन से संचालित होती है और हम संकल्प लेते हैं चेतन मन से और अचेतन मन को पता ही नहीं चलता है इसलिए वह सारी चिजों को संचालित करता रहता है और हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते हैं। अतः हमें अचेतन मन से ही संकल्प लेना होता है तभी हमारे संकल्प पूरे होते हैं। और अचेतन जागता है चेतन मन के सोने के बाद, इसलिए हम आत्म-सम्मोहन द्वारा अपने शरीर को नींद से ले जाते हैं ताकि शरीर के साथ ही चेतन मन सो जाए और अचेतन जाग जाए तो हम उसे संकल्प बता सकें और हमारे संकल्प पूरे होने लगे और हमारा ध्यान में प्रवेश आसान हो जाए।_

        आत्म-सम्मोहन में हम अपने शरीर को विश्राम में ले जाकर नींद में जाने का सुझाव देते हैं। क्योंकि हमें संकल्प लेना है और संकल्प अचेतन मन से लेना होता है और अचेतन मन सोया हुआ है। तो हमें चेतन मन को सुला कर अचेतन मन को जगाना है और उसे संकल्प बताना है कि मुझे “ध्यान में प्रवेश करना है।”

        _या जो भी हमारा संकल्प हो उसे बता देना है। अतः आत्म-सम्मोहन में हम अपने शरीर को कहते हैं कि “तुम्हें नींद आ रही है… और तुम नींद में प्रवेश कर रहे हो…।” क्योंकि शरीर नींद में प्रवेश करेगा तब चेतन मन सोने लगेगा और अचेतन मन जागने लगेगा। और हम अचेतन मन को अपना संकल्प बता देंगे कि “मुझे ध्यान में प्रवेश करना है या जो भी हमारा संकल्प हो वह कह देंगे।_

       हम एक बार किसी से सीख लेते हैं तो फिर स्वयं को आत्म सम्मोहित कर सकते हैं। आत्म सम्मोहन स्वयं को सम्मोहित करने के लिए है और सम्मोहन दूसरे को सम्मोहित करने के लिए है। 

सम्मोहन में दूसरा व्यक्ति हमरे शरीर को नींद में ले जाकर हमारे अचेतन से संपर्क स्थापित करता है। जबकि आत्म-सम्मोहन में हम स्वयं अपने अचेतन मन से संपर्क स्थापित करते हैं। सम्मोहन में हम बेहोश होते हैं और दूसरा हमारे अचेतन को क्या सुझाव देता है इसकी हमें जानकारी नहीं होती है। जबकि आत्म-सम्मोहन में हम जागे हुए होते हैं और हमें पता होता है कि हमने अपने अचेतन से क्या कहा है। 

       _सम्मोहन में हम दूसरे व्यक्ति पर निर्भर होते हैं और आत्म-सम्मोहन में हम आत्म-निर्भर होते हैं। सम्मोहन गहरे अचेतन में प्रवेश करता है और पूर्व जन्म की बातें भी खोज लेता है और आत्म-सम्मोहन हमें अचेतन के निकट ले आता है जहां से हमें स्वयं प्रवेश करना होता है, और सारी खोजबीन स्वयं को ही करनी होती है।_

        सम्मोहन और आत्म-सम्मोहन दोनों साधना में सहयोगी हैं लेकिन अनिवार्य नहीं है। हां सम्मोहन में हम अपनी मानसिक समस्या के बाहर आ जाते हैं जिससे ध्यान साधना आसान हो जाता है। लेकिन यदि हम संकल्प पूर्वक प्रयास करते हैं तो किसी सम्मोहन की कोई जरूरत नहीं होती है।

        _आत्म-सम्मोहन भी अनिवार्य नहीं है क्योंकि रोजाना रात को सोते समय हम नींद में प्रवेश करते हैं और हमारा अचेतन मन जागने लगता है तब हम संकल्प कर सकते हैं कि “मुझे ध्यान में प्रवेश करना है या कि मुझे व्यसन छोड़ना है…। ” इसके लिए अलग से आत्म-सम्मोहन वाली नींद में उतरने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है।_

*मन का ही खेल है तंत्र~विद्या :*

           तांत्रिक विद्या और काला-जादू जैसे कामों में अचेतन, सम्मोहन और तीसरी आंख का दुरुपयोग अधिक होता है.

