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पूंजीवाद के पोषण और आमआवाम के शोषण का औजार है शेयर बाजार 

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       पुष्पा गुप्ता 

    शेयर बाज़ार वित्तीय बाज़ार का एक अंग है जो एक मायावी जंजाल प्रतीत होता है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे शैतान की खाला भी नहीं समझ सकती। सभी बड़े अखबारों का एक पन्ना वित्तीय बाज़ार की कारगुजारियों को ही समर्पित रहता है। समाचार चैनलों पर भी शेयरों के दामों की गतिविधियाँ मिनट-मिनट में अपडेट होती रहती हैं। निवेशकों की सेहत वित्तीय बाज़ार की सेहत से एकरूप होती है। 

     शेयरों के बाज़ार भावों के चढ़ने-गिरने का उनकी सेहत पर भी सीधा असर पड़ता है। बिना हाथ-पैर चलाये तुरन्त अमीर बन जाने की चाहत में लोग शेयर बाज़ार में पैसा लगाते हैं और आये दिन बर्बाद होते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि हर कोई कंगाल-बर्बाद ही होता है, कुछ बड़े खिलाड़ी भी रहते हैं जो मोटा पैसा ले उड़ते हैं। यह सब कुछ कैसे घटित होता है और कैसे चन्द मिनटों में ही बाज़ार से अरबों रुपये की पूँजी छूमन्तर हो जाती है और लोग सड़कों पर आ जाते हैं, यह जानना काफ़ी दिलचस्प है।

पूरा वित्तीय तन्त्र और विशेष तौर पर शेयर बाज़ार कैसे काम करता हैं इसे एक लेख में समेटना सम्भव नहीं है। इसलिए हम कोशिश करेंगे कि इसके सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की जाये। आज वित्तीय पूँजी का अभूतपूर्व विस्तार हो चुका है और विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाएँ एक-दूसरे के साथ बहुत मजबूती से जुड़ चुकी हैं। आज के दौर में किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तन पूरे विश्व पर अपना प्रभाव डालते हैं। विश्व भर के शेयर बाज़ार भी काफ़ी हद तक एक-दूसरे से जुड़ चुके हैं। 

      किसी देश के शेयर बाज़ार में केवल उस देश के निवेशकों की ही पूँजी नहीं लगी होती बल्कि विश्व भर के निवेशकों की पूँजी लगी होती है। मुनाफ़े की तलाश में पूँजी विश्व भर का चक्कर लगाती रहती है और इसकी गति अविश्वस्नीय है। कम्प्यूटर का एक बटन (की) दबाने भर की देर है तुरन्त ही अरबों की पूँजी एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाती है। पिछले वर्ष चीन के शेयर बाज़ारों ने बड़ी संख्या में निवेशकों को सड़कों पर ला दिया था। इसका असर विश्व भर में पड़ा और भारत में भी शेयर बाज़ार इससे अछूते नहीं रहे।

      भारत में पिछले वर्ष शेयर बाज़ार ने निवेशकों को कई बड़े झटके दिये। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का सूचकांक सेंसेक्स पिछले वर्ष मार्च में 30,000 का आँकड़ा छूने वाला था लेकिन उसके बाद महीने दर महीने यह आँकड़ा गिरता गया। 24 अगस्त को सेंसेक्स 1,625 अंक गिर गया और इस गिरावट से 7 लाख करोड़ रुपये की पूँजी छूमन्तर हो गयी जिसमें से 4 लाख करोड़ की पूँजी तो केवल एक घण्टे के भीतर ही स्वाहा हो गयी। सितम्बर 2015 में सेंसेक्स 25,000 से नीचे चला गया और 11 फ़रवरी 2016 के दिन तो यह 23,000 से भी नीचे चला गया।

      नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के सूचकांक निफ्टी की भी गिरावट लगातार जारी रही। फ़रवरी के अन्त में अरुण जेटली के द्वारा बजट पेश करने के बाद ही शेयर बाज़ार कुछ उबरता हुआ नजर आया। जेटली साहब ने निवेशकों से न घबराने की अपील की और एक बार फिर भारतीय बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों के पसन्दीदा जुमले ‘‘फ़ण्डामेण्टल्स ऑफ़ अवर इकॉनोमी आर स्ट्रांग’’ को दोहराया। जेटली चाहे निवेशकों से कितने भी वायदे कर लें पर आने वाला समय निश्चित रूप से निवेशकों को फिर से झटके देगा इस बात में कोई शक नहीं। ऐसा किस आधार पर कहा जा रहा है वह हम लेख में आगे चलकर देखेंगे। फ़िलहाल इस जंजाल को समझने का प्रयास करते हुए हम कुछ बुनियादी बातों से शुरू करेंगे।

शेयर बाज़ार एक विराट जुआघर है! यह किस कारण से कहा जाता है? इसके पीछे जो कारण हैं उन्हें हम विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के पूँजी संचय की प्रक्रिया में आने वाले बदलावों के आधार पर समझ सकते हैं। सरलीकरण का थोड़ा सा खतरा उठाते हुए हम इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का सबसे पहला पैमाना वास्तविक उत्पादन होता है।

       मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी संचय की प्रक्रिया का शानदार विश्लेषण किया है। पूँजीवादी व्यवस्था में एक पूँजीपति का मकसद अधिक से अधिक पूँजी संचय करना होता है। वह उत्पादन में पैसा लगाता है ताकि वह लगाये गये पैसे से अधिक पैसा बना सके। मार्क्स ने इसे बेहद सरल सूत्र के ज़रिये समझाया है। मार्क्स ने इस प्रक्रिया के लिए सूत्र दिया था मुद्रा-माल-मुद्रा। यानी कि एक पूँजीपति मुद्रा से शुरू करता है, माल का उत्पादन करवाता है और लगायी गयी मुद्रा से बड़ी मुद्रा प्राप्त करने की वह जीतोड़ कोशिश करता है। इस तरह वह माल का उत्पादन उपभोग के लिए नहीं बल्कि पैसे से और अधिक पैसा बनाने के लिए करता है। लेकिन पूँजीवादी उत्पादन के अपने अन्तरविरोध भी हैं। चूँकि माल का उत्पादन पूँजी संचय के लिए किया जाता है, समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर नहीं इसलिए उत्पादन प्रक्रिया में अराजकता स्वभाविक है। 

