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नई अंधेर नगरी की कथा

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व्यंग-विवेक मेहता
टीवी इन दिनों देखता नहीं। बच्चों ने मोरवी हादसे की ताजा जानकारी के चक्कर में चला दिया था। चैनल पर आईजी साहब मुखातिब थे। उनकी इच्छा तो ‘मन की बात’ करके चले जाने की थी। कोशिश भी कर रहे थे, मगर चुनाव नजदीक आ रहे थे, संवेदनशील दिखना था। उनके लिए जुआ था। सब संभल गया तो नौकरी में वारे न्यारे, बिगड़ा तो यह जन्म भी नरक। पेंशन के लाले। बुरा हुआ तो जेल के दर्शन भी।
वह बता रहे थे- हादसे के बाद पुलिस और प्रशासन ने अपनी जिम्मेदारी निभाई। त्वरित कार्यवाही की।
यार लोग बता रहे थे कि लोगों ने व्यवस्था संभाली। रोड पर ट्रैफिक व्यवस्था इस प्रकार बिठाई की मोरबी से राजकोट जाने के लिए एंबुलेंस को कठिनाई न हो। सरकारी बचाब टीमें तो बहुत देरी से बस से भेजी गई। जब तक वह पहुंचे, बचाव करें तब तक तो ‘राम नाम सत्य हो जाए’। अब काम खत्म हो गया तो नाम तो अपने कर ही सकते हैं!
बता रहे थे कि 9 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए। मैनेजर, टिकट काटने वाला, ठेकेदार, सिक्योरिटी वाले। सवाल हो रहे थे- कंस्ट्रक्शन कंपनी के मालिक का नाम एफ आई आर में क्यों नहीं? उनका कहना था की पत्रकार और जनता जानती नहीं है कि पुलिस की जांच साइंटिफिक तरीके से होती है। ऐसे ही नहीं होती कि हर किसी बड़े आदमी का नाम उसमें आ जाए। मैं भी समझ रहा था कि लोगों की जान गई है, बच्चे लावारिस हो गए, कमाने वाला सदस्य चला गया। इसमें भावनाएं थोड़ी आहत होती है । अगर भावनाएं आहत हुई होती तो अभी तक बुलडोजर चला दिए गए होते तथाकथित अपराधियों के घर पर। बिना किसी जांच के।
सोचते-सोचते देश के जिम्मेदार नागरिक की तरह मैं भी सो गया। सपना देखने लगा। चुनावी दौर में मुंगेरीलाल वाला विश्व गुरु बनने का हसीन सपना नहीं दिखा। अंधेरी नगरी वाला दिख गया।

       दरबार सजा था। फरियादियों की भीड़ थी। डिजाइनर वस्त्रों में सजे महाराज ने पूछा- 'क्या हुआ?'

‘सरकार पुलिया गिरने से इन लोगों के परिजन मर गए।’
‘किसका पुल था?’
‘पूंजीपति घड़ीवाले का?’
‘अच्छा। उसके मैनेजर को हाजिर करो।’
मैनेजर को लाया गया।
‘पुल कैसे गिरा? मैनेज नहीं होता तुमसे?’
‘महाराज लोगों की गलती है। वह आप को, सरकार को बदनाम करने के लिए डोर पकड़ पुल हिला रहे थे।’
‘यह गलत बोल रहा है। महाराज पुल का नाम ही हिलता पुल है। लोग चलते हैं तो हिलता है। हिलता है तो लोग डरते हैं। डरते हैं तो डोर पकड़ते हैं।’- भीड़ में से कोई बोला।
बीच में बोलने पर महाराज की त्योरियां चढ़ गई। वे कुछ बोलने वाले थे कि मंत्री कान में फुसफुसाया- महाराज चुनाव का समय है जनता के बीच ही जाना है।
‘पुल हिल रहा था तो फिर सिक्योरिटी क्या कर रही थी? पकड़ कर लाओ।’
तीन मरियल से सिक्योरिटी वाले पकड़ कर लाए गए।
‘व्यवस्था पर ध्यान क्यों नहीं दिया? जेल जाओगे।’
‘हम क्या करें महाराज ठेकेदार ने ही पुल ऐसा बनाया।’
आदेश हुआ ठेकेदार को हाजिर करो।
दो ठेकेदार पकड़ कर लाए गए। जैसे-जैसे समय बीत रहा था राजा का तनाव कम हो रहा था। लोगों का गुस्सा भी।
‘इन लोगों ने इतना घटिया काम किया।लोग मर गए। फांसी दे दो इन्हें।’
‘सरकार हमने तो जो मालिक ने कहा वैसा काम किया।’ ‘बुलाओ मालिक को।’
‘सरकार, मालिक क्या करेगा? काम तो मजदूर करते हैं। ढंग से काम नहीं किया होगा।’- मंत्री हस्तक्षेप करता हुआ बोला।
राजा को मालिक की पूंजी और अपने संबंधों का ख्याल आ गया। चुनावी खर्चे भी सामने खड़े थे।
बोला- ‘पकड़ कर लाओ मजदूरों को।’
मजदूर लाए गए। आदेश हुआ- ‘फांसी दे दो इन्हें।’
मजदूर फरियादियों की भीड़ में खड़े कुछ लोगों के परिजन निकले। वे बोले- ‘ये निर्दोष है। इनसे तो जैसा कहेंगे वैसा काम करेंगे।’
सोई फिर मालिक की और घूम रही थी। साइंटिफिक तरीके से उसकी दिशा बदलते हुए राजा बोला-
‘राज्य में हत्या बर्दाश्त नहीं।’- कुछ रुक कर फिर बोला- ‘मरे हुए लोगों की याद में भव्य स्मारक बनाने पर कार्य हो।’
दरबारियों ने जय जयकार की। उठकर राजा अपने कक्ष में चला गया। नया वस्त्र धारण कर उसे एक कार्यक्रम में जाना था। अब अंधेर नगरी का राजा शातिर था, चौपट नहीं।
मेरी भी नींद खुल गई मैं पसीने पसीने था।


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