     एक सुधी पाठक लिखते हैं :

मानवजी मैंने आपके सम्मोहन विज्ञान वाले सभी आर्टिकल पढे़ हैं। सम्मोहन करने वाला जो होता है, वह आदमी को सम्मोहित करके उसके अनकांसियस माइंड से कांटेक्ट करके माइंड से संबंधित बीमारियों का इलाज करता है। लेकिन~

       मैंरे यहां एक तांत्रिक साधू था वह ऐसे आदमी को ढूंढता रहता था जिसने अपनी मां के पेट से पांव की तरफ से जनम लिया हो. वह उसकी आंखों में अंजन चढ़ाकर दूर की बातें जान लेता था जमीन में गड़े हुए धन को देख लेता था और वह सट्टे का नंबर भी बता देता था। उसके घर में सट्टेबाजों की भीड़ लगी रहती थी। यह सब वह कैसे करता था? और इसमें उसी आदमी की जरूरत क्यों होती है जिसने पांव की तरफ से जन्म लिया है? और यह अंजन चढ़ाना क्या है?

      मैंने एक बात नोट करी थी कि वह तांत्रिक भी शुरू में सम्मोहनकर्ता के जैसा ही सजेशन देता था। क्या इसका भी सम्मोहन से या अनकांसियस माइंड से कोई कनेक्शन है क्या? और वह तांत्रिक खुद को देवी का भक्त कहता था लेकिन केंसर से तड़प-तड़प कर मरा। उसकी ऐसी मौत क्यों हुई?

      _तांत्रिक विद्या का तंत्र-साधना यानि विज्ञान भैरव तंत्र और ध्यान-साधना से कोई भी लेना-देना नहीं है। यह सारा धंधा सम्मोहन, तीसरी आंख और अचेतन मन के दुरुपयोग पर टिका हुआ है। तांत्रिक विध्या में जो लोग लगे हुए होते हैं उन्हें तो इस विज्ञान का सही-सही पता भी नहीं होता है!_

         उन्हें तो यह जानकारी ही नहीं होती है कि वे अचेतन, तीसरी आंख और सम्मोहन का प्रयोग कर रहे हैं क्योंकि वे लगभग अनपढ़ होते हैं और इस विज्ञान की उन्हें कोई समझ ही नहीं होती है। वे इसे वैज्ञानिक तथ्य तो समझते ही नहीं हैं, वे तो इसे देवी-देवताओं का चमत्कार समझते हैं और वे ऐसा कहते भी हैं।

       _यदि उनमें इसकी कोई समझ होती तो वे इस विज्ञान का व्यवस्थित उपयोग करते और किसी देवी-देवताओं का सहारा नहीं लेते?_

        सम्मोहन और तीसरी आंख या कहें कि मन के विज्ञान का उन्हें कोई पता ही नहीं होता है। इस विज्ञान से संबंधित बहुत थोड़े से और अधूरे सूत्र ही उनके हाथ में होते हैं जो खतरनाक सिद्ध होते हैं। तभी तो कई बार इसमें या तो लोग विक्षिप्त हो जाते हैं या फिर अपनी जान गंवा देते हैं। 

तांत्रिक विद्या और काला जादू जैसी जो भी विध्याएं हैं, भगवान शिव के “विज्ञान भैरव तंत्र” से इनका दूर-दूर तक कोई संबंध ही नहीं है। और इस प्रयोग के जानने वाले सिर्फ और सिर्फ धन अर्जित करने, गड़ा हुआ धन देखकर प्राप्त करने, और जुएं का नंबर देखने के लिए ही इस सम्मोहन और तीसरी आंख के विज्ञान का दुरुपयोग करते हैं।

       _जो विज्ञान उन्हें मुक्त कर सकता है उसी विज्ञान में वे बुरी तरह से भटक जाते हैं और अपना और दूसरों का यह जीवन तो नष्ट करते ही हैं अगला जीवन भी नष्ट कर लेते हैं।_

        तांत्रिक विद्या में जिस व्यक्ति ने अपनी मां के पेट से पैरों की तरफ से जन्म लिया है, उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उसे पग-पालिया कहा गया है। जिसने संसार में अपने पैरों को पहले पाया है, जो अपने पैरों की तरफ से पैदा हुआ है।

       सामान्यतः बच्चे मां के पेट में उल्टे होते हैं और सिर की तरफ से जन्म लेते है। लेकिन कुछ बच्चे सीधे होते हैं और पैरों की तरफ से जन्म लेते हैं। 

ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी मां के पेट से पैरों की तरफ से जन्म लिया है, वह व्यक्ति महत्व का होता है। जब हम पैदा होते हैं तो उस समय ग्रह नक्षत्रों की जो दशा होती है वह हमारे शरीर और चेतना के तलों को प्रभावित करती है।

      _जब हमारा जन्म होता है तो पहले हमारा सिर बाहर आता है, फिर बाकी शरीर, तो प्रकृति में सारे ग्रहों का जो प्रभाव होता है वह पहले हमारे सिर पर होता है फिर जैसे जैसे शेष शरीर बाहर आता है बाकी शरीर भी प्रकृति के प्रभाव में आ जाता है। लेकिन जो व्यक्ति पैरों के तरफ से जन्म लेता है उसके पहले पैर बाहर आते हैं फिर बाकी शरीर बाहर आता है और अंत में सिर बाहर आता है।_

