डॉ. विकास मानव
सहस्त्राब्दियों से हमारा यह समाज पुरुष प्रधान रहा है। यहाँ पुरुष ने सारे विधान अपने वर्चस्व के हिसाब से बनाये हैं और इसीलिए अगर देखा जाए तो पुरुष की तुलना में स्त्री कुछ पिछड़ गयी है। स्त्री हमारे समाज में आज भी अपने को असुरक्षित महसूस करती है।
उसकी पहली प्राथमिकता है अपनी सुरक्षा की, क्योंकि इस पुरुष प्रधान समाज के प्रतिष्ठापित ढांचे में आज एक बेटी अपने घर में अपने माता-पिता, भाई के ऊपर निर्भर है।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उसकी सुरक्षा की सारी जिम्मेदारी माता-पिता और भाई की है। इस तरह एक प्रकार से वह उनके आश्रित है। विवाह के बाद वह अपने पति और सास- ससुर की छत्रछाया में आ जाती है।
प्रकारांतर से यह कहा जा सकता है कि वह ससुराल पक्ष के आधीन हो जाती है, आश्रित हो जाती है और जब स्त्री वृद्धावस्था को प्राप्त होती है तो अपनी संतान के आश्रय में चली जाती है। यही हमारे समाज में एक स्त्री की स्थिति है और यही उसकी नियति भी है।
अपनी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए एक नारी को अगर पैसा, गाड़ी, बंगला चाहिए तो उसके पीछे अपनी सुरक्षा की ही चिन्ता है। यह तो रही स्त्री की इस आर्थिक और सामाजिक ढांचे में उत्पन्न सोच की बात।
भगवान् ने जब सृष्टि की रचना की ओर पहला कदम बढ़ाया तो स्त्री-पुरुष की रचना की। स्त्री में जो गुण और उसकी विशेषताएं प्रदान की, वे पुरुष में नहीं दी।
स्त्री चंचला, मायारूपा, सृष्टि की रचना में मुख्य भूमिका निभाने वाली, जबकि पुरुष अपने मूल रूप में स्थिर, निर्लिप्त होता है।
परामनोविज्ञान के अनुसार स्त्री में ऋणात्मक विद्युत् आवेश और पुरुष में धनात्मक विद्युत् आवेश रहता है। दोनों आवेश एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया का हिस्सा है। दोनों एक दूसरे के पूरक भी है।
धन के बिना ऋण का कोई औचित्य नहीं है और इसी प्रकार ऋण के बिना धन का भी कोई मतलब नहीं है। हम देखते हैं कि जब किसी पदार्थ के किसी परमाणु को तोड़ा जाता है तो उसमें से प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन दो एक दूसरे के विपरीत, मगर एक दूसरे की ओर आकर्षित होने वाले कण निकलते हैं।
प्रोटोन में धन विद्युत तरंग और इलेक्ट्रॉन में ऋण विद्युत् तरंग होती है। इलेक्ट्रॉन चंचल होता है और परमाणु की परिधि पर बराबर चक्कर काटता रहता है। प्रोटोन केंद्र में एक स्थान पर स्थिर है।
एक और कण होता है जो न तो धनात्मक है और न ऋणात्मक है। उसे न्यूट्रॉन कहते है। उसमें विद्युत् चुम्बकीय आवेश तो है पर उसमें तटस्थता रहती है। प्रोटोन पुरुष है, इलेक्ट्रॉन स्त्री है और न्यूट्रॉन है परमात्मा।
इस तरह से एक छोटे से छोटे परमाणु में न सिर्फ पूरा ब्रह्माण्ड का बीज समाया है बल्कि उसमें ईश्वर् भी विद्यमान है। अपनी अपनी विशेषताओं और भिन्नताओं के कारण स्त्री और पुरुष में भेद है, मानसिकता में भेद है और स्थिति में भी मूल भेद है।
लेकिन यदि वास्तव में तत्व की दृष्टि से देखा समझा जाये तो दोनों मिलकर अर्धनारीश्वर के स्वरुप हैं।
*विश्व और हमारा अस्तित्व :*
मन पर, वृत्तियों पर और उनके तमाम वासनात्मक वेगों पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है ?