       हर पूँजीपति चाहता है कि वह अधिक से अधिक माल का उत्पादन करके अधिक से अधिक पूँजी संचय करे। अधिक मुनाफ़ा कमाने की हवस में वह मज़दूरों की अधिक से अधिक श्रम शक्ति निचोड़ने का प्रयास करता है और उनके श्रम का जमकर शोषण करता है। एक तरफ़ बहुसंख्यक सर्वहारा आबादी की हालत बद से बदतर होती जाती है तो दूसरी ओर पूँजी का अम्बार खड़ा होता जाता है। लोग बेरोज़गार होते जाते हैं। हालत यह हो जाती है कि जिस माल का उत्पादन होता है उसे खरीददार नहीं मिल पाते। जब पहले ही लोग भयंकर ग़रीबी में जी रहे होते हैं तो वे किस प्रकार बाज़ार से माल खरीद सकते हैं? नतीजा – बाज़ार मालों से पट जाते हैं। इसे अतिउत्पादन कहा जाता है। यह वास्तव में अतिउत्पादन नहीं होता बल्कि इस वजह से अतिउत्पादन होता है कि ज़रूरतमन्द लोग बाज़ार से उसे खरीद नहीं सकते। ऐसे में ज़ाहिर है कि पूँजीपति के मुनाफ़े की दर भी गिरती जाती है। 

      अब वह और अधिक पूँजी संचय कैसे करे? उत्पादन में तो पहले ही मन्दी चल रही होती है, पहले से ही माल बाज़ारों में पड़ा हुआ होता है। पूँजीपति अपनी पूँजी को कहाँ निवेश करे? मुनाफ़े की हवस के चलते पूँजीपति चाहे मजदूरों को उत्पादन की प्रक्रिया में कितना ही क्यों न लूट लें, उन्हें इस व्यवस्था के अन्तरविरोधों से तब रूबरू होना ही पड़ता है जब वही मज़दूर उपभोक्ता के रूप में अपने ही बनाये माल को बाज़ार से खरीदने में अक्षम हो जाते हैं। इस तरह से उत्पादन के क्षेत्र में होने वाले मुनाफ़े की एक सीमा है।

अपना मुनाफ़ा जारी रखने के लिए पूँजीपति सट्टा बाज़ार में पूँजी झोंकना शुरू करते हैं चूँकि उत्पादन का क्षेत्र पहले ही संतृप्त हो चुका होता है। सट्टा बाज़ार का आज अभूतपूर्व रूप से विस्तार हो चुका है। यह बाज़ार वैसे तो पूँजीवाद के जन्म के साथ ही अस्तित्व में आया था लेकिन उत्पादक अर्थव्यवस्था के मुकाबले यह बेहद छोटा था। 1970 के दशक के बाद से लेकर आज तक इसका इतना विस्तार हो चुका है कि कहा जा सकता है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था इसके सामने ऐसी रह गयी है जैसे हाथी के सामने चींटी।

       इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विश्व भर में विदेशी मुद्रा विनिमय की एक दिन की मात्रा करीब 5 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर होती है जबकि विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका का एक वर्ष का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग 18 ट्रिलियन डॉलर है। यानी कि विदेशी मुद्रा विनिमय के बाज़ार में केवल चार दिनों में अमेरिका की समूची अर्थव्यवस्था से अधिक की पूँजी इधर से उधर हो जाती है। और फिर विदेशी मुद्रा विनिमय तो जुआघर अर्थव्यवस्था का एक हिस्सामात्रा   ही है। पूरी जुआघर अर्थव्यवस्था से वास्तविक अर्थव्यवस्था की तुलना करने पर और भी अधिक चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। वित्तीय बाज़ार में विदेशी मुद्रा विनिमय बाज़ार के साथ ही प्रतिभूति बाज़ार (सिक्योरिटीज् मार्केट) भी शामिल है। सरकारी बॉण्ड, वित्तीय व औद्योगिक संस्थाओं द्वारा जारी बॉण्ड, बैंकों के द्वारा जारी बॉण्ड, अलग-अलग संस्थाओं द्वारा जारी शेयर, जमा प्रमाणपत्र, ट्रेजरी बिल, डेरिवेटिव्ज (फ्यूचर्स, ऑप्शन्स, स्वैप्स, फ़ॉरवर्ड्स) व और भी तरह-तरह के जटिल वित्तीय प्रपत्र प्रतिभूति बाज़ार के अन्तर्गत आ जाते हैं। 

       इसके साथ ही वस्तुओं व सम्पत्तियों (रियल एस्टेट) का बाज़ार भी जुआघर अर्थव्यवस्था से अछूता नहीं रहता और इसमें भी सट्टेबाजी बड़े पैमाने पर जारी रहती है। कुल मिलाकर जुआघर अर्थव्यवस्था एक बड़ा जंजाल बन जाती है जो वास्तविक अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व हासिल कर लेती है। पूँजीपति अपनी पूँजी को इसी जुआघर अर्थव्यवस्था में लगाता है और बिना कोई उत्पादन किये ही मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में रहता है। जहाँ वास्तविक अर्थव्यवस्था में पूँजीपति वास्तविक उत्पादन होने पर ही मुनाफ़ा कमाता है, वहीं सट्टाबाज़ार में वह एक सुई तक का निर्माण किये बगैर पूँजी को बाज़ार में झोंक कर मुनाफ़ा कमाता है। मध्य वर्ग का भी एक हिस्सा बैठे-बैठे मोटा पैसा कमाने के चक्कर में जुए में अपना हाथ आजमाता है और आये दिन इस वर्ग के अनेकों लोग दिवालिया होते रहते हैं।