         जब तक उसका सिर बाहर आता है तब तक उसका शरीर प्रकृति के सारे प्रभावों को झेल चुका होता है। अतः उसका सिर कम प्रभावित होता जिससे उसका आज्ञाचक्र बहुत ज्यादा संवेदनशील हो जाता है। इसलिए पग-पालिया व्यक्ति की तांत्रिक-विद्या में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

आज ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है जिसका पैरों के तरफ से जन्म हुआ हो। क्योंकि मां के पेट में बच्चा यदि सीधा होता है, उसके पैरों की ओर से जन्म लेने की संभावना हो तो मां और बच्चा दोनों की जान को खतरा है।

      _क्योंकि जब बच्चा मां के पेट में होता है तो उसका सिर बड़ा होता है और कंधे और छाती सिर से छोटे होते हैं। बाहर आने के बाद छाती और कंधे बड़े हो जाते हैं और सिर छोटा हो जाता है। अतः यदि मां के पेट से पहले सिर बाहर आ जाएगा तो बाकी शरीर आसानी से बाहर आ जाएगा क्योंकि सिर कंधों से बड़ा होता है।_

         यदि पैर पहले बाहर आ जाते हैं तो बड़ा होने की वजह से बच्चे का सिर अंदर फंस सकता है और दम घुटने से बच्चे की मौत होने की संभावना हो सकती है और मां को संक्रमण हो सकता है। इसीलिए बच्चा यदि मां के पेट में सीधा होता है, यानि उसकी पैरों की तरफ से जन्मने की संभावना हो तो डाक्टर आपरेशन करके बच्चे को बाहर निकालते हैं।

       सामान्य प्रसूति नहीं करवाते हैं। पहले आप्रेशन की इतनी सुविधाएं नहीं थीं, तो सामान्य प्रसूतियां ही होती थीं और कुछ बच्चे जो सीधे होते थे, वे पैरों की तरफ जन्म लेते थे। सभी बच्चों के सिर नहीं फंसते थे, किसी-किसी बच्चों के साथ ऐसा होता था।

आज भी हमारे यहां सरकारी अस्पतालों में लगभग सामान्य प्रसूतियां ही होतीं हैं! लेकिन पैरों की तरफ से पैदा होने वाले बच्चे को आप्रेशन करके ही मां के पेट से बाहर निकालते हैं। हमारे पास सुविधाएं हैं तो फिर खतरा उठाने की जरूरत नहीं रह जाती है? 

        _तंत्र विद्या में इस पग-पालिया व्यक्ति की, जिसने अपनी मां के पेट से पैरों की तरफ से जन्म लिया है, ऐसे व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि इस व्यक्ति का आज्ञाचक्र सामन्य व्यक्ति से बहुत ज्यादा संवेदनशील होता है जिसे बहुत ही आसानी से प्रभावित किया जा सकता है।_

        इस पग-पालिया व्यक्ति को सम्मोहित करके इसके चेतन मन को सुलाकर, इसी व्यक्ति के अचेतन से संपर्क करके, इसी व्यक्ति के अतिचेतन से चिजों को देखा जाता है। 

       _हमारा अतिचेतन सक्रिय है लेकिन हम उसके प्रति सजग नहीं है। हम तो अपने चेतन मन के प्रति भी सजग नहीं हैं। यदि हम अपने चेतन मन के प्रति सजग या होश से भर जाते हैं, हम अपने विचारों को शिथिल कर लेते हैं तो हमारा अचेतन मन में प्रवेश हो जाता है।_

       यदि हमारा अचेतन मन में प्रवेश हो जाता है तो हम आंख बंद करके अतिचेतन का देखने के लिए उपयोग कर सकते हैं। 

तंत्र विद्या में तांत्रिक इस व्यक्ति को सम्मोहित करता है। वह देवी देवताओं के नाम लेता है, उनकी जय बोलता है, उनके नाम पर मंत्र पढ़ता है, जिससे वाहक के मन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है, उसे भरोसा आ जाता है कि जिस देवता का आह्वान तांत्रिक ने किया है वह उसकी रक्षा करेगा और वह निर्भय होकर सम्मोहन में प्रवेश कर जाता है। 

      _उसे आराम कुर्सी पर या दीवार के सहारे विश्राम अवस्था में बिठाया जाता है। उसके ऊपर पतली चादर ओढ़ा दी जाती है ताकी प्रकाश हल्का हो जाए, क्योंकि प्रकाश ज्यादा होगा तो वाहक को अचेतन में प्रवेश करने में असुविधा होगी। और दूसरों को पता भी नहीं चलेगा कि भीतर क्या हो रहा है।_

