प्रखर अरोड़ा
कई आस्थावान वेदों एवं उपनिषदों तथा छ: वैदिक दर्शनों के तत्व विवेचन के साथ पुराणों को भी आदिधर्म की रीढ़ और उतने ही उपयोगी मानते हैं। वे मानते हैं कि इन कथाओं के माध्यम से तत्वज्ञान की शिक्षा सामान्य जन (श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार वेद पढ़ने सुनने के अनधिकारी शूद्रों और स्त्रियों) को देने के उद्देश्य से ये रचे गए थे।
यह ज़रूर है कि पुराणों में कुछ राजवंशों का ब्योरा भी दर्ज है जो इतिहास लेखन में स्रोत-सामग्री का काम करता है। इनकी कुछ पुरातन कथाओं का सूत्र ऋग्वेद सहित अन्य संहिताओं में भी मिल जाएगा। किंतु अधिसंख्य कथाएं गल्पनुमा हैं जिनमें संभव असंभव की विभाजन रेखा तिरोहित हो जाती हैं।
इनको उसी अर्थ में मिथक कहा जा सकता है जिसमें इलियड और ओडिसी की मिथकीय कथाओं को। उस ज़माने में, जब मनोरंजन के साधन बहुत सीमित थे, इनका पठन-पाठन और श्रवण एक रिक्ति को भरने का काम करता रहा होगा। कुछ कथाओं में तत्वनिरूपण भी मिल जाएगा। किंतु अधिसंख्य कपोलकल्पित लगती हैं। यह ज़रूर है कि नृत्य, साहित्य, संगीत और मूर्तिकला में कच्चे माल की तरह इनका बहुत कलात्मक उपयोग हुआ है।
किंतु इनका अधिकांश वर्णाश्रम धर्म का पोषक है और अंधविश्वासों के अक्षय कोष का काम करता रहा है। हिंदू जनता पर आज भी इनका अमिट प्रभाव है।
प्राच्य विद्या के मूर्धन्य विद्वान भारतरत्न वामन पांडुरंग काणे पुराणों को पश्चिम के उपन्यासों की तर्ज़ पर लिखा गया रचनात्मक किंतु कल्पनाप्रसूत साहित्य मानते थे।
उदाहरण के लिए अप्सराओं की कथाएं। वे स्वर्ग या इंद्रलोक की परम सुंदरी महिलाएं हैं जो चिरयौवना हैं। इंद्र के आधिपत्य में रहती हैं। जब कोई मनुष्य पृथ्वीलोक में घोर तपस्या करता है तो इंद्र को असुरक्षा बोध सताने लगता है। उन्हें भय हो जाता है कि तपस्या के फलस्वरूप वह इंद्रासन हथिया लेगा और वे बेरोज़गार हो जाएंगे। लिहाज़ा, वे उसकी तपस्या भंग करने के लिए इन्हीं अप्सराओं का सदुपयोग करते हैं।
एक परम आस्थावान सनातनी के अनुसार ये अप्सराएं इन्द्रिय-आकर्षण के जनक विषयों की प्रतीक मात्र हैं, जिनका दमन तपस्या से हो सकता है। स्पष्ट है कि ऐसा मान पाने के लिए बहुत पावन क़िस्म की आस्था की ज़रूरत होती है। अप्सराएं स्थाई रूप से मृत्यु लोक में नहीं रहतीं किन्तु इन्द्रियों के प्रलोभन का स्थायित्व तो अनुभवजन्य है।
एक अप्सरा हैं मेनका। उन्हें इंद्र ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के मिशन पर पृथ्वीलोक भेज दिया। किन्तु वे स्वयं विश्वामित्र के प्रेमपाश में बंध गईं। उनके साथ रहने लगीं। विश्वामित्र से उन्होंने एक पुत्री शकुंतला को जन्म दिया। इंद्र कुपित हो गए। इंद्रासन छोड़कर आए और मेनका को हड़काया कि वापस स्वर्गलोक चलो वरना तुम्हें पत्थर की शिला बना देंगे।
बेचारी भयभीत होकर बेटी को विश्वामित्र के सहारे छोड़, स्वर्गलोक पधार गईं। विश्वामित्र ने भी उस बच्ची को कण्व ऋषि के आश्रम में छोड़ दिया। कण्व ऋषि ने अपनी बेटी की तरह शकुंतला का पालन-पोषण किया। दुष्यंत से उसका प्रेम हुआ और भरत नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे देश का नाम भारत पड़ा। इस कथा में विषयरूपी अप्सराओं के प्रति इंद्रियों के आकर्षण के दमन का रूपक सामान्य जन के लिए कितना शक्य और कितना उपयोगी होगा?
जब विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी उनके समक्ष इंद्रियों का दमन करने में असफल रहे तो सामान्य जन को कितनी प्रेरणा मिलेगी ?