सट्टेबाजी का मूल यह है कि किसी भी वित्तीय सम्पत्ति (फ़ाइनेंशियल एसेट – चाहे वह शेयर हो, बॉण्ड हो या अन्य किसी भी प्रकार की वित्तीय सम्पत्ति हो) या भौतिक सम्पत्ति की कीमत उसके वास्तविक मूल्य या कीमत से कहीं ऊँची कीमत पर पहुँच जाती है। इसे हम एक शेयर के उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। शेयर वास्तव में कम्पनी द्वारा शेयरधारक के साथ किये हुए करार का एक प्रमाणपत्र होता है जिसके अनुसार कम्पनी को होने वाले मुनाफ़े के हिसाब से शेयरधारक को शेयर पर लाभांश (डिविडेण्ड) मिलता है। मान लीजिये कि किसी कम्पनी ने बाज़ार में अपने शेयर जारी किये व एक शेयर की कीमत 100 रुपये है। 

      यदि उस कम्पनी की कीमत बाज़ार में 1 करोड़ है और उसे एक वर्ष में 10 प्रतिशत मुनाफ़ा होने से उसकी कीमत 1 करोड़ 10 लाख हो गयी है तो शेयर धारक को अपने 100 रुपये के शेयर पर 10 रुपये का लाभांश प्राप्त होगा। लेकिन यह कहानी इतनी सीधी-सरल नहीं रहती। यह केवल प्राथमिक या मुख्य बाज़ार (प्राइमरी मार्केट) की बात है। यह परिघटना तो पूँजीवाद की शुरुआत से ही चली आ रही थी जहाँ लोग कम्पनियों के कुछ शेयर खरीद लेते थे व लाभांश के ऊपर जीते थे। कुल मिलाकर शेयर बाज़ार उत्पादक अर्थव्यवस्था के पीछे-पीछे चलता था। आज कहानी बदल गयी है। असली सट्टेबाजी प्राथमिक बाज़ार के बाद द्वितीयक बाज़ार (सेकेण्डरी मार्केट) में चालू होती है। प्राथमिक बाज़ार में जहाँ एक कम्पनी शेयर बेचती है वहीं द्वितीयक बाज़ार में शेयरधारक अपने शेयरों की ब्रिक्री करता है। अधिकतर वित्तीय सम्पत्तियाँ हस्तान्तरणीय होती हैं व धारक उन्हें किसी को भी बेच सकता है। 

     यहीं से पूरे जंजाल की बुनाई शुरू हो जाती है। शेयर को हस्तान्तरित करने की सुविधा होने से अब लोग कम्पनी से शेयर लाभांश कमाने के लिए नहीं खरीदते बल्कि उसे थोड़े महँगे दामों में बेचकर तुरन्त मुनाफ़ा कमाने के लिए खरीदते हैं। मान लिया जाये कि किसी शेयर का अंकित मूल्य (फ़ेस वैल्यू) 100 रुपये है तो उसे इसका मालिक 105 या 110 रुपये में खरीदने वाले ग्राहक को बेच देता है। अगला ग्राहक भी शेयरों को इसीलिए खरीदता है ताकि अन्य ग्राहक को महँगे दामों में बेच सके। इस तरह यह श्रृंखला लगातार चलती रहती है और शेयर का बाज़ार भाव उसपर अंकित मूल्य से कई गुना ज़्यादा  बढ़ जाता है। अन्त में शेयर पर मिलने वाला लाभांश तो उसी अनुपात में ही रहेगा जितना कम्पनी का मुनाफ़ा या पूँजी बढ़ेगी। 

      लेकिन होता यह है कि कम्पनी की वास्तविक पूँजी तो उतनी ही रहती है लेकिन शेयरों के दाम चढ़ जाते हैं। अब यदि आखि़री ग्राहक को कोई खरीददार न मिले तब क्या होगा? होगा यह कि शेयरों के फ़ूले हुए दाम अपने वास्तविक मूल्य तक पिचक जायेंगें या उससे भी नीचे आ जायेंगें। इसी कारण से शेयर बाज़ार में लगी पूँजी को आभासी पूँजी या फिर उड़नछू पूँजी कहते हैं। शेयरों व अन्य वित्तीय परिसम्पत्तियों के दाम बाज़ार में गुब्बारे की तरह फ़ूलने लगते हैं और जब ये गुब्बारा काफ़ी फ़ूल चुका होता है तो इसका फ़टना निश्चित हो जाता है। शेयरों की कीमतें अक्सर स्वतःस्फ़ूर्त तरीके से नहीं बढ़ती हैं बल्कि कुछ बड़े खिलाड़ियों द्वारा बढ़ायी जाती हैं। शेयर बाज़ार की चाल को बदलने के लिए ज़रूरी है कि इन खिलाड़ियों के पास बड़ी मात्रा में पूँजी हो। ये किसी कम्पनी के शेयरों के दाम चढ़ाने के लिए ऊँची कीमतों पर शेयर की खरीददारी करने लगते हैं। देखा-देखी में आम लोगों के बीच भी इन शेयरों की माँग बढ़ने लगती है और फ़लस्वरूप शेयरों के दाम और अधिक बढ़ने लगते हैं। 

