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चुनाव जीतने की ज़िद और हमारा लोकतंत्र ….!

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सुसंस्कृति परिहार
यूं तो चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं और मतदान  जनता का बड़ा हथियार है  जिससे ,वह चाहे जिसे सत्ता की कुंजी थमा दे और जिसे चाहे सत्ता से उतार फेंके।अमूनन लोग अपने चयनित प्रतिनिधियों से जनहितैषी काम की अपेक्षा रखते हैं वे खरे उतरते हैं तो फिर उन्हें चुनती है और उन्हें नकारती है जो उनकी इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते । इसीलिए जिसे जनता चुनती है उसको देश ही नहीं विदेशों में सम्मान मिलता है ।इसे सूक्ष्म रुप में समझा जाए तो यह सम्मान अप्रत्यक्ष तौर पर जनता जनार्दन का होता है। अब अपने मोदी साहिब और उनके जोड़ीदार अमित जी को देख लीजिए कैसा दौर था गुजरात नरसंहार के बाद का जब मोदी जी को अमेरिका जैसे देश ने अपने यहां आने पर रोक लगा दी थी।शाह जी का तो और भी बुरा हाल था वे तड़ीपार थे और जब ये दोनों लोकसभा चुनाव बहुमत के साथ जीते तो आज कहां है? ये करिश्मा जनता ही करती है।
 इधर जब से हमारी केंद्र सरकार के मुखिया मोदी ने जब से सत्ता संभाली है उनका एक ही लक्ष्य रहा है कि जहां चुनाव हो जीत उनकी पार्टी की ही होनी चाहिए इसके लिए वे चुनाव के तकरीबन एक साल पहिले से लग जाते हैं जनता को समझाने और जनहितैषी घोषणाएं करने और झूठ के सहारे जनता को अपने पक्ष में करने तरह तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं ।बड़ी बात ये कि जनता उनमें विश्वास पिछले छै साल से बनाए हुए है। लेकिन इस बार बंगाल में उनकी एक साल की मेहनत पर पानी फिर गया।अब सामने उ०प्र०का चुनाव है तो नए तौर तरीकों पर विमर्श चल रहा है उसमें सबसे महत्वपूर्ण है उ०प्र०को तीन टुकड़ों में बांटना जिसकी मांग लंबे अरसे से चल रही है। बुंदेलखंड,हरित प्रदेश और पूर्वांचल ।भाजपा की सोच ये है कि इन तीनों राज्यों की घोषणा होने से यहां के लोग तमाम दुख दर्द और तकलीफ़ भूलकर उन्हें वोट करेंगे। यह संभावना सच भी हो सकती है लेकिन  राज्यों के सम्पूर्ण गठन प्रक्रिया में कम से कम एक साल तो लगेगा ही ।फिर एक की जगह दो और मुख्यमंत्री और राज्य की तमाम व्यवस्थाओं के लिए धन कहां से आयेगा।वैसे ही देश आर्थिक दृष्टि से बेहद कमज़ोर हालत में है।
 पर चुनाव जीतना महत्वपूर्ण है इसलिए चाहे सेंट्रल विस्टा हो या नई राजधानियां बनाना, महत्वपूर्ण ज़रुरत हो जाता है।समझ में नहीं आता ये कैसा लोकतंत्रात्मक गणराज्य है जिसमें चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री के साथ पूरा केबिनेट, राज्यों के मुख्यमंत्री ,संगठन के लोग सब काम धाम छोड़कर जुट जाते हैं और चुनाव जीतने के बाद दर्शन दुर्लभ।सारे आश्वासन ताक पर रखे मुंह चिढ़ाते हैं।
दूसरी अहम बात यह है कि मान लीजिए सत्तारूढ़ दल कहीं पीछे रह जाता है तो येन केन प्रकारेण दूसरे दल के विधायकों को जुटाकर सत्ता पर काबिज हो जाता है इनमें महामहिम राज्यपालों की भूमिकाएं बड़ी संदिग्ध रहीं हैं वे सत्तारूढ़ दल के इशारे पर बिना बहुमत वाले को बुलाकर विधायकों की खरीद-फरोख्त का मौका देते हैं और ज्यादा विधायक जीते दल को विपक्ष में बैठा दिया जाता है।जिसकी सरकार बनानी हो उसे  रातों रात शपथ दिला दी जाती है। गोवा, मणिपुर, महाराष्ट्र में ये सब हो चुका है।
अब तीसरी स्थिति तो और भी विकट है जहां जनता की चुनी हुई सरकार में इतना बड़ा फेरबदल हो जाता है कि पूरी की पूरी सरकार गिरा दी जाती है और अपनी सरकार बना ली जाती है ।इसका उदाहरण मध्यप्रदेश में देखने मिला।यह जनमत के साथ सरासर छलावा है और सत्तारूढ़ दल का अलोकतांत्रिक रवैया है।ताज़े हालात बंगाल में देख ही रहे हैं कि पूर्ण बहुमत से जीती सरकार को गिराने और राष्ट्रपति शासन लगाने सरकार के लाए राज्यपाल कितने उतावले हैं।पहले दंगा का बहाना ,फिर मुख्यसचिव की खींचातानी , भ्रष्टाचार के आऱोप आदि।सवाल ये है,कि क्या ये सब उचित है?ये प्रवृत्ति तो तानाशाहों की होती है ?अगर इस तरह सत्तारूढ़ दल की सरकार ही बननी तो चुनावी नाटकीयता की ज़रुरत क्यों?
मुझे तो लगता है लोकतंत्र के पायदानों की ओट में होने वाले  ये चुनाव अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं इसलिए सबसे पहले ज़रुरत है चुनाव आयोग को निष्पक्ष बनाने की ,जो अन्य दलों की बात पर गौर करे। जब सारे दल ई वी एम हटाने की बात कर रहे हैं तो उस पर ध्यान देना ज़रुरी है।  महामहिम पद पर किसी पार्टी से जुड़ा व्यक्ति  ना बैठाया जाए ।इसी तरह सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भी किसी पद पर ना बैठाया जाए ताकि उपकृत होने के एवज में न्याय प्रभावित ना हो सके । लोकतांत्रिक देश में निष्पक्ष निर्वाचन और बहुमत वाले दल  को जनता की सेवा का मौका मिलना चाहिए।इससे विधायकों की खरीद-फरोख्त पर भी विराम लगेगा। दलबदलुओं के लिए भी आयोग सख़्ती करेगा । दोबारा चुनाव पर रोक लगेगी। सिर्फ वहीं चुनाव हों जहां किसी की मृत्यु हो।यदि इन बातों पर अमल नहीं होता है तो यह पक्का है देश में लोकतंत्र जो अभी आॅक्सीजन पर है शीघ्र ख़त्म हो जाएगा।   लोकतंत्र कायम रखना है तो सत्तापक्ष को चुनाव जीतने की ज़िद छोड़नी होगी। दूसरों को अवसर देकर ही देश में लोकतंत्र को मजबूत रखा जा सकता है।जनता के फैसले के बाद उस पर अमल होना चाहिए अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं।

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