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मुशर्रफ के पाकिस्तानी सेना प्रमुख से राष्ट्रपति बनने की कहानी

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पाकिस्तान के तानाशाह और पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का रविवार को निधन हो गया। वे 79 साल के थे। मुशर्रफ लंबे वक्त से बीमार थे। दुबई के अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। मुशर्रफ 20 जून 2001 से 18 अगस्त 2008 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे।मई 2016 में पाकिस्‍तान की एक अदालत ने उन पर देशद्रोह के आरोप लगाए थे। इसके बाद वो देश छोड़कर दुबई चले गए तो उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया।

साल 2001 की बात है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति और पूर्व सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ भारत दौर पर आए थे। इस दौरान वह दिल्ली के दरियागंज स्थित नहरवाली हवेली जा पहुंचे। यहां पर 20 मिनट रुके और कई बार भावुक हुए। दरअसल, यह हवेली मुशर्रफ का पुश्तैनी घर था। आजादी के बाद मुशर्रफ का परिवार पाकिस्तान चला गया था।

मुशर्रफ का रविवार को दुबई में निधन हो गया। वे 79 साल के थे और पिछले तीन हफ्तों से एमाइलॉयडोसिस बीमारी की वजह से दुबई के अस्पताल में भर्ती थे। दिल्ली के दरियागंज में बचपन गुजारने वाले मुशर्रफ का पाकिस्तान जाकर ताकतवर तानाशाह बनना और फिर अपने ही देश से भागकर दुबई में शरण लेना किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।

दिल्ली में जन्म हुआ, दादा टैक्स कलेक्टर थे
परवेज मुशर्रफ का जन्म 11 अगस्त 1943 को दिल्ली के दरियागंज इलाके में काफी संपन्न परिवार में हुआ था। इसे दिल्ली का पुराना हिस्सा कहा जाता है। दादा टैक्स कलेक्टर थे। पिता भी ब्रिटिश हुकूमत में बड़े अफसर थे। मां अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थीं। मुशर्रफ परिवार के पास पुरानी दिल्ली में एक बड़ी कोठी थी। अपने जन्म के चार साल बाद तक मुशर्रफ ज्यादातर यहीं रहे।

2005 में अपनी भारत यात्रा के दौरान परवेज मुशर्रफ की मां बेगम जरीन मुशर्रफ लखनऊ, दिल्ली और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी गई थीं। जरीन 1940 में यहां पढ़ा करती थीं।

यह तस्वीर दिल्ली स्थित परवेज मुशर्रफ के पुश्तैनी घर की है, जो नहरवाली हवेली के नाम से मशहूर है।

बंटवारे के बाद पाकिस्तान के कराची में बस गया परिवार
1947 में बंटवारे के बाद मुशर्रफ का परिवार कराची चला गया। उस समय मुशर्रफ सिर्फ 4 साल के थे। अंग्रेजों के लिए काम करने वाले मुशर्रफ के पिता पाकिस्तान की नई सरकार के विदेश मंत्रालय में अफसर बन गए। उनका तबादला कुछ समय के लिए तुर्की में भी हुआ। 1957 में पूरा परिवार फिर से पाकिस्तान लौट आया। इस तरह उनका परिवार नए मुल्क पाकिस्तान में भी अपना रसूख बनाने में सफल रहा।

21 साल की उम्र में सेना से जुड़े, 1965 की लड़ाई में बहादुरी के लिए मेडल मिला
मुशर्रफ की कॉलेज की पढ़ाई लाहौर के फॉरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में हुई। वो कॉलेज में शानदार खिलाड़ी थे। उन्होंने ब्रिटेन में रॉयल कॉलेज ऑफ डिफेंस स्टडीज से भी पढ़ाई की। साल 1961 में 18 साल की उम्र में पाकिस्तान की मिलिट्री अकादमी जॉइन की। 3 साल बाद 21 साल की उम्र में परवेज मुशर्रफ ने बतौर जूनियर अफसर पाकिस्तानी आर्मी जॉइन कर ली।

वह साल 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान सेकेंड लेफ्टिनेंट थे। ये युद्ध पाकिस्तान हार गया था। बावजूद इसके बहादुरी से लड़ने के लिए पाक सरकार की ओर से मुशर्रफ को मेडल दिया गया था।

नवाज शरीफ ने सेना प्रमुख बनाया, उन्हीं का तख्तापलट दिया
1997 में पाकिस्तान में हुए आम चुनावों में जीत के बाद नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बने। नवाज ने सत्ता हाथ में आते ही प्रशासन से लेकर सेना तक में अपनी पसंद के अधिकारियों को जगह दी। साल 1998 में जनरल परवेश मुशर्रफ को पाकिस्तान का चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बनाया गया।