      जब पर्याप्त माँग पैदा हो चुकी होती है तो ये बड़े सटोरिये अपने शेयरों को समय रहते बढ़े हुए दामों पर बेचकर निकल भागते हैं। अब इन शेयरों की कीमत भी गिरने लगती है और जिन लोगों ने बढ़े हुए दामों पर शेयर खरीदे थे, उनकी पूँजी डूब जाती है। शेयर बाज़ार के सटोरिये व बड़े दलाल अनेक तिकड़में भिड़ाकर मुनाफ़ा पीटते हैं। शॉर्ट सेलिंग, इनसाइडर ट्रेडिंग, सर्कुलर ट्रेडिंग जैसे अनेक तरीकों से ये बाज़ार को अस्थिर बना देते हैं और उस अस्थिरता का फ़ायदा उठाते हैं। शॉर्ट सेलिंग के ज़रिये बड़े दलाल उन शेयरों को भी बेच देते हैं जो दरअसल उनके होते ही नहीं। शेयर बाज़ार में शेयरों को उधार लेने की भी सुविधा होती है। बड़े दलाल उधार के शेयरों को तब बेचने लगते हैं जब बाज़ार नीचे जा रहा होता है ताकि बाज़ार के पर्याप्त गिर जाने पर इन शेयरों को दोबारा कम दामों पर खरीदा जा सके। इस अन्तर से वे मोटा पैसा ले उड़ते हैं। इनसाइडर ट्रेडिंग ऐसे बड़े दलाल करते हैं जिनकी बड़ी कम्पनियों के प्रबन्धकों सांठ-गांठ होती है। 

      शेयर बाज़ार में किसी खास कम्पनी के शेयरों में भविष्य में आने वाले परिवर्तनों के बारे में इन्हें गुप्त सूचना मिलती रहती है। मिसाल के तौर पर यदि दलाल को यह गुप्त सूचना पता चल जाये कि भविष्य में कोई अच्छी साख रखने वाली कम्पनी (जिसके शेयरों की कीमत बाज़ार में काफ़ी ऊँची है), किसी छोटी कम्पनी का अधिग्रहण करने वाली है (जिसके शेयरों की कीमत बाज़ार में कम है), तब दलाल इस सूचना का फ़ायदा उठाते हुए छोटी कम्पनी के शेयरों को मौजूदा कम कीमत पर खरीद लेते हैं ताकि भविष्य में अधिग्रहण के बाद उन शेयरों का दाम बढ़ने पर वह उन्हें महँगे दामों पर बेच सकें। शेयर बाज़ार में अन्य और भी कई किस्म की तिकड़में शेयर बाज़ार के बड़े दलाल भिड़ाते रहते हैं बहरहाल इन सभी पर चर्चा करना यहाँ सम्भव नहीं है।

जब शेयर धड़ाधड़ बिकते हैं और बाज़ार में खरीददार काफ़ी मात्रा में मौजूद होते हैं तो कहा जाता है कि बाज़ार में पर्याप्त तरलता (लिक्विडिटी) है। लेकिन एक बार जब यह गुब्बारा या बुलबुला फ़ूट जाता है तो सभी कम से कम नुकसान उठाने के लिए अपने शेयरों को बेचकर निकलना चाहते हैं। इस प्रकार बेचने वाले खरीदने वालों से अधिक हो जाते हैं और शेयरों के दाम तीव्र गति से नीचे आते हैं। 

      बाज़ार में तरलता की कमी आ जाती है और शेयर बाज़ार के सूचकांक गिरने लगते हैं। इसी प्रक्रिया में लाखों करोड़ रुपये की पूँजी बाज़ार से गायब हो जाती है क्योंकि यह वास्तविक पूँजी थी ही नहीं व केवल सट्टेबाजी के फ़लस्वरूप काफ़ी बड़ी नज़र आने लगी थी। इसी तरह से सभी वित्तीय परिसम्पत्तियों पर सट्टेबाजी होती है। यहाँ तक कि खाद्य पदार्थों का बाज़ार भी सट्टेबाजी से अछूता नहीं रह पाता। दालों व अन्य खाद्य पदार्थों के दामों में पिछले कुछ समय में जो उछाल आया है उसमें भी सट्टेबाजी की अहम भूमिका है।

सट्टेबाजी के कारण ही शेयरों व अन्य वित्तीय परिसम्पत्तियों के बाज़ारों के सूचकांक लगातार चढ़ते रहते हैं जबकि वास्तविक अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवर में फ़ँसी रहती है। लेकिन वास्तविक अर्थव्यवस्था ही समाज का आधार होती है इसलिए समय-समय पर सट्टेबाजी के कारण पैदा हुए बुलबुले फ़ूटते रहते हैं। शेयर बाज़ार के सूचकांक वास्तविक अर्थव्यवस्था की सेहत के द्योतक नहीं होते। वे केवल यही बताते हैं कि आभासी पूँजी किस दर से फ़ूल रही है। पिछले दशक का अमेरिका का सबप्राइम संकट भी एक बड़े बुलबुले के फ़टने का ही परिणाम था। यह आवासीय बाज़ार का बुलबुला था और जब यह फटा तो पूरे संसार में हाहाकार मच गया था। पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था एक भीषण मन्दी की चपेट में चली गयी जिससे वह अभी तक नहीं उबर पायी है। मन्दी से बाहर निकलने के लिए पूँजीपति बुलबुलों का निर्माण करते हैं लेकिन यह एक ऐसा दुष्चक्र साबित होता है जो बुलबुले के फ़ूटने पर अर्थव्यवस्था को पहले से भी अधिक मन्दी की ओर ले जाता है।

      सबप्राइम ऋण का बुलबुला जब फूटा तो लगभग 5 ट्रिलियन डॉलर की पूँजी गायब हो गयी। यह रकम कितनी बड़ी थी, इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है भारत का जीडीपी लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर है। यानी कि भारत के जीडीपी से ढाई गुणा ज़्यादा  पूँजी उड़नछू हो गयी। अकेले अमेरिका में ही 80 लाख लोगों को अपना रोज़गार गँवाना पड़ा था और लगभग 60 लाख लोग बेघर हो गये थे। देखा जा सकता है कि बुलबुलों का निर्माण करने से पूँजीवाद के अन्तरविरोध और अधिक मुखर होकर सामने आते हैं। हमेशा-हमेशा के लिए संकट या मन्दी से बचे रहने का पूँजीवाद के भीतर कोई रास्ता नहीं है।