एक और कथा राजा पुरूरवा और अप्सरा उर्वशी की है। इंद्र ने उर्वशी को किसी ऋषि की तपस्या भंग करने नहीं भेजा था। पराक्रमी पुरूरवा उन्हें जीतकर स्वर्गलोक से लाए थे। उनके साथ विवाह किया और उनसे कई पुत्र उत्पन्न किए। उसके बाद वे भी स्वर्ग वापस चली गईं। यहां तो तपस्या द्वारा इंद्रिय-विषयों को जीतने का कोई प्रसंग ही नहीं उठा।
विडंबना यह कि सामान्य जन (शूद्र और स्त्री जो वेद पढ़ने के अधिकारी नहीं) को तत्वज्ञान में दीक्षित करने के उद्देश्य से लिखे गए पुराणों में इस तरह के गूढ़ रूपक क्यों पिरोए गए ?
परंपरा कृष्णद्वैपायन व्यास को ही सभी पुराणों का रचयिता मानती है किन्तु श्रीमद्भागवत पुराण से लेकर स्कन्द पुराण और भविष्य पुराण तक के रचनाकाल में इतना अंतराल है, और भाषा व शिल्प में इतना वैविध्य कि सभी पुराण एक ही व्यास की रचना नहीं हो सकते।
कुछ विद्वानों का मानना है कि इन कथाओं को पौरोहित्य कर्म में लगे ब्राह्मणों ने मनमानी ढंग से अपने पेशे के हित में लिखा। अलौकिक तथा रसमयी गल्पों से भरी इन कथाओं में निहित नानाविध अंधविश्वास ब्राह्मणों का पौरोहित्य लाभकारी ढंग से चलाने के लिए भले उपयोगी रहा हो, ये वेदों और श्रुति साहित्य के तत्वज्ञान के विकल्प या पूरक नहीं हो सकते।
इनसे बस इतना हुआ कि मूर्ख से मूर्ख ब्राह्मण भी समाज में प्रतिष्ठा, विशेषाधिकार और दान दक्षिणा के योग्य माने जाने लगे और योग्य से योग्य शूद्र केवल द्विज सेवा से संतुष्ट रहने के लिए अनुकूलित हो गए। इस तरह वर्णव्यवस्था को दैवी विधान के रूप में स्वीकृति प्राप्त हो गई। लिहाज़ा वेदों के तत्वज्ञान से नि:सृत छः दर्शनों का उदात्त चिंतन व्यवहार में लुप्त हो गया।
आज एकमात्र लक्ष्य तो यही होना चाहिए कि सनातन धर्म अंधविश्वासों और पौराणिक कथाओं के घटाटोप से मुक्त, सार्वभौम और कल्याणकारी रूप में पुनर्प्रतिष्ठित हो। ध्रियते लोकोsनेन इति धर्म:। यह दर्शन और दार्शनिक विमर्श पर आधारित एक गतिमान परंपरा है, रिलिजन और मज़हब के अर्थ में “धर्म” नहीं। सनातन धर्म में कुछ भी ईश्वरीय वाणी नहीं है, सब कुछ पर प्रश्न उठाया जा सकता है, दर्शन ग्रंथों में बार बार उठाया गया है।
ईश्वर के अस्तित्व तक पर (कपिल का निरीश्वर सांख्य और मीमांसकों का कर्मकांड ईश्वरनिरपेक्ष है)। ऋग्वेद की “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” की अति उदार और समावेशी अवधारणा ही सनातन है, यही सत्य है, यही ऋत है। यही सनातन धर्म की आत्मा है जिसके प्रतिबिंब छ: दर्शनों में मिलते हैं, पौराणिक गल्पों में नहीं।
छहों दर्शनों का निचोड़ है वेदांत। नववेदांत उसी का आधुनिक रूप है जिसमें वर्ण और जाति के लिए कोई स्थान नहीं।
मनुष्य के स्तर पर ध्रियते लोकोsनेन इति धर्म: का एकमात्र तात्पर्य मानवता या सार्वभौम नैतिकता से है:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।
संक्षेप में :
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
[धर्म का सर्वस्व सुनो और सुनकर धारण भी करो। जो अपने प्रतिकूल है वैसा दूसरों के साथ न करो।]
बस, हो गया। पूजा-पाठ, नवधा भक्ति, शोडषोपचार, गीता, विष्णुसहस्रनाम, दुर्गासप्तशती का नियमित पाठ व्यर्थ है यदि हम धर्म के इस सर्वस्व की अवहेलना करते हैं।
नववेदांत क्वांटम मैकैनिक्स और कॉस्मोलॉजी की अद्यतन अवधारणा, कि संपूर्ण ब्रह्मांड की सूक्ष्मतम संरचना एक ही तत्व (एकरूप तरंगें या गतिमान तागे) से हुई है, से मेल खाता है।
कृत्रिम वर्ण व्यवस्था-जाति व्यवस्था सनातन धर्म का वह कलंक है जिसने इसके ज्ञानकांड की अतिशय उदात्त और अतिशय उदार परंपरा को व्यवहार में महज़ पाखंड का बायस बना दिया है।
यही व्यवस्था इसके पराभव का मुख्य कारण रही है। इस व्यवस्था से मुक्ति के बिना सनातन धर्म का कोई भविष्य नहीं।