सेना की कमान हाथ में आते ही मुशर्रफ ने नवाज को बताए बिना कारगिल युद्ध की योजना बनाई। इससे नाराज होकर नवाज ने पाकिस्तान को कारगिल में मिली हार का जिम्मेदार मुशर्रफ को ठहराया। उन्होंने कहा कि मुशर्रफ के हाथ में आर्मी की कमान को सौंपना उनकी सबसे बड़ी गलती थी।

मुशर्रफ और शरीफ के बीच तनातनी कम होने के बजाय बढ़ती रही। 11 अक्टूबर को मुशर्रफ को इस बात की जानकारी मिली कि जल्द ही उन्हें पद से हटाया जा सकता है। इसके बाद 12 अक्टूबर 1999 को मुशर्रफ श्रीलंका दौरे के लिए रवाना हुए।

दूसरी ओर, नवाज ने इंटेलिजेंस चीफ जनरल जियाउद्दीन के साथ मिलकर इस्लामाबाद में मुशर्रफ को हटाने के लिए गोपनीय बैठक की। मुशर्रफ को जैसे ही इसकी भनक लगी तो उन्होंने अपने भरोसेमंद अधिकारियों जनरल अजीज खान, जनरल एहसान उल हक और जनरल महमूद को तख्तापलट करने का आदेश दिया।

इसके बाद नवाज शरीफ को मुशर्रफ के विमान का अपहरण करने और आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाने के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में उन्हें परिवार के 40 सदस्यों के साथ सऊदी अरब भेज दिया गया।

अपनी जीवनी ‘इन द लाइन ऑफ फायर – अ मेमॉयर’ में जनरल मुशर्रफ ने लिखा कि उन्होंने कारगिल पर कब्जा करने की कसम खाई थी, लेकिन नवाज शरीफ की वजह से वो ऐसा नहीं कर पाए।

यह तस्वीर साल 1998 की है, जब जनरल परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान का सेना प्रमुख बनाए जाने के बाद PM नवाज शरीफ से मिले थे।

मुशर्रफ ने कारगिल की साजिश की भनक शरीफ को भी नहीं लगने दी थी
फरवरी 1999 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बस से लाहौर की ऐतिहासिक यात्रा की थी। लाहौर में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और वाजपेयी की मुलाकात दुनिया की सुर्खियां बनी थीं।

वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा को भारत-पाकिस्तान रिश्ते में एक अहम मोड़ माना जाता है, लेकिन इस बस यात्रा के महज तीन महीने बाद ही आतंकियों की आड़ में पाकिस्तानी सेना ने कारगिल पर कब्जा करने की कोशिश की, जिसे भारतीय सेना ने मुंहतोड़ जवाब देते हुए नाकाम कर दिया।

भारत-पाकिस्तान के बीच 3 मई से 26 जुलाई 1999 तक चली कारगिल लड़ाई का असली मास्टरमाइंड परवेज मुशर्रफ को ही माना जाता है। कारगिल युद्ध को भारत की शांति की कोशिशों में खलल डालने के सबसे बड़े प्रयासों में से एक के तौर पर देखा जाता है।

कारगिल लड़ाई के दौरान देश के सेना प्रमुख रहे वेद प्रकाश मलिक ने अपनी किताब ‘फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ के चैप्टर ‘दा डार्क विंटर’ में लिखा है कि परवेज मुशर्रफ ने कारगिल की साजिश की भनक किसी को नहीं लगने दी थी। यहां तक कि इसे लेकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ तक को अंधेरे में रखा था।

मुशर्रफ ने खींचा था कारगिल लड़ाई का पूरा खाका
इस किताब के मुताबिक, कारगिल लड़ाई का पूरा खाका मुशर्रफ ने खींचा था। उनकी इस योजना की भनक पाकिस्तान की नेवी और एयरफोर्स के सीनियर अफसरों तक को नहीं थी।

किताब के मुताबिक मुशर्रफ को इस बात का अहसास था कि भारतीय खुफिया एजेंसी RAW की पहुंच पाकिस्तानी सेना में बहुत गहरे तक है। इसीलिए उन्होंने कारगिल योजना की जानकारी अंतिम समय तक अपनी ही आर्मी के बड़े अफसरों तक को नहीं होने दी थी।

किताब में बताया गया है कि मुशर्रफ को पता था कि कारगिल से जुड़ी जानकारी जितने ज्यादा लोगों तक पहुंचेगी उसके लीक होने का खतरा उतना ही ज्यादा रहेगा, इसलिए उन्होंने इसे सबसे छिपाकर रखा।

