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इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के संघर्ष ने गुजरात की राजनीती बदल दी

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प्रेम शंकर मिश्र
1969 में इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच खिंची तलवार से कांग्रेस के दो फाड़ हो गए। दिल्ली की यह लड़ाई गुजरात तक पहुंची और गुजराती अस्मिता से भी जुड़ी। इसके कुछ साल बाद सरकार की असफलताओं के खिलाफ शुरू हुए नवनिर्माण आंदोलन ने भी जोर पकड़ लिया। हालांकि, इसी बीच कांग्रेस ने अपर कास्ट में पैठ के साथ गुजरात में KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी व मुस्लिम) फॉर्म्युले पर काम शुरू कर दिया था। इसलिए 1977 की इंदिरा विरोधी लहर को छोड़ दिया जाए, तो कांग्रेस सत्ता में वापसी करती रही। 1980 में कांग्रेस ने 182 में 111 खाम उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 96 जीत गए। कांग्रेस की इस जीत के बीच बीजेपी ने गुजरात में अपनी जमीन बनानी शुरू कर दी। 90 के दशक तक स्थानीय निकाय और पंचायतों के चुनाव में उसकी पैठ बढ़ने लगी थी। जिला पंचायत परिषद की 772 सीटों में बीजेपी ने 599 सीटों पर कब्जा जमाया।

यह जमीन तैयार करने में अहम भूमिका बीजेपी के महासचिव व प्रदेश अध्यक्ष रहे शंकर सिंह वाघेला और संगठन में काम कर रहे नरेंद्र मोदी की भी रही। जिला परिषद से मिले आत्मविश्वास से लैस बीजेपी 1995 विधानसभा चुनावों में सभी 182 सीटों पर चुनाव लड़ी, और 121 सीटों पर जीत के साथ सत्ता में आ गई। वाघेला ने सीएम बनने का ख्वाब पाला, लेकिन ताजपोशी केशुभाई पटेल की हुई। कुर्सी को लेकर यह तकरार यहीं नहीं थमी। केशुभाई गुजरात में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए अमेरिका गए, इधर 48 समर्थक विधायकों को लेकर वाघेला मध्य प्रदेश के खजुराहो पहुंच गए। वाघेला समर्थक खजुरिया कहे गए और केशुभाई के साथ खड़े विधायक ‘हजुरिया’। जो किसी के साथ नहीं थे, वे ‘मजुरिया’ कहे गए। खैर, अटल-आडवाणी के हस्तक्षेप के बाद समझौता हुआ, लेकिन कुर्सी केशुभाई की जगह वाघेला के सहयोगी सुरेश मेहता को मिल गई। मेहता एक साल ही रहे कि वाघेला ने फिर बगावत कर कांग्रेस का साथ पकड़ कर सीएम की कुर्सी हासिल कर ली। हालांकि इसके बाद कांग्रेस और वाघेला, दोनों के लिए ही गुजरात की सत्ता ख्वाब हो गई।

कैसे बनी बीजेपी
पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र सहित कई राज्यों की सत्ता में काबिज बीजेपी के चुनावी प्रबंधन का लोहा विपक्ष भी मानता है। लेकिन जनता पार्टी के साथ 70 के दशक में एक छोटा सा मतभेद सुलझ गया होता तो शायद बीजेपी का गठन ही नहीं होता। दरअसल 1975 में इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल से उपजे आक्रोश और आंदोलन में पूरा विपक्ष एक हुआ, फिर 1977 में जनता ने कांग्रेस को सत्ता से खदेड़ दिया। सत्ता में आने के बाद कई दलों ने जनता पार्टी में अपना विलय कर लिया, जिसमें जनसंघ भी शामिल था। हालांकि, कई विचारधाराओं और नेताओं का यह कुनबा आपसी मतभेद के साथ-साथ सिर फुटव्वल का ही शिकार रहा। अंतत: पार्टी दो फाड़ हो गई। पार्टी पर कब्जे की कवायद में विरोधियों को किनारे लगाने का दौर शुरू हो गया। इसी बीच अप्रैल 1980 में जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने यह प्रस्ताव पास कर दिया कि आरएसएस से जुड़े सदस्य पार्टी से बाहर किए जाएंगे, उनकी दोहरी सदस्यता नहीं चलेगी।

जनसंघ के नेताओं को यह नागवार गुजरा। 6 अप्रैल 1980 को जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने जनता पार्टी से अलग होकर अपना सियासी अस्तित्व बनाने का फैसला किया। इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी इसके पहले अध्यक्ष बने और लालकृष्ण आडवाणी राष्ट्रीय महासचिव। उसी साल दिसंबर में मुंबई में हुए अधिवेशन ने अटल ने नारा दिया ‘अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा।’ यह दशकों तक बीजेपी का घोषणा वाक्य रहा। अनिर्बान गांगुली और शिवानंद द्विवेदी ने अपनी किताब ‘अमित शाह और बीजेपी की यात्रा’ में लिखा है कि हालांकि 1984 के चुनावों में करारी हार से पार्टी के भीतर यह सवाल उठा कि क्या बीजेपी के गठन का फैसला सही था? इसका जवाब तलाशने के लिए केएल शर्मा की अगुवाई में कमिटी बनी, जिसने अपनी सिफारिश में कहा कि बीजेपी के गठन से पीछे हटने का कोई सवाल नहीं है, बल्कि पार्टी को मजबूत कर हम और आगे बढ़ेंगे।

जब खुद हार गए सीएम
यूपी के मैनपुरी में पूर्व सीएम मुलायम सिंह यादव के निधन के चलते हो रहे लोकसभा उपचुनाव पर सबकी नजरें हैं। इसके नतीजों को उनके बेटे और पूर्व सीएम अखिलेश यादव के सियासी भविष्य से जोड़ा जा रहा है। इसलिए अखिलेश वहां हर गांव-गली में प्रचार में जुटे हैं। इससे पहले चुनाव प्रचार में न जाने के चलते आजमगढ़ की अपनी ही खाली की गई सीट पर अखिलेश यादव अपने चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को नहीं जिता पाए थे। खैर, यूपी की सियासत में उपचुनावों का झटका कोई नया नहीं है। यहां 1971 में चुनाव प्रचार न करने के चलते सीएम खुद अपना चुनाव हार गए थे।

वाकया यूं था कि 18 अक्टूबर 1970 को त्रिभुवन नारायण सिंह यूपी के सीएम बने। उस समय वह किसी सदन के सदस्य नहीं थे। उसी समय महंत अवैद्यनाथ के सांसद बनने के चलते गोरखपुर जिले की मानीराम सीट खाली हुई थी। 1957 में राम मनोहर लोहिया को मात दे चुके त्रिभुवन नारायण ने मानीराम से कांग्रेस के एक धड़े के उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरा। जीत को लेकर आश्वस्त हो चुके सीएम पर्चा भरने के बाद प्रचार तक में नहीं गए। उनके खिलाफ इंदिरा की अगुवाई वाली कांग्रेस ने रामकृष्ण द्विवेदी को उम्मीदवार बनाया। रामकृष्ण नए चेहरे थे और मुकाबले को आसान माना जा रहा था। लेकिन इंदिरा खुद प्रचार में पहुंचीं और उन्होंने चुनाव की रंगत बदल दी। सीएम 16 हजार वोटों से चुनाव हार गए। उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी।

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