बढ़ते तलाक की समस्या का समाधान पारंपरिक भारतीय पारिवारिक मूल्यों में तलाशा जा सकता है। हमने परिवार के साथ समय बिताना कम कर दिया है। एक साथ भोजन करने और दिल से दिल की बातचीत करने का कोई विकल्प नहीं है, जहां परेशानियों व खुशियों का आदान-प्रदान होता है।
दंत चिकित्सक की कुर्सी बातचीत करने के लिए सबसे अच्छी जगह होती है, आपका मुंह खुला हुआ होता है और आपको जवाब देने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि आप ऐसा कर ही नहीं सकते। सौभाग्य से मेरे पास एक बातूनी दंत चिकित्सक है। यह युवा महिला विवाह बाजार में तब से है, जबसे मैं उसे जानती हूं। वह लगभग 35 वर्ष की है और विवाह बाजार पर उसकी बातचीत आमतौर पर प्रफुल्लित करने वाली होती है। लेकिन पिछली कुछ मुलाकातों (हां, मैं अक्सर दंत चिकित्सक के पास जाती हूं) में वह तलाकशुदा लोगों की बढ़ती संख्या के बारे में बताती रही है।
डेढ़ दशक पहले एक योग्य और शिक्षित युवा महिला, जिसने कभी शादी नहीं की हो, कभी तलाकशुदा लोगों की ओर देखती तक नहीं थी। निश्चित रूप से ऐसे लोग थे, पर बहुत कम थे। तलाकशुदा पुरुषों एवं महिलाओं के लिए फिर से जीवनसाथी तलाशना मुश्किल था, महिलाओं के लिए तो यह और भी चुनौतीपूर्ण था। मगर अब विवाह बाजार बदल चुका है, सभी इच्छुक विवाह बाजार में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं और अब तलाक को कलंक समझे जाने की प्रवृत्ति कम हो रही है।
शहरी इलाकों में तलाक अब सामान्य बात हो गई है, हालांकि लोग अब भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह अच्छी बात है या बुरी। उदारीकरण के बाद के युग में भारतीय समाज में नाटकीय बदलाव आए हैं, क्योंकि पारिवारिक इकाई में रिश्ते और लैंगिक भूमिकाएं भी विकसित हुई हैं। जिस भारतीय समाज में कभी तलाक के बारे में सुनने को नहीं मिलता था, वहां आंकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशकों में तलाक के मामलों में 350 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अपेक्षित रूप से बड़े शहरों में तलाक के मामलों में ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2014 से 2017 के बीच तलाक के मामलों में मुंबई में 40 फीसदी की और दिल्ली में 1990 से 2012 के बीच 36 फीसदी की वृद्धि हुई है। ये आंकड़े चिंताजनक हैं, क्योंकि देश में अब भी तलाक के मामले एक फीसदी के निचले स्तर पर हैं। हालांकि धीरे-धीरे इनमें वृद्धि हो रही है, जिससे भारतीय विवाह की स्थिरता की अवधारणा खतरे में है। वर्ष 2019 में दिल्ली में 60 फीसदी से अधिक तलाक की पहल महिलाओं ने की। इसके कई कारण हैं-उच्च साक्षरता दर, आर्थिक स्वतंत्रता और अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता ने महिलाओं को अपने जीवन और निर्णयों की जिम्मेदारी खुद लेने के लिए प्रेरित किया है।
शोध के मुताबिक, दिलचस्प बात यह है कि पारंपरिक विवाहों की तुलना में अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों में वैवाहिक विफलता की दर उच्च है। लेकिन इसकी सफलता एवं विफलता का अनुमान केवल आंकड़ों से नहीं लगा सकते। ऐसे कई कारक हैं, जो तलाक की बढ़ती प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं और महिला सशक्तीकरण के कदमों को तलाक दर के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि वह इस देश की महिलाओं एवं बेटियों से अन्याय के साथ-साथ एक गलत धारणा होगी।