पाक सेना के बड़े अफसरों तक को ये नहीं पता था कि पाकिस्तानी सेना के साथ आतंकियों के दस्ते भी LoC पार गए हैं। भारतीय सेना को गुमराह करने के लिए मुशर्रफ ने आतंकियों से स्थानीय भाषाओं-बाल्टी और पश्तों में झूठे संदेश प्रसारित करवाए। ताकि भारतीय खुफिया एजेंसियां ये समझें कि कारगिल में पाक सेना नहीं, बल्कि केवल आतंकी आए हैं।

पाकिस्तान हमेशा से कारगिल युद्ध में अपनी भूमिका से इनकार करता रहा है, लेकिन परवेज मुशर्रफ ने अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में माना था कि कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी सेना भी शामिल थी।

माना जाता है कि मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध की योजना अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बनाई थी। इतना ही नहीं, अपनी आत्मकथा में भी मुशर्रफ ने कारगिल में हार की शर्मिंदगी से बचने के लिए हार का पूरा ठीकरा नवाज शरीफ पर फोड़ा और कहा कि शरीफ ने कारगिल युद्ध से पीछे हटने को कहा था।

मुशर्रफ के दिमाग की उपज कारगिल युद्ध ने भारत-पाकिस्तान के बीच शांति प्रयासों को पटरी से उतारते हुए रिश्तों में कड़वाहट घोल दी थी।

यह तस्वीर साल 2001 की है। आगरा शिखर सम्मेलन के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने मुलाकात की थी।

अड़ियल रवैये से आगरा सम्मेलन को किया फेल
14 जुलाई 2001 को आगरा शहर में कई जगहों पर भारत और पाकिस्तान का झंडा एक साथ लगाया गया था। 1999 जंग के ठीक दो साल बाद दोनों देशों के झंडे को एक साथ देखना दुनिया को हैरान कर रहा था। दरअसल, दोनों देशों के झंडों को एक साथ लगाकर भारत और पाकिस्तान की दूरी को कम करने की कोशिश की गई थी।

14 से 16 जुलाई तक आगरा में चलने वाले इस सम्मेलन में भारत की ओर से उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान की ओर से राष्ट्रपति रहे जनरल परवेज मुशर्रफ शामिल हुए थे। इस बैठक की जमीन उस वक्त के गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने तैयार की थी। इस बैठक के दौरान दोनों देश दोस्त बनते-बनते रह गए थे।

ऐसा इसलिए क्योंकि ये सम्मेलन एक तरह से बेनतीजा खत्म हो गया था। दरअसल, आगरा सम्मेलन में फर्स्ट राउंड की बातचीत मुशर्रफ और आडवाणी के बीच होनी थी। इस बातचीत के दौरान आडवाणी और परवेज मुशर्रफ दोनों इस बात पर सहमत हो गए थे कि दोनों देशों में छिपे अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

इसके बाद आडवाणी ने कहा कि औपचारिक तौर पर यह संधि लागू हो, इससे पहले अगर आप 1993 के मुंबई बम धमाकों के जिम्‍मेदार दाऊद इब्राहिम को भारत को सौंप दें तो शांति प्रक्रिया आगे बढ़ाने में बड़ी मदद मिलेगी, लेकिन इतना सुनते ही मुशर्रफ के चेहरे का भाव बदल गया और उन्होंने समझौते को मानने से इनकार कर दिया। इस तरह भारत से दोस्ती नहीं होने के पीछे मुशर्रफ के अड़ियल रवैये को जिम्मेदार माना जाता है।

2019 में कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई, कहा- पहले मौत हो जाए तो 3 दिन तक इस्लामाबाद के चौक पर लाश को लटकाया जाए
परवेज मुशर्रफ को इस्लामाबाद की विशेष कोर्ट ने 2019 में संविधान बदलने के लिए देशद्रोह के मामले में मौत की सजा सुनाई थी। वह पहले ऐसे सैन्य शासक थे, जिन्हें देश के अब तक के इतिहास में मौत की सजा सुनाई गई थी। कोर्ट ने करीब 167 पन्नों में विस्तार से अपना फैसला लिखा था।

इस फैसले में कहा गया था कि अगर परवेज मुशर्रफ की मौत उनकी सजा से पहले हो जाती है तो घसीटते हुए उनकी लाश को इस्लामाबाद के डी चौक पर तीन दिन के लिए लटकाया जाएगा। हालांकि बाद में लाहौर हाईकोर्ट ने मौत की सजा रद्द कर दी थी।

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