        उसके दाहिने हाथ की हथेली पर, हथेली में समा जाए इतना छोटा सा गोल आईना रख दिया जाता है, आईना इतना छोटा होता है कि उसमें सिर्फ उसकी दोनों आंखें ही दिखलाई पड़े।

       _जिस हथेली पर आईना रखते हैं उसी हाथ की मध्यमा उंगली, बीच वाली बड़ी उंगली को दोनों आंखों के बीच आज्ञाचक्र पर टिका दिया जाता है, जिससे उसकी दोनों आंखें हथेली पर रखे आईने के एकदम सामने आ जाती है और आईने में उसे सिर्फ अपनी दोनों आंखें ही दिखाई देती है। जैसे ही मध्यमा उंगली तीसरी आंख को छूती है वह कंपीत होने लगती है।_

           यदि हम अपनी दोनों आंखों को बंद करके, दोनों आंखों के बीच स्थित तीसरी आंख के पास पेंसिल या फिर अपनी उंगली ले जाते हैं तो वहां कंपन होने लगता है, क्योंकि वह बहुत ही संवेदनशील है। 

तांत्रिक उस व्यक्ति को आईने में दिख रही अपनी आंखों में एकटक देखने को कहता है।

     _ज्यों ही वह व्यक्ति, वह वाहक आईने में अपनी दोनों आंखों में देखता है, दोनों आंखों की उर्जा आईने से टकराकर वापस आंखों की तरफ लौटती है, तो आज्ञाचक्र कंपीत होने की वजह से तुरंत दोनों आंखों की आईने से टकराकर लौटती हुई उर्जा को अपनी ओर खींच लेता है और उसकी दोनों आंखें आईने पर थींर हो जाती है। ठहर जाती है।_

        दोनों आंखों की बाहर देखने वाली ऊर्जा आईने से टकराकर तीसरी आंख में प्रवाहित होने लगती है। 

जब दोनों आंखों की देखने वाली ऊर्जा आईने से टकराकर आज्ञाचक्र यानी तीसरी आंख में प्रवाहित होने लगती है, तो तीसरी आंख वाहक की दोनों आंखों को पूरी तरह से सम्मोहित कर लेती है। दोनों आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है। क्योंकि देखने को कुछ है ही नहीं, आंखें अपने को ही देख रही होती है और अचानक उनकी उर्जा तीसरी आंख खींच लेती है।

     _अतः दोनों आंखों के पास देखने के लिए ऊर्जा नहीं होती है और उनके आगे अंधकार छा जाता है। और वाहक सम्मोहन वाली नींद में प्रवेश करने लगता है।_

        तीसरी आंख के चुंबकीय आकर्षण के कारण कभी-कभी तो मध्यमा उंगली तीसरी आंख से इतना बुरी तरह से चिपकती है कि दो आदमी मिलकर अपनी ताकत लगाते हैं तब कहीं तीसरी आंख से उंगली को अलग कर पाते हैं। तीसरी आंख का खींचाव इतना ज्यादा होता है कि तीसरी आंख वाली जगह में उंगली का गढ्ढा बन जाता है।

      _तीसरी आंख के इसी खींचाव के कारण वाहक गहरी नींद में चला जाता है। और गहरी नींद में वह अचेतन से अतिचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और उसे चिजें दिखाई देने लगती है।_ 

         हमारी आंखें विचारों के साथ गति करती हैं । यदि विचार ठहर जाएंगे तो आंखें भी ठहर जाएंगी और इसके उलट यदि हम आंखों को ठहरा लेते हैं तो हमारे विचार भी ठहर जाते हैं। हमने ओशो की आंखों को ठहरा हुआ देखा है, क्योंकि उनके विचार ठहर गए हैं। 

जब वाहक दोनों आंखों से अपनी हथेली पर रखे आईने में देखता है तो उसकी आंखों की उर्जा आईने टकराकर वापस लौटती है… तब मध्यमा उंगली से कंपीत हो रही तीसरी आंख दोनों आंखों की आईने से लौटती हुई उर्जा को तुरंत अपनी ओर लपक सा लेती है। 

      _जैसे ही तीसरी आंख आईने से टकराकर लौटती हुई दोनों आंखों की उर्जा को अपनी ओर खींचती है, दोनों आंखें वहीं आईने में ठहर जाती है। और जैसे ही दोनों आंखें ठहरती है, वाहक के विचार भी ठहर जाते हैं। और ज्यों ही विचार ठहरते हैं, वाहक के शरीर से सारे तनाव हट जाते हैं, उसकी श्वास नभि तक जाने लगती है और उसका शरीर नींद में जाने लगता है।_

