(स्रोत : ‘कौन देशभक्त– कौन देशद्रोही’ पुस्तिका)
*~ जूली सचदेवा*
किसी भी देश का ध्वज ऐतिहासिक रूप से निर्धारित होता है। जनता अपने संघर्षों के दौरान अपने ध्वज का चयन और विकास करती है। ध्वज एक प्रतीक के रूप में इसके बलिदानों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी मुल्क में ध्वज उस मुल्क की जनता का प्रतीक तभी बनता है जब उसके साथ जनता का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएँ विकासमान हों। इस रूप में संघर्षरत जनता अपने ध्वज को बदलती है और पुराने ध्वज जो शासकवर्गों के प्रतीक में बदल गये होते हैं उन्हें हटाती है।
संघर्षरत जनता का अपना ध्वज चुनना एक बात है और प्रतीकों की राजनीति करना, इनके आधार पर लोगों को बाँटना दूसरी। यह सच है कि आज़ादी के दौरान तिरंगा स्वीकारा गया लेकिन आने वाले समय में संघर्षरत भारतीय जनता जो मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष करती हुई खड़ी होगी, वह अपना ध्वज चुनेगी। लेकिन आरएसएस अलग ही राग अलापता है।
यहाँ भी इसकी पश्चगामी प्रवृत्ति ही दिखाई देती है।
दूसरों से बात-बात पर देशप्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण माँगने वाले संघ ने ख़ुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया?
इण्डिया गेट पर योग दिवस पर दिखावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तिरंगे से अपनी नाक और पसीना पोंछते दिखे, अगर यही काम किसी ग़ैर-संघी से हो जाता तो भाजपा और संघ उसे ‘देशद्रोही’ बताने में विलम्ब नहीं करते। दरअसल संघ के लिए हर भावना, हर विचार उसके अपना उल्लू सीधा करने का हथियार है।
जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झण्डा फहराने का निर्णय लिया गया तो आरएसएस के संघचालक डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झण्डा पूजने का निर्देश दिया।
आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ‘ऑर्गेनाइज़र’ में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखा :
“वे लोग जो क़िस्मत के दाँव से सत्ता तक पहुँचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद ख़राब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेह होगा।”
गोलवलकर ने अपने लेख में कहा :
“कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल एक राजनीति की जोड़-तोड़ थी, केवल राजनीतिक कामचलाऊ तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परम्परा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे-से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है, जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब, क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिह्न नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे मस्तिष्कों में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)
दरअसल आरएसएस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण शासक पेशवाओं के भगवा झण्डे को, जो उसका ख़ुद का भी झण्डा है, भारत का राष्ट्रध्वज बनाना चाहता है।
“हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसीलिए इसी परम वन्दनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि अन्त में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खण्ड-1, पृष्ठ 98)
लेकिन यही आरएसएस आज पूरे देश में तिरंगे के नाम पर हिन्दू-मुस्लिम कार्ड खेलता है और सबसे बड़ा तिरंगा प्रेमी बनता है। आरएसएस का यह दोमुँहापन दरअसल मुँह में राम बग़ल में छूरी वाला है जो जनता को बेवक़ूफ़ बनाकर उनमें आपसी झगड़ा-फ़साद कराकर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरता है।
जनता की हर भावना से खेलना एवं स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रतीकों का इस्तेमाल करना इनकी पुरानी आदत है।
(चेतना विकास मिशन)