वित्तीय बाज़ार के इस पूरे खेल में बैंकों की एक बड़ी भूमिका बनती है, कारण कि यह पूरा खेल बैंकों से उधार ली गयी रकम के दम पर ही चलता है। बैंक खुद आज वित्तीय बाज़ार के बड़े खिलाड़ी हो गये हैं। बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों पर भी सट्टेबाजी होती है। बैंक जहाँ पहले इस बात को सुनिश्चित करने पर ही ऋण देते थे कि जिस व्यक्ति को ऋण दिया जा रहा है वह भविष्य में अपना कर्ज चुका देगा वहीं आज बैंक खुले हाथों से कर्ज बाँटते हैं। ऐसा इसलिए है कि बैंक अपने द्वारा दिये गये ऋण को एक वित्तीय सम्पत्ति बनाकर सट्टाबाज़ार में उतार कर मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में रहते हैं। यह बात आज काफ़ी पुरानी हो गयी है कि बैंकों का मुख्य मुनाफ़ा कर्ज दी गयी रकम से आने वाले ब्याज व जमाकर्ताओं को दिये जाने वाले ब्याज के अन्तर से ही आता है। 

     बड़े बैंक अपना ऋण वसूलने का अधिकार दूसरे छोटे बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थाओं को बेच देते हैं और फिर इन पर भी सट्टेबाजी चलती है। आम तौर पर ऋण वसूलने के अधिकारों के पैकेज बना कर बेचे जाते हैं। ये पैकेज इस तरह से बनाये जाते हैं कि इनमें कुछ अच्छे व कुछ खराब ऋणों (वे ऋण जिनके चुकाये जाने की सम्भावना कम होती है) को इस तरह मिलाया जाता है कि किसी को पता नहीं होता कि इनके भीतर क्या छिपा है। अलग-अलग वित्तीय एजेंसियाँ जो वित्तीय परिसम्पत्तियों को रेटिंग देने का काम करती हैं, इन ऋण पैकेजों को अच्छी रेटिंग देती है जिसके कारण वित्तीय बाज़ार में इनकी साख बढ़ जाती है लेकिन वास्तव में इनके भीतर जो वित्तीय कचरा होता है वह जब सामने आता है तो चारों ओर तबाही मच जाती है। 

      अमेरिका के सबप्राइम ऋण संकट के पीछे इन ऋण पैकेजों, जिनमें वित्तीय कचरा भरा हुआ था, की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इन्हें सीडीओ (कॉलेटरल डेट ऑब्लिगेशन) का नाम दिया गया था। इसके अलावा बैंक वित्तीय बाज़ार में निवेश करने वाले बड़े खिलाड़ियों को लगातार कर्ज मुहैया कराते हैं। ये बैंक खुद भी बाज़ार में बड़े निवेशकों की भूमिका में मौजूद रहते हैं। विदेशी मुद्रा बाज़ार तो पूरा का पूरा बैंकों के दम पर ही चलता है या यह कह लीजिये कि बड़े निवेशक व वाणिज्यिक बैंक ही इस कारोबार को संचालित करते हैं।

बैंक पूरी वित्तीय व्यवस्था के केन्द्र में रहते हैं। वित्तीय बाज़ार में बैंकों की भूमिका का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यदि विदेशी बैंक अपनी ब्याज दर बढ़ा देते हैं तो भारत का शेयर बाज़ार लुढ़कने लगता है। दरअसल वित्तीय बाज़ार में जो पूरा खेल खेला जाता है उसे कुछ बड़े खिलाड़ी संचालित करते हैं। भारत के शेयर बाज़ार में सबसे बड़ी हिस्सेदारी विदेशी संस्थागत निवेशकों की है। ये निवेशक हेज फ़ण्ड्स, पेंशन फ़ण्ड्स, म्युचुअल फ़ण्ड्स आदि जैसे कई माध्यमों से शेयर बाज़ार में निवेश करते हैं और अविश्वसनीय मुनाफ़ा कमाते हैं। आम तौर पर सभी निवेशकों को भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी – सिक्योरिटीज एण्ड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इण्डिया) से पंजीकरण कराना होता है। 

       सेबी ऐसा निवेशकों को विनियमित (रेग्युलेट) करने के लिए करता है ताकि बाज़ार में गोरखधन्धा न हो; वैसे यह अलग बात है कि गोरखधन्धे के बाज़ार में गोरखधन्धा नहीं होगा तो फिर क्या होगा? इन विदेशी संस्थागत निवेशकों को विनियमित करना बेहद मुश्किल होता है। ये विदेशी संस्थागत निवेशक कितनी ताकत रखते हैं इसे हेजफ़ण्ड्स के उदाहरण से समझा जा सकता है। हेजफ़ण्ड्स का मकसद तुरन्त मुनाफ़ा कमाना होता है इसलिए ये जहाँ अधिक फ़ायदा देखते हैं उसी वित्तीय परिसम्पत्ति में निवेश करते हैं। हेज़ एण्ड स्वैप, शॉर्ट सेंलिग, फ्यूचर्स आदि जैसे बेहद जोखिम भरे निवेश करते हैं। इनमें मुख्य रूप से बेहद अमीर लोगों का पैसा लगा होता है जिन्हें ‘हाई नेट वर्थ इण्डिविजुअल्स’ कहा जाता है। आम निवेशक ‘हेज़ फ़ण्ड्स’ के जरिये अपना पैसा निवेश नहीं कर सकते। हेज़ फ़ण्ड को संचालित करने वाले प्रबन्धक हेज़फ़ण्ड में निवेश करने वालों से मोटी फ़ीस वसूलते हैं। ये ‘पी-नोट्स’ (पर्टिसिपेटरी नोट्स)भी जारी करते हैं। 