        शरीर के नींद में जाते ही उसका चेतन मन सो जाता है और अचेतन मन जाग जाता है। चूंकि चेतन मन तांत्रिक के संपर्क में होता है और जैसे ही चेतन मन सोता है और अचेतन जागता है, तांत्रिक के सुझाव अचेतन मन सुनने लगता है और उसका अनुपालन करने लगता है। क्योंकि चेतन मन सोने के पूर्व जागते हुए अचेतन को अपनी बात का अंतिम सिरा थमा जाता है और अचेतन उसी बात पर आगे काम करने लगता है।

      _यानि वह तांत्रिक के संपर्क में आ जाता है। चेतन मन के सोते ही और अचेतन मन के जागते ही वाहक का शरीर विश्राम में चला जाता है, और सम्मोहन वाली नींद में प्रवेश कर जाता है।_

        अब तांत्रिक वाहक के अचेतन मन से उसका नाम पूछता है और फिर उसे देखने को कहता है कि फलां जगह पर क्या दिखाई दे रहा है? वाहक का अचेतन देखने की कोशिश करता है।

वाहक के स्थूल शरीर की आंखों के आगे तो अंधेरा है। वे निष्क्रिय हैं, क्योंकि स्थूल शरीर सम्मोहन की नींद में चला गया है, और दोनों आंखों से देखने वाला चेतन मन भी दोनों आंखों के तीसरी आंख में थीर होने के बाद विचारों के रुकने से नींद में चला गया है और अचेतन जाग गया है। तथा दोनों आंखों की ऊर्जा तीसरी आंख में प्रवाहित हो रही होती है। 

       _तीसरी आंख का यहां इतना ही काम है कि आईने द्वारा दोनों आंखों को तीसरी आंख में ठहरा देते हैं, तो दोनों आंखों की उर्जा तीसरी आंख में प्रवाहित होने लगती है, जिससे विचार रूक जाते हैं और विचारों के रूकते ही शरीर शिथिल होकर नींद में जाने लगता है,जिससे चेतन मन सो जाता है और अचेतन मन जाग जाता है।_

       यानि तीसरी आंख का उपयोग चेतन मन को सुलाकर अचेतन मन को जगाने के लिए किया जाता है। 

        _चेतन मन दोनों आंखों से ज्ञात को देखता है स्थूल जगत को देखता है और हमारा अचेतन मन अज्ञात को देखता है, सूक्ष्म जगत को देखता है। चेतन मन विचार करता है और अचेतन मन विचार को सपना बनाता है और अतिचेतन सपने को दर्शन बनाकर देखता है। यानि अतिचेतन में जागने पर हमें दर्शन उपलब्ध होता है और हम अपनी आंखों को बंद करके भी चिजों को देखने लगते हैं।_

         दोनों आंखों से हम ज्ञात जगत को देखते हैं और अचेतन से हम अज्ञात जगत को देख सकते हैं। इसके लिए हमारे चेतन मन का सोना और अचेतन मन का जागना जरूरी है। चेतन मन जब सो जाता है तो अचेतन मन अतिचेतन मन का उपयोग कर अज्ञात जगत को देखने लगता है। चूंकि नींद में अचेतन मन जब जागता है तो हम बेहश हो जाते हैं इसलिए अचेतन हमें सपने में ले जाता है।

यदि हम नींद में जाग जाते हैं, साक्षी हो जाते हैं तो हमारा अचेतन मन सपने की जगह हमें अतिचेतन के द्वारा हकीकत को दिखाने लगेगा। 

      _हमारी जो ऊर्जा जागते में चेतन मन विचारों में खर्च करता है, उसी उर्जा को नींद आने पर अचेतन मन स्वप्न में खर्च करता है और अचेतन मन में जागने पर, यानि सपने में जागने पर यही उर्जा अतिचेतन पर दर्शन बनकर दूर की चिजों को देखने में काम आने लगती है।_

       तांत्रिक विद्या की इस प्रक्रिया में ज्यादातर असफलता ही हाथ आती है। क्योंकि वाहक का कभी-कभी भय के कारण चेतन मन पूरी तरह से सो नहीं पाता है और उसका अचेतन मन में पूरी तरह से प्रवेश ही नहीं हो पाता है इसलिए कभी-कभी अचेतन जुंए के नंबर और गड़े हुए धन का सपना भी दिखा देता है।

        _लगभग ज्यादातर मौकों पर इन्हे असफलता ही हाथ लगती है। लेकिन एक सफलता और-और प्रयासों को जन्म देती है और वे इसमें उलझे रहते हैं।_

