रियासतों का विलय नहीं जनता के राष्ट्रीयताओं का गला घोंटा गया*
*अजय असुर
पूरे विश्व में राष्ट्र निर्माण को देखें तो जिस तरह से यूरोप के देशों में राष्ट्र निर्माण हुआ बाकी तीसरी दुनिया में यूरोप की तरह राष्ट्र निर्माण नहीं हुआ। साम्राज्यवादी देशों द्वारा उपनिवेश बनाये जाने से पहले ये राज्य सामंती राज्य थे, जो छोटे-छोटे रियासतो में बंटे थे। यदि साम्राज्यवादी देशों द्वारा इन राष्ट्रों को गुलाम ना बनाया गया होता तो निश्चित ही ये सामन्ती राज्य भी उसी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से गुजरते जैसे यूरोप के अन्य सामन्ती राज्य गुजरे थे क्योंकि यूरोप के राज्यों को पूंजीवाद ने सामंती बेड़ियों से मुक्त कर पूंजीवादी समाज में तब्दील कर दिया था जब कि इन साम्राज्यवादी देशों के अधीन देशों में साम्राज्यवादी देशों ने सामन्ती बेड़ियों को खत्म करने की बजाय इन इन सामन्तों को अपने अधीन करके इन्हें ठेका, पट्टा, कोटा, परमिट, लाइसेंस, एजेंसी, सस्ते कर्ज, अनुदान और अपनी साम्राज्यवादी सेना का संरक्षण… आदि देकर अर्धसामन्त में तब्दील करके इन सामंतों को पहले की तुलना में और अधिक मजबूत बना दिया। जिससे इन उपनिवेश देशों में यूरोप के देशों की तरह पूंजीवादी देश का निर्माण ना हो सका।
आज भी भारत की सबसे बड़ी समस्या देश की राष्ट्रीयता को लेकर है क्योंकि भारत कोई देश नहीं बल्कि कई राष्ट्रीयताओं का समूह यानी गणराज्य है और ये राष्ट्रीयता की समस्या पूरी तरह से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देन है। एक ओर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने राष्ट्रीय निर्माण के स्वाभाविक विकास को बाधित किया तो दूसरी ओर उसने इन देशों के आजाद होने के समय राष्ट्रीयताओं का कोई ख्याल नहीं रखा। अपने प्रतिक्रियावादी चरित्र के कारण ही उसने जनता को अपने भविष्य का निर्णय करने देने के बजाय भविष्य का फैसला लेने का अधिकार शासकों को दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की इस नीति का फल यह हुआ कि अनेक कौमें जो आजाद होना चाहती थीं वे आजाद न हो सकीं। उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब मात्र इतना ही था कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त होकर भारत या पाकिस्तानी राज्य सत्ताओं के अधीन चली जायें क्योंकि समझौते के प्रावधान में कहीं भी स्वतंत्र रहने का विकल्प ही नहीं था, जो स्वतंत्र रहने का विकल्प था वो सिर्फ दिखाने के लिये था। यदि ऐसा सचमुच होता तो आज कश्मीर ना ही भारत और ना ही पाकिस्तान का अंग होता वह भारत/पाकिस्तान की तरह एक स्वतन्त्र देश होता। और ना ही आज यह कश्मीर नामक समस्या होता।
भारत और पाकिस्तान का जो विभाजन हुआ था, उसका आधार भी प्रगतिशील न होकर प्रतिक्रियावादी था। धार्मिक आधार पर विभाजन का चरित्र प्रतिक्रियावादी होने के कारण ही दोनों ही देशों में जल्दी ही राष्ट्रीयता को लेकर अलग-अलग कई जगहों पर आंदोलन उठ खड़े हुए। धार्मिक आधार पर विभाजन के कारण ही जिन देशों का निर्माण हुआ वे कभी राष्ट्र बन ही नहीं सके। भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में राष्ट्रीयताओं के आधार पर राज्य के गठन की मांगे आज तक बरकरार है और समय-समय पर आवाजें भी उठती रहती हैं। भारत और पाकिस्तान का शासक वर्ग अपने जन्म से ही इस कदर प्रतिक्रियावादी था कि उसने न सिर्फ अनेक कौमों की इस जनवादी सोच (आत्मनिर्णय के अधिकार) का गला घोंटा ही नहीं बल्कि इनकी इच्छाओं का जबरदस्त तरीके से दमन भी किया और अनेक राष्ट्रीयताओं का जोर जबर्दस्ती और और जरूरत पड़ने पर डरा-धमका के साथ विलय करा लिया गया।