      ‘पी-नोट्स’ ऐसे निवेशकों को जारी किये जाते हैं जो पाबन्दी अथवा विनियमन के कारण बाज़ार में निवेश नहीं कर सकते। जिन लोगों को ‘पी-नोट्स’ जारी किये जाते हैं, उनकी पहचान गुप्त रखी जाती है। भारतीय शेयर बाज़ार में पंजीकृत कोई ‘हेज़ फ़ण्ड’ इन ‘पी-नोट्स’ को जारी कर सकता है। ‘पी-एन’ के उपकरण के माध्यम से बेहद जोखिम भरे निवेश किये जाते हैं जो बाज़ार को अस्थिर करने की खासी ताकत रखते हैं। ऊपर से इन ‘पी-नोट्स’ के मालिक भी बदलते रहते हैं क्योंकि एक वित्तीय उपकरण के रूप में इसे शेयरों की तरह ही किसी दूसरे निवेशक को बेचा जा सकता है। किसी भी वित्तीय संस्था के लिए इन्हें ट्रैक कर पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। ये मौका मिलते ही करोड़ों की पूँजी बाज़ार से निकालकर चम्पत हो जाते हैं। क्योंकि इनकी पहचान भी गुप्त रहती है, इसलिए इनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर पाता। 2008 में जो शेयर बाज़ार विध्वंस हुआ उसके लिये ये ‘पी-नोट्स’ ही मुख्य रूप से ज़िम्मेदार थे। उस वक्त भारत में पूरे विदेशी संस्थागत निवेश का लगभग 50-52 फ़ीसदी निवेश ‘पी-नोट्स’ के ज़रिये ही किया जा रहा था।

      इनके इस खतरनाक चरित्र को देखते हुए ही 2008 के बाद ‘पी-नोट्स’ पर थोड़ी पाबन्दी लगी और आज भारत में पूरे विदेशी संस्थागत निवेश का लगभग 15 फ़ीसदी निवेश ही इनके ज़रिये होता है। इसके बावजूद भी ‘पी-नोट्स’ द्वारा 2-5 लाख करोड़ से अधिक की पूँजी भारत के सट्टा बाज़ार में सक्रिय है जो बाज़ार को अस्थिर करने की जबरदस्त ताकत रखती है।

हेज़ फ़ण्ड्स के अलावा अन्य विदेशी संस्थागत निवेशक भी बाज़ार को अस्थिर करने की अच्छी-खासी ताकत रखते हैं। ये विदेशी संस्थागत निवेशक ‘इक्विटी’ (आम शेयर) व अन्य वित्तीय परिसम्पत्तियों के साथ-साथ कर्ज के उपकरणों में भी निवेश करते हैं। कर्ज के उपकरण मुख्य तौर पर सरकार अथवा बैंकों द्वारा जारी किये गये बॉण्ड होते हैं जिनपर बॉण्ड खरीदने वाले को ब्याज मिलता है। जब सरकार अथवा बैंक निवेशकों से कर्ज लेते हैं तब वह बदले में उन्हें बॉण्ड जारी करते हैं। ये बॉण्ड भी बाज़ार में आते ही सट्टेबाजी के उपकरण बन जाते हैं और इनपर भी सट्टेबाजी शुरू हो जाती है। बॉण्ड बाज़ार में अपनी कीमत से अधिक कीमत पर बिकने लगते हैं और हर खरीददार इन्हें भी इसी मकसद से खरीदता है कि इन्हें आगे किसी को महँगी कीमत पर बेच देगा। विदेशी संस्थागत निवेशक विदेशी बैंकों से बेहद सस्ती दरों पर कर्ज लेते हैं और फिर सस्ते कर्ज के दम पर भारत जैसे बाज़ारों के वित्तीय बाज़ार में पूँजी की बाढ़ ला देते हैं। इससे बाज़ार में तरलता बढ़ जाती है और बाज़ार में शेयरों व बॉण्डों के दाम फ़ूलने लगते हैं।

        थोड़ा सा खतरा भाँपते ही ये निवेशक बड़ी मात्रा में बाज़ार से पूँजी निकालकर चम्पत हो जाते हैं। इसी वर्ष 1 जनवरी से 5 फ़रवरी के बीच ही विदेशी संस्थागत निवेशक भारत के वित्तीय बाज़ार से लगभग 2 बिलियन डॉलर (12,775 करोड़ रुपये) निकालकर फ़ुर्र हो गये। इसी कारण जनवरी और फ़रवरी में शेयर बाज़ार के सूचकांक लगातार गिरते रहे। अफ़रा-तफ़री के आलम में शेयर बाज़ार में निवेशकों के उत्साह को कोई भी कारण कम कर सकता है। निवेशकों को खतरे का थोड़ा भी आभास होता है तो वे तुरन्त अपनी परिसम्पत्तियाँ बेचकर भागने लगते हैं। इस बार जो कारण था वह मुख्य रूप से कॉरपोरेट घरानों द्वारा बैंकों का 1-14 लाख करोड़ रुपया डकारे जाने के कारण निवेशकों में पैदा हुआ डर था। हम पहले ही बता चुके हैं कि बैंकों की परिसम्पत्तियों पर भी वित्तीय बाज़ार में सट्टेबाजी चलती है.