        सम्मोहन की इस प्रक्रिया में अचेतन मन के तल पर खड़े वाहक को गहरा ले जाने के लिए तांत्रिक को स्वयं भी अचेतन मन के तल पर आना होता है। और अचेतन मन के तल पर आने के लिए शरीर का नींद की भावदशा में होना जरूरी है। इसलिए यह लोग गांजा या शराब का प्रयोग करते हैं ताकि शरीर नींद की भावदशा में आ जाए और इनका अचेतन मन में प्रवेश हो सके।

       इस चक्कर में इन्हें रोज नशा करना पड़ता है और परिणाम स्वरूप ये गंभीर बिमारियों से पीड़ित होकर मरते हैं। 

     _व्यापार या अन्य न्यस्थ स्वार्थ के लिए साधी-स्वीकारी गईं तांत्रिक विद्या एक छलावा है, इससे किसी का कोई भी आत्मिक लाभ नहीं होता है। और ध्यानी को, साधक को इन सब बातों से दूर ही रहना चाहिए।_

*सम्मोहन और मन का चक्रों का अंतर्संबंध :*

        _सम्मोहन हमारे कौन से चक्र से संबंधित है, आज्ञा या ह्रदय से? और क्या अचेतन और अवचेतन मन का भी हमारे चक्रों से कोई संबंध है?_

           सम्मोहन हमारे अचेतन मन से संबंधित है, और अचेतन मन का संबंध है चौथे अनाहत चक्र से है। अतः सम्मोहन का हमारे अनाहत चक्र से अंतर्संबंध निहित है। तथा सम्मोहन में हम शरीर को नींद में ले जाने के लिए चेतन मन को सुलाते हैं और इसके लिए दोनों आंखों को आज्ञा चक्र में केंदित कर देते हैं। अतः आज्ञाचक्र सम्मोहन का आधार है। 

चेतन मन में हमारी बचपन से अभी तक की ही स्म्रतियां दर्ज हैं लेकिन अचेतन मन में हमारे पिछले जन्मों की स्मृतियां भी दर्ज हैं। हम अचेतन मन के साथ जन्म लेते हैं। उम्र के बढ़ने के साथ ही चेतन मन निर्मित होने लगता है, हम बोलने और पढ़ने लगते हैं।    

    _हम शब्दों में बोलते हैं और शब्दों के साथ चित्रों की भाषा में विचार आने लगते हैं। हम शब्द “क” से “कमल” पढ़ते हैं और कमल के फूल की आकृति हमारे भीतर विचारों में बनने लगती है और धीरे-धीरे हमारा चेतन मन निर्मित होता चला जाता है।_

        जिस चेतन मन का निर्माण शरीर के साथ होता है, शरीर के छूटते ही चेतन मन भी शरीर के साथ यहीं छूट जाता है। और अचेतन मन आत्मा के साथ चला जाता है। अचेतन मन का संबंध अनाहत चक्र से है अतः अनाहत चक्र हमारे साथ जाता है बाकी के तीन चक्र यहीं छूट जाते हैं।

मूलाधार शरीर का चक्र है, स्वाधिष्ठान भाव का चक्र है और मणिपुर विचार का चक्र है। अतः शरीर के साथ ही भाव और विचार के छूटने पर मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर तीनों चक्र भी यहीं छूट जाते हैं और अगले जन्म में नये शरीर के साथ तीनों चक्र फिर से विकसित होने लगते हैं। 

      _मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर यह तीनों चक्र संसार के हैं इसलिए नश्वर है और संसार में ही छूट जाते हैं और विशुद्धी, आज्ञा और सहस्त्रार यह तीनों चक्र अध्यात्म के हैं, इसलिए ये सनातन है। अनाहत चक्र बीच में है।_

       अनाहत चक्र का संबंध अचेतन से है और अचेतन में हमारी वासनाएं दर्ज हैं अतः वे वासनाएं अगले जन्म में ले जाती है। अतः अनाहत चक्र संसार में आने के लिए वाहन का काम करता है।

       जिस दिन अनाहत चक्र से विशुद्धी चक्र में प्रवेश हो जाएगा उस दिन अनाहत चक्र के साथ ही अचेतन भी छूट जाएगा और अचेतन मन के छूटते ही समस्त वासनाएं भी छूट जाएंगी और वासनाओं के छूटते ही जन्म-मृत्यु से छुटकारा हो जाएगा और आत्मा में प्रवेश हो जाएगा। 

शरीर छूटने के बाद अचेतन मन हमारे साथ जाता है इसलिए पिछले जन्म की सारी स्मृतियाँ अचेतन मन  में दर्ज हो जाती है जिन्हें सम्मोहन द्वारा अचेतन मन में प्रवेश करके जागाया जा सकता है। इसलिए सम्मोहन विज्ञान बहुत उपयोगी है। 