ब्रिटिश कालीन भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ था। भारत और पाकिस्तान दोनों ही ओर के भू-भागों का विभाजन इस प्रकार हुआ है, जिसमें कि अनेक राष्ट्रीयताएँ खण्ड-खण्ड विखंडित हो गयीं, क्योंकि भारत-पाकिस्तान का विभाजन राष्ट्रीयताओं के आधार पर ना होकर धार्मिक आधार पर हुआ। भारत के आजाद होने से पहले कश्मीर भारत की उन रियासतों में से एक था जिन्होंने भारत के साथ विलय से इंकार कर दिया था। चूंकि देशी रियासतों के लिए दिखाने और कहने भर की यह छूट दी गयी थी कि वो चाहें तो भारतीय संविधान सभा से स्वंय आकर जुड़े या तो पाकिस्तान की संविधान सभा से जुड़ें या फिर स्वतंत्र रहें। चूंकि भारत का बंटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था इसलिये देशी रियासतों को हिदायत दी गयी थी कि भारत और पाकिस्तान को अपने बहुसंख्यक आबादी के मजहब को देखते हुए निर्णय लें।
कश्मीर के महाराजा ने स्वतंत्र रहने का विकल्प चुना, उनको जम्मू के रियासतों का भी समर्थन मिल रहा था, जो जम्मू-कश्मीर राज्य को हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की वकालत कर रहे थे, जो नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर को भारत का एक राज्य घोषित कर भारत में विलय करके अपनी पहचान का विलय कर दे। कश्मीर के महाराजा को जम्मूकश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का भी समर्थन भी मिला। जिसने कश्मीर को तुरंत आजाद करने और राज्य के अपने संविधान के निर्माण के लिए एक अलग संविधान सभा की स्थापना की घोषणा का आग्रह किया। परंतु सत्ता हस्तांतरण के नजदीक आते-आते भारत में सांप्रदायिक तनाव के बढ़ते जाने के साथ ही, ब्रिटिश साम्राज्यवाद की धार्मिक विभाजन की चाल में फंसकर हिन्दू महासभा और मुस्लिम कांफ्रेंस की सोच बदलती चली गयी और हिन्दू महासभा के नेता भारतीय संघ के साथ तो मुस्लिम कांफ्रेंस पाकिस्तानी डोमेनियन के साथ समझौते की वकालत करने लगी।
इधर भारत का शासक वर्ग भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विस्तारवादी नीति पर ही आगे बढ़ रहा था क्योंकि भारत की शासन व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वारिस थी। भारत अपनी इस विस्तारवादी इच्छा को पूरा करने हेतु कई रियासतों यानी राज्यों को जबरन भारत में विलय के लिये मजबूर किया। अपने इस विस्तारवादी दृष्टिकोण के कारण ही भारतीय शासक वर्ग ने अनेक भू-भागों जैसे हैदराबाद, जूनागढ़, नागालैण्ड, सिक्किम, कश्मीर, असम व अरुणांचल…. जैसे राज्यों को भारत में विलय के लिये मजबूर कर कब्जा कर लिया। कई रियासतें भारत में विलय को तैयार नहीं थी। कई रियासतों को जबरन विशेषकर हैदराबाद व कश्मीर को सेना के बल पर कब्जा किया है। इसको सन्धि विलय तो कतई नहीं बोल सकते। किसी भी रियासतों की जनता के जनवाद का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखा।
ब्रिटिश शासकों के आगमन से पहले भारत में सामंती उत्पादन प्रणाली की वजह से बाजार का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। कुछ आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर शेष सभी का उत्पादन भारतीय स्वयं किया करते थे। अंग्रेज़ों ने भूमि बंदोबस्त के माध्यम से एक नयी उत्पादन प्रणाली अर्द्धसामंती उत्पादन प्रणाली लागू की। इस नयी प्रणाली ने जिस हद तक पुरानी उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित किया था, उस हद तक भारतीय जीवन की बाजार पर निर्भरता बढ़ी थी। ब्रिटिश कालीन भारत में पूँजीवादी-साम्राज्यवादी विकास में जितने भी रोड़े आये उसको हटा दिया। उदाहरण स्वरूप फैक्ट्रियों और काम की जगह पर जब जातियाँ आड़े आयीं तो वहाँ उस जगह पर जाति की सीमा को उखाड़कर फेंक दिया। जब होटलों, बीयर बारों, दुकानों में जहाँ तक जाति आड़े आ रही थी वहाँ तक जाति की सीमा को खत्म कर दिया। बाकी मामलों में जातिव्यवस्था को पूर्व की भांति मजबूत बनाये रखा।
आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों ही भागों में अर्धसामन्ती अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया में तेजी लाने की कोशिश की गयी। कश्मीर भी इसका अपवाद नहीं रहा। परन्तु पूँजीवादी विकास जिस रफ्तार में होना चाहिए, उस रफ्तार में नहीं हो सकता था, क्योंकि अर्धसामन्ती भूस्वामित्व कदम-कदम पर बाधक बनता रहा है। भारत और पाकिस्तान दोनों द्वारा अधिकृत कश्मीर में नकदी फसलों का उत्पादन शुरू हुआ, मगर विकास की रफ्तार बहुत धीमी रही है। भारत अधिकृत कश्मीर में पर्यटन का विकास भी किया गया है। सम्पूर्ण कश्मीर में शॉल और कालीन उद्योग का काफी विकास हुआ है। यहाँ हस्तकला उद्योग काफी विकसित है। कहने का आशय यह है कि अर्धसामन्ती भूस्वामित्व की बुनियाद पर पूंजीवादी विकास करने की कोशिशों के परिणामस्वरूप कश्मीर में एक एकीकृत बाजार व्यवस्था का भी धीमी गति से विकास होता रहा है। एकीकृत बाजार व्यवस्था सभी कश्मीरियों को एक दूसरे पर निर्भर बनाती है, और उनको एक बंधन में बाँधती है। इसका यह कहीं से भी अर्थ नहीं है कि कश्मीरी बाजार व्यवस्था अखिल भारतीय बाजार व्यवस्था से अलग है। यहाँ केवल कश्मीरी बाजार व्यवस्था को रेखांकित किया गया है। पूंजीपति वर्ग इसी बाजार पर अपना एकाधिकार बनाये रखने के वास्ते अलग राष्ट्र की मांग उठाता है। इस प्रकार उपरोक्त चीजें मिलकर कश्मीरी राष्ट्रीयता का निर्माण करती हैं। यही वह भावना है, जो कश्मीरियों को एकता के सूत्र में तमाम मजहबों के बावजूद बाँध कर रखना चाहती हैं। इसे ही कश्मीरी अपनी कश्मीरियत कहते हैं। इसी भावना के कारण ही आम कश्मीरी भारत या पाकिस्तान में रहने की बजाय स्वतंत्र कश्मीर चाहते हैं। साम्राज्यवादी ताकतें उस बाजार पर अपना प्रभुत्व बनाते रखना चाहती हैं। यही विवाद की असली जड़ है।
यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कश्मीरी जनता अकबर द्वारा कश्मीर को अपने शासन में मिला लिये जाने के बाद से ही अपनी गुलामी की शुरूआत मानती रही है। उनके लिए चाहे शासक मुस्लिग रहे हों या ईसाई और हिंदू, उनके लिए ये सभी विदेशी थे। इसलिए कश्मीर के इतिहास में सांप्रदायिक नजरिये का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं रहा है बल्कि उनके लिए कश्मीरी और गैर-कश्मीरी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण रहा है। उनके लिए गैर-कश्मीरी मुसलमान हो या हिन्दू वे दोनों ही उनके लिए समान रूप से पराये हैं। इसलिए कश्मीरी और कश्मीरियत को सांप्रदायिक नजरिये से देखना ही आधारहीन है।
यदि कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के जनवादी अधिकार को भारत के शासक वर्ग ने स्वीकार कर लिया होता तो भारत के लिये कश्मीर कोई समस्या होती ही नहीं। कश्मीर की समस्या वहाँ की जनता की इच्छा के विरूद्ध जाकर उस पर कब्जे से पैदा हुई है। आजादी के समय से ही दोनों देशों के भिन्न-भिन्न राज्यों में राष्ट्रीय पहचानों के आधार पर राष्ट्रीय मुक्ति को लेकर आंदोलन शुरू हो गये। जहाँ भारतीय क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीयता नगा, मिजो, मणिपुरी, असमिया, त्रिपुरी, गोरखा, कश्मीरी…. को लेकर संघर्ष शुरू हुये और सशस्त्र संघर्ष भी हुवे और यही हाल पाकिस्तान स्थिति राज्यों का भी था। वहाँ भी पख्तून, बलूच, सिंधी आदि को लेकर आंदोलनों हुआ। जिन राज्यों के संघर्षों में सशस्त्र संघर्ष रूप हुआ उनमें कश्मीर घाटी में कश्मीर की आजादी का संघर्ष भी है।
*शेष अगले भाग में…*
*अजय असुर*