       इसलिए निवेशक बैंकों की परिसम्पत्तियों को जल्दी से जल्दी बेचकर अपनी जान बचाकर भागने में लग गये। फ़लस्वरूप बाज़ार में तरलता कम हो गयी और शेयर बाज़ार के सूचकांक तेजी से नीचे आने लगे। शेयर बाज़ार के सूचकांकों के चढ़ने-गिरने के कारणों का कोई सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि तात्कालिक गिरावट किसी भी कारण से आ सकती है। मिसाल के तौर पर यदि विदेशी बैंक जिनके सस्ते कर्ज के दम पर विदेशी संस्थागत निवेशक भारत जैसे बाज़ारों में निवेश करते हैं, अपनी ब्याज दरों को बढ़ा देते हैं तब भी शेयर बाज़ार में खलबली मच सकती है और यदि किसी अन्य देश में कोई वित्तीय बुलबुला फ़ूट जाये तब भी विश्व भर के शेयर बाज़ारों में उतार-चढ़ाव आ सकते हैं। हाल ही में चीन के शेयर बाज़ार के ढहने पर भी भारत के शेयर बाज़ार पर बड़ा असर पड़ा था। किसी बड़े घोटाले का पर्दाफ़ाश होने पर भी शेयर बाज़ार प्रभावित हो सकता है। कुल मिलाकर कोई भी छोटा-बड़ा आर्थिक-राजनीतिक कारण बाज़ार के इस गोरखधन्धे में अस्थिरता पैदा कर सकता है।

अधिक मुनाफ़े के लिए वित्तीय बाज़ार में लगातार जटिल से जटिल निवेश के उपकरण विकसित किये जाते हैं। आज सबसे अधिक जोखिम भरे निवेश ‘डेरिवेटिव’ (व्युत्पत्ति) उपकरणों के जरिये किये जाते हैं। ‘पी-नोट्स’ जिसका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं, भी एक किस्म का व्युत्पत्ति उपकरण ही होता है। ‘डेरिवेटिव’ बाज़ार वित्तीय बाज़ार का आज मुख्य अंग बन चुका है।

      अधिकतर वित्तीय परिसम्पत्तियों पर ‘डेरिवेटिव’ उपकरणों के जरिये निवेश किया जा सकता है और किया जा रहा है। ‘डेरिवेटिव’ बाज़ार का बुलबुला आज काफ़ी बड़ा है और यह पूरे वित्तीय तंत्र को अपनी चपेट में लेने की प्रबल ताकत रखता है। इस बाज़ार का विनियमन न के बराबर होता है जिसके कारण इसके आकार का सही-सही अन्दाजा लगाना काफ़ी मुश्किल है। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आज ‘डेरिवेटिव’ बाज़ार का आकार पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था से बीस गुना बड़ा है। इस बाज़ार का आकार 600 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक का होने का अन्दाजा लगाया जा रहा है यानी कि भारत की पूरी अर्थव्यवस्था से 300 गुना बड़ा। ऐसे में ‘डेरिवेटिव’ बाज़ार की सट्टेबाजी के बारे में थोड़ा जान लेना जरूरी है।

डेरिवेटिव उपकरण ऐसे अनुबन्ध होते हैं जिनका मूल्य उनके तहत आने वाली विभिन्न वस्तुओं या वित्तीय परिसम्पत्तिों पर निर्भर करता है या ‘डेराइव’ होता है। इनका अपना कोई मूल्य नहीं होता। 

     ये ऐसे सट्टे हैं जो शेयर मूल्यों, मुद्रा मूल्यों, ब्याज दरों, शेयर बाज़ार के सूचकांकों से लेकर मौसम में होने वाले बदलावों, फसलों आदि तक में लगाये जाते हैं। ‘डेरिवेटिव’ अनुबन्धों में मोटे तौर पर ‘फ़ोरवॉर्डस’, ‘फ्यूचर्स’, ‘स्वैप’, ‘ऑप्शन्स’ जैसे अनुबन्ध आते हैं। प्रत्येक की बारीकी में जाये बगैर यह कहा जा सकता है कि ये बेहद जोखिम भरे निवेश होते हैं। स्थान के अभाव के कारण हम केवल ‘फ्यूचर्स’ पर ही चर्चा करते हैं। ऐसा इसलिए कि अन्य वित्तीय परिसम्पत्तियों के साथ ही ‘फ्यूचर्स’ कारोबार खाद्य पदार्थों पर भी किया जाता है। हाल ही में आये दालों के दामों में उछाल का कारण काफ़ी हद तक ‘फ्यूचर्स’ जैसे अनुबन्ध ही थे। कुछ सालों पहले राजस्थान में ग्वार की फ़सल के दामों में आये अविश्वसनीय उछाल के लिए भी ‘फ्यूचर्स ट्रेडिंग’ की ही भूमिका थी जब ज्वार की फ़सलों के दाम 4,000 रुपये प्रति क्विण्टल से 40,000 रुपये प्रति क्विण्टल से भी अधिक पहुँच गये थे। ‘फ्यूचर्स’ ऐसे अनुबन्ध हैं जो भविष्य के लिए किये जाते हैं।

      साधारण से उदाहरण से हम इसे समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए कि एक धनी किसान जो गेंहूँ पैदा करता है, ने एक व्यापारी के साथ यह अनुबन्ध किया कि भविष्य में किसी तय तारीख को वह अपनी फ़सल में से 100 क्विण्टल गेंहूँ व्यापारी को 1500 रुपये प्रति क्विण्टल के हिसाब से बेचेगा। जिस तारीख के लिए सौदा किया गया है, हो सकता है उस तारीख को गेंहूँ का बाज़ार भाव 1500 रुपये से अधिक हो या कम हो। यदि गेंहूँ का दाम उस तारीख को कम रहता है, मान लीजिए 1300 रुपये रहता है, तब व्यापरी को नुकसान उठाना पड़ेगा और उसे किसान को 1500 रुपये प्रति क्विण्टल की दर से भुगतान करना पड़ेगा। ऐसे में उसे 20,000 रुपये का नुकसान होगा। 