      _सम्मोहन में हम चेतन मन को शांत कर सुला देते हैं तो अचेतन मन जाग जाता है। चेतन मन शरीर के साथ ही साथ जन्मता है इसलिए इसका शरीर से अंतर्संबंध बहुत गहरा है। यानि शरीर सोयेगा तो ही चेतन मन सोयेगा।_

        इसलिए हम सम्मोहन में शरीर को नींद में ले जाते हैं। सुझाव देते हैं कि “तुम्हें नींद आ रही है।” ताकि शरीर नींद में चला जाए तो चेतन मन भी सो जाए और हमारा अचेतन मन से संपर्क हो जाए।

      सम्मोहन में हमारी दोनों आंखों को सम्मोहनविद की आंखों में या किसी एक बिंदू पर ठहरा दिया जाता है। आंखें ज्यों ही ठहरती है हमारे विचार रूक जाते हैं। क्योंकि आंखें विचारों के साथ-साथ गति करती है। अतः आंखों की गति के रुकते ही विचार भी रुक जाते हैं। 

जबान शब्दों को भीतर बोलती है और आंखें जबान द्वारा बोले गये शब्दों को विचार बनाकर हमारे भीतर  चित्रों में अभिव्यक्त करती है इसलिए आंखें सतत गति करती रहती है।

      _यहां पर सम्मोहन में आंखों के एक बिंदू पर ठहरते ही भीतर चित्र बनने बंद हो जाते हैं अतः विचारों को गति करने के लिए चित्र नहीं मिलते हैं और हमारे विचार रुक जाते हैं। दूसरे, जो विचारों को भीतर देख रहा था – साक्षी, वह विचारों से अपना ध्यान हटाकर आंखों को बिंदू पर ठहराने में लग जाता है इसलिए भी विचार रुक जाते हैं।_

       बिंदु पर आंखों के ठहरते ही हमारी दोनों आंखों की बाहर देखने  वाली ऊर्जा बिंदू से टकराकर वापस लौटती है और ऊर्जा ज्योंही वापस लोटती है तो दोनों आंखों के बीच में स्थित आज्ञाचक्र उर्जा को लपक लेता है और हमारी दोनों आंखों की उर्जा आज्ञाचक्र में प्रवेश करने लगती है और दोनों आंखें आज्ञाचक्र में पूरी तरह से सम्मोहित हो जाती है।

      _दोनों आंखों की उर्जा आज्ञाचक्र खींच लेता है अतः दोनों आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। उधर विचारों के रूकने से शरीर से सारे तनाव हट जाते हैं और शरीर शिथिल हो जाता है जिससे श्वास नाभि तक जाने लगती है, शरीर नींद वाली भाव दशा में आ जाता है और आंखों के आगे अंधेरा छाने से शरीर नींद में चला जाता है और चेतन मन सो जाता है।_ 

         सम्मोहनविद सुझाव देता है कि “तुम्हें नींद आ रही है… तुम्हें नींद आ रही है… ।” सुझाव चेतन मन को दिया गया था। चेतन मन का सोना ही अचेतन मन का जागना है। चेतन मन सोते समय बात का अंतिम सिरा अचेतन के हाथ में थमा देता है।

अतः जो सुझाव चेतन मन को दिये जा रहे थे उनका अनुगमन अब अचेतन मन करने लगता है और सम्मोहनविद का सम्मोहित व्यक्ति के अचेतन मन से संबंध हो जाता है। 

      _दोनों आंखें आज्ञाचक्र में सम्मोहित हो जाती है। जब तक दोनों आंखें आज्ञाचक्र से अलग नहीं होंगी हम सम्मोहन के बाहर नहीं आ सकेंगे तभी तो सुझाव देते समय सम्मोहनविद अचेतन से कहता है कि “जब मै एक, दो, तीन कहूंगा और तुम नींद से बाहर आ जाओगे।” और जैसे ही सम्मोहनविद “एक, दो, तीन” कहता है, नींद टूट जाती है और व्यक्ति सम्मोहन के बाहर आ जाता है।_ 

        चेतन मन का संबंध हमारे तीसरे मणिपुर चक्र से है। मणिपुर विचारों का चक्र है। तथा अचेतन और अवचेतन दोनों का संबंध अनाहत चक्र से है । यानि अचेतन मन अनाहत चक्र का बैठक खाना है और अवचेतन मन पूरा मकान है। अर्थात अचेतन और अवचेतन अनाहत चक्र के दो हिस्से हैं! 