आइए, देखते हैं कि वे कौन से कारण हैं, जो तलाक दर को प्रभावित करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 53 फीसदी तलाक की पहल 24 से 35 वर्ष के लोगों द्वारा होती है। जाहिर है कि पीढ़ीगत नजरिये में बदलाव हो रहा है। जैसे-जैसे दुनिया ऑनलाइन एक-दूसरे से जुड़ रही है, मानवीय रिश्ते और अधिक नाजुक हो गए हैं। ‘समझौता’ एक बुरा शब्द बन गया है, जबकि एक समय यह वैवाहिक जोड़ों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला गुण था। अब समझौते को विफलता माना जाता है। इसके अलावा, हनीमून स्थलों के साथ इंस्टाग्राम के लिए तैयार और फिल्टर की गई छवियां, गंतव्य शादियां, दुल्हन के पहनावे एक तरह की वैवाहिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देती हैं, जिससे वैवाहिक रिश्ते संबंधों के जुड़ाव की तुलना में उत्सव ज्यादा बन जाते हैं। ये सब चीजें युवा जोड़ों के समक्ष एक नई वास्तविकता प्रस्तुत करते हैं, जो स्थायी रिश्ते के लिए अस्थिर नींव प्रदान करता है।
पारिवारिक संरचना भी नाटकीय रूप से बदली है और नौकरी की जरूरतों के कारण घर से दूर जाने की मजबूरी ने परिवार में बुजुर्गों की भागीदारी लगभग समाप्त कर दी है। अब युवा अपने दम पर रिश्ते तय करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 15 भारतीय जोड़ों में से एक बांझपन से जूझ रहा है। हालांकि प्रजनन संबंधी उपचार में नाटकीय प्रगति हुई है, मगर यह बहुत महंगा विकल्प है। ज्यादातर जोड़े वित्तीय स्थिरता सहित कई कारणों से माता-पिता बनने में देरी कर रहे हैं। बच्चे जोड़ों के लिए दांपत्य संभालने और रिश्तों में स्थिरता प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण प्रेरणा होते हैं। पारिवारिक मूल्य और जुड़ाव अब भी भारतीय समाज को दूसरों से अलग करते हैं और तलाक के आंकड़े कम रखते हैं।
हालांकि तलाक का चलन बढ़ रहा है, लेकिन इसका समाधान पारंपरिक भारतीय पारिवारिक मूल्यों और उनसे मिलने वाली स्थिरता और सहयोग में तलाशा जा सकता है। हमने परिवार के साथ समय बिताना कम कर दिया है। एक साथ भोजन करने और दिल से दिल की बातचीत करने का कोई विकल्प नहीं है, जहां परस्पर सहयोग और परेशानियों व खुशियों का आदान-प्रदान होता है। रोजगार के लिए युवाओं का घर-परिवार से दूर जाना एक अन्य पहलू है, जिससे निपटने की जरूरत है। पिछले दशकों में छोटे शहरों में रोजगार के अवसरों का विस्तार हुआ है और कनेक्टिविटी में वृद्धि हुई है। अब लोग अपने घर के नजदीक रोजगार के अवसर पा सकते हैं, जिससे उन्हें काम और पारिवारिक प्रतिबद्धता के बीच संतुलन बनाने में मदद मिल सकती है।
हमें अपनी विचार प्रक्रिया को नया स्वरूप देना होगा और पश्चिमी जीवन-शैली के अंधानुकरण से दूर जाना होगा। हमें व्यक्तिगत सशक्तीकरण और पारिवारिक प्रतिबद्धता के बीच संतुलन बनाना होगा। एक समय पश्चिम ने व्यक्तिगत उत्कृष्टता का जश्न मनाया था और दुनिया के सामने आदर्श प्रस्तुत किया था, पर अब वह अपनी विफलता दर्शा रहा है, जिसमें किशोर उम्र में गर्भधारण, एकल अभिभावक वाले घर, स्कूलों में हिंसा, नशीले पदार्थों की लत जैसे मुद्दे शामिल हैं। यह सब कई कारणों से होता है, जिसमें परिवार का टूटना भी शामिल है। एक समाज के रूप में आगे बढ़ने के लिए रुककर एक कदम पीछे हटने का वक्त आ गया है।