     अगर उस तारीख को गेंहूँ का बाज़ार भाव 1,800 रुपये प्रति क्विण्टल हो जाता है तब किसान को गेंहूँ पहले से ही तय दर पर व्यापारी को बेचना पड़ेगा और 30,000 रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन अधिकतर मामलों में माल का विनिमय होता ही नहीं है और इस लिहाज से किसान और व्यापारी बगैर गेंहूँ का विनिमय किये ही घाटे व मुनाफे को बाँट लेंगें। यानी कि यदि बाज़ार भाव 1,300 रहता है तो व्यापरी बिना गेंहूँ लिए ही किसान को 20,000 रुपये दे देगा और यदि बाज़ार भाव 1,800 रहता है तो किसान बिना गेंहूँ बेचे ही व्यापरी को 30,000 रुपये का भुगतान करेगा। इस तरह देखा जा सकता है कि यह और कुछ नहीं बल्कि गेंहूँ के दाम पर खेला जाने वाला सट्टा ही है। फ्यूचर्स ट्रेडिंग से सट्टेबाज अच्छा-खासा मुनाफ़ा कमाते हैं। वे बड़े जमाखोरों से सौदेबाजी करके मालों के बाज़ार भाव अपने हिसाब से चढ़वा अथवा गिरवा देते हैं और फिर ‘फ्यूचर्स ट्रेडिंग’ के चलते मोटा मुनाफ़ा कमाते हैं।

      ‘फ्यूचर्स ट्रेडिंग’ केवल मालों पर ही नहीं बल्कि वित्तीय परिसम्पत्तियों पर भी की जाती है। इस बात पर सट्टा खेला जाता है कि भविष्य में शेयर बाज़ार के सूचकांक गिरेंगे अथवा चढ़ेंगे, एक मुद्रा किसी अन्य मुद्रा के मुकाबले कमजोर होगी या मजबूत होगी, बैंकों की ब्याज दर गिरेगी या बढ़ेगी। पूँजीवादी समाज मुनाफ़े पर टिका है, इस बात का सबूत देते हुए अमेरिकी सरकार के प्रतिरक्षा विभाग ने 2003 में एक ऐसे ‘फ्यूचर्स’ बाज़ार के निर्माण का प्रस्ताव रखा था जिसमें राजनीतिक हत्याओं व आतंकवादी हमलों की सम्भावनाओं के ऊपर लोग सट्टा लगा सकें। पूँजीवाद की पतनशीलता को दर्शाने के लिए यह एक प्रातिनिधिक उदाहरण है।

      यहाँ हम वित्तीय बाज़ार की महज एक छोटी सी तस्वीर ही पेश कर पाये हैं। आये दिन इस बाज़ार में नयी-नयी किस्म की सट्टेबाजियों के लिए नये-नये किस्म के वित्तीय उपकरणों का विकास करने का काम जारी रहता है और यह बाज़ार जटिल से जटिलतर प्रतीत होता जाता है। रोज खरबों की पूँजी इधर से उधर भागती रहती है। यह पूँजी पूरी तरह से अनुत्पादक है जो दिखाती है कि आज पूँजीवाद अपने बुढ़ापे में पहुँच चुका है। यह मौजूदा व्यवस्था के अन्तरविरोधों की ही अभिव्यक्ति है।

शेयर बाज़ार का बुलबुला हो या फिर कोई अन्य बुलबुला हो अन्त में उसके फूटने की कीमत आम मेहनतकश आबादी को ही चुकानी पड़ती है। आज अनुत्पादक पूँजी की करामात से विश्व भर में अमीरी-गरीबी की खाई अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है।

       यह हम देख ही चुके हैं कि किस तरह से आज पूँजीवाद को सांस लेते रहने के लिए बुलबुलों की ज़रूरत  है। आज विश्व के कोने-कोने में बाज़ार मालों से पट चुके हैं और वास्तविक अर्थव्यवस्था एक सतत मन्दी में फँसी हुई हैं जहाँ से निकलना अब उसके लिए सम्भव नहीं है। अब और बाज़ार नहीं बचे हैं जहाँ अपना माल उतारकर उत्पादक अर्थव्यवस्था से पूँजीपति मुनाफ़ा कमा सकें। उनके पास अब दो ही रास्ते हैं जिनसे वे मुनाफ़ा कमा सकते हैं। एक रास्ता है दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्ध थोपकर विनाश करना व मालों को नष्ट करके पुनः माल उत्पादन की सम्भावना पैदा करना और दूसरा रास्ता है पूँजी को सट्टाबाज़ार में झोंकना।

      सभी देशों की सरकारें आज जिस तरह से युद्धोन्माद भड़काने और वित्तीय पूँजी की चाकरी करने का काम कर रही हैं वह इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है। वित्त मंत्रियों से लेकर केन्द्रीय बैंकों के गवर्नर तक आज वित्तीय पूँजी के इशारों पर नाचते हैं। अनेकों अर्थशास्त्री वित्तीय तंत्र का अच्छा विश्लेषण करने पर भी वह बात नहीं कहते जो आज कही जानी चाहिए। वे यह नहीं कहते कि वित्तीय तंत्र का वास्तविक अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व हासिल करना पूँजीवाद के असाध्य अन्तरविरोधों की चरम परिणति है। वे इसे नियंत्रण में रखने की बात करते हैं। वे चाहते हैं कि इस विराट कैसिनो में जुआ नियम के साथ खेला जाये।

      क्या यह सम्भव है? बिल्कुल नहीं! क्या हम यह पहले से ही नहीं जानते हैं कि पूँजीवाद में मुनाफ़े के रास्ते में जो भी नियम या कानून बनाया जाता है, उसे अपरिहार्य रूप से तोड़ दिया जाता है? आज वास्तविक उत्पादन की दर लगातार गिरती जा रही है जो दिखा रही है कि एक और संकट दस्तक दे रहा है। इसलिए, कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में अनुत्पादक पूँजी के दम पर चलने वाला सट्टाबाज़ार निवेशकों को लगातार झटके देता रहेगा.

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