हमारी सारी ऊर्जा मणिपुर चक्र से विचारों में बह रही है।

इस उर्जा को विचारों से मुक्त कर अचेतन में या कहें कि अनाहत चक्र में प्रवेश करने के लिए ही सारी साधनाएं की जाती है। 

     _चेतन, अचेतन और अवचेतन तीनों के प्रति हम जागे हुए नहीं हैं। दिन में जब हम विचारों में उलझे रहते हैं तो हम चेतन मन में होते हैं। रात नींद में जाते ही चेतन मन सो जाता है और अचेतन मन जाग जाता है तो हम अचेतन मन में होते हैं और अचेतन हमें सपने दिखाने लगता है। और आधी रात के बाद जब हम गहरी नींद में होते हैं तब हम अवचेतन में प्रवेश कर जाते हैं जहां पर सपनें विदा हो जाते हैं और एक गहन विश्राम हमें घेर लेता है।_

          अवचेतन के इस विश्राम से हमें ऊर्जा मिलती है और सुबह हम जीवंत होते हैं, ताजा होते हैं। यदि गहरी नींद नहीं आती है तो हमारा अवचेतन मन में प्रवेश नहीं होता है, हमें ऊर्जा नहीं मिलती है तो हम दिनभर उनींदा और थका-थका हुआ सा अनुभव करते हैं। इसलिए जीवन में श्रम करना महत्वपूर्ण माना गया है ताकि शरीर थक जाए और हमें गहरी नींद आए और अवचेतन से उर्जा मिलती रहे और हमारा साक्षी होना बढ़ता रहे। 

*तो हम कैसे जागें चेतन, अचेतन और अवचेतन मन के प्रति?*

        हम सीधे चेतन मन के प्रति नहीं जाग सकते हैं चेतन मन विचारों का तल है, हम जितना विचारों को देखने का प्रयास करते हैं उतना ही वे और भी दोगुनी गति से आने लगते हैं। चेतन मन के प्रति जागने के लिए पहले हमें शरीर के प्रति जागना होगा क्योंकि शरीर पहला तल है।

       _हम शरीर की क्रियाओं के प्रति जागे हुए रहते हैं तो क्रियाओं में बह रही अनावश्यक उर्जा हमारी ओर बहने लगती है। जैसे कि हम कुर्सी पर बैठते हैं तो हमारे पैर हिलने लगते हैं और हमारा ध्यान नहीं होने के कारण वह उर्जा व्यर्थ बाहर चली जाती है।_

        यदि हम पैरों के हिलने को देखते हैं, तो पैरों में दबी उर्जा बाहर नहीं जाकर भीतर देखने वाले को मिलने लगती है। और जब शरीर की क्रियाओं से शरीर में दबी पड़ी सारी उर्जा देखने वाले को, या साक्षी को मिल जाती है तो धीरे-धीरे दूसरा तल भाव हमारी पकड़ में आता है और भाव के पकड़ में आते ही क्रोध और ईर्ष्या में बहने वाली ऊर्जा देखने मात्र से हमारी ओर बहने लगती है।

       _जब शरीर की क्रियाओं और भावों की उर्जा साक्षी को मिलने लगती है तो तीसरे तल पर चल रहे विचार हमें अपने से दूर फिल्म की तरह चलते हुए दिखलाई पड़ने लगते हैं।_

         तीसरे तल पर हमें विचार अपने से दूर दिखाई पड़ने लगते हैं और धीरे-धीरे विचार लड़खड़ाने लगते हैं, गिरने लगते हैं। दो विचारों के बीच में खाली जगह दिखाई पड़ने लगती है और धीरे-धीरे हमारा विचार से निर्विचार यानि चेतन मन से अचेतन मन में प्रवेश होता चला जाता है। अचेतन में प्रवेश होते ही सपने विदा होने लगते हैं और हम नींद में भी जागे हुए रहते हैं।

जब हम नींद में भी जागे हुए रहते हैं तो धीरे-धीरे गहरी नींद में भी हम जागे हुए रहते हैं और हमारा अवचेतन मन में प्रवेश होता चला जाता है। 

      _अचेतन मन अनाहत चक्र का उपरी हिस्सा है- जहां पर स्वप्न चलते हैं और अवचेतन मन अनाहत चक्र का गहरा हिस्सा है- जहां पर उर्जा का भंडार है। जब हम गहरी नींद में अवचेतन मन में पूरी तरह से जाग जाते हैं तो हमारी पांचवें विशुद्धी चक्र यानि आत्मा में प्रवेश करने की यात्रा शुरू हो जाती है।_

       मणिपुर चक्र – चेतन मन से संबंधित है। अनाहत चक्र- अचेतन और अवचेतन मन से संबंधित है और विशुद्धी चक्र – आत्मा से संबंधित है। 

      _शरीर की क्रिया, भाव और विचारों के साक्षी होने से अचेतन में प्रवेश हो जाता है। लेकिन… यह एक दिन की बात नहीं है, इसे पूरे समय साधना होगा, संकल्प पूर्वक सतत साधना होगा तभी प्रवेश संभव है।_

     {चेतना विकास मिशन)

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