इस विषय में सबसे पहले हम यह जान लें कि लड़ाई से कभी भी शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं हो सकती। लड़ाई से शत्रु को हराया तो जा सकता, परन्तु जीता नहीं जा सकता। हराने और जीतने में काफी अंतर है।
शत्रु हारने से टूट जाता है, दमित हो जाता है परन्तु शत्रुता दमित नहीं होती। उस तल पर तो वह अपराजित ही बना रहता है। शत्रु के भीतर हमारी विजय की स्वीकृति कभी भी नहीं हो पाती। शत्रु कभी भी जीते नहीं गए।
आज तक मित्र ही जीते गए हैं। विजय केवल मित्र पर ही होती है। मित्रता में ही शत्रुता पराजित होती है।
यह सिद्धांत साधना-मार्ग में आंतरिक विजय प्राप्त करने के लिए बिल्कुल निरापद है। बाहरी शत्रु तो अन्य हैं मगर भीतर के शत्रुओं को अन्य नहीं कहा जा सकता।
मन की शक्तियां, वृत्तियों की शक्तियां हमारी ही शक्तियां हैं। तमाम इच्छाएं, कामनाएं, वासनाएं भी हमारी ही शक्तियां हैं। मगर सब-की-सब दिग्भ्रमित हैं। उन सबको हमें हराना नहीं, पराजित करना नहीं, बल्कि उन्हें जीतना है और उनकी दिशा बदलकर सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर देना है।
उनका विनाश नहीं करना है, उनमें परिवर्तन करना है। इसी उपाय करने को तपश्चर्या कहते हैं। मन की शक्तियों के, वृत्तियों की शक्तियों के, कामना-वासना की शक्तियों के विनाश करने से तो हम स्वयं नष्ट हो जाएंगे। हम अज्ञानतावश उन तमाम शक्तियों को अपना शत्रु मान बैठे हैं, मगर जब मित्रता के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें सन्मार्ग में लाकर परिवर्तित कर लेते हैं तो वे तमाम शक्तियां ही दिव्य ऊर्जा का रूप धारण कर लेती हैं और परमात्मा की प्राप्ति का आधार और उस तक पहुंचने का मार्ग बन जाती हैं।
आंतरिक वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने का एकमात्र साधन है–मैत्री। हमारे भीतर शक्तियों के जितने भी केंद्र हैं, वे सब अविजित हैं। यही कारण है कि हम उन शक्तियों के हाथ में यन्त्र बने हुए रहते हैं।
हम में वासनाएं ही सब कुछ होती हैं जिनके फलस्वरूप हम विवेकशून्य से बने रहते हैं या फिर हम अंधे होकर उनसे लड़ने और संघर्ष करने लगते हैं, उनका प्रतिरोध करने लग जाते हैं। हमें समझना चाहिए कि अपनी ही इन तमाम शक्तियों से लड़ने का परिणाम क्या हो सकता है ?
उससे अपनी ही जीवनी-शक्ति और अपनी ही जीवन-ऊर्जा का ह्रास होता है। हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों से मैत्री करनी होगी।
हम अपने से भी प्रेम नहीं करते तो किसी दूसरे को क्या प्रेम करेंगे ? हमें अपने शरीर, मन और इन्द्रियों से प्रेम करना चाहिए, प्रेम करने की कला सीखना चाहिए। इनसे प्रेम करना एक कला है, एक साधना है। ये हमारे जीवन के उपकरण हैं।.
मन हमारी आत्मा का मन्दिर है। प्रेम और सहानुभूति के आलोक में ही वे उपकरण अपना-अपना रहस्य खोलते हैं और हमें उनमें प्रवेश का अवसर मिलता है। प्रेम से ही उनके भीतर प्रवेश का सौभाग्य मिलता है, प्रतिरोध से नहीं।
प्रेम से अपने भीतर एक ऐसा वातावरण तैयार होता है जो आत्मनिरीक्षण को जन्म देता है। आत्मनिरीक्षण से जीवन में सामंजस्य पैदा होता है जिसके फलस्वरूप चित्त पूर्ण चेतनामय हो उठता है और वासना, साधना में परिवर्तित हो जाती है। अन्त में विवेक की अग्नि-शिखा रह जाती है शेष।
जीवन में सामंजस्य नहीं है और यही कारण है जीवन के तमाम कष्टों का, क्लेशों का। असामंजस्य और असामान्यता ही हमारे जीवन में तमाम संतापों का कारण है।
वृत्तियों, इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं की अन्धी विच्छिप्तता ही दुःख है, संताप है, क्लेश है और है बंधन भी। इनसे छुटकारा पाना ही मुक्ति है।
*आन्तर जगत औऱ हम :*
अखिल जड़ जगत किस चैतन्य शक्ति पर विराजमान है ? शून्यवादी, निरीश्वरवादी कहते हैं कि बाह्य जगत में कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं है। तो फिर अनन्त आकाश में सब कुछ कैसे निराधार ठहरा हुआ है ? सब प्राकृतिक है तो देखने वाला, उसे अनुभव करने वाला भी तो कोई होना चाहिए।
पदार्थ गतिमान हो सकता है, उसका विचलन हो सकता है। हमारा शरीर जड़ होने पर भी हम सब के भीतर एक आंतरिक शक्ति प्रत्यक्ष अनुभव होती है।
हम उसी जगत के अंशभूत व्यष्टिरूप हैं तो व्यष्टि का समष्टि होना ही चाहिए। जब हम शक्तिरूप व्यष्टिभूत हैं तो जगत शक्तिरूप समष्टिभूत है। अगर विचारपूर्वक देखा जाय तो महातत्व की समष्टिरूप शक्ति है। वही जगत का केंद्र है और उसी को ‘आन्तर्जगत’ कहते हैं। जैसे बाह्य जगत स्थूल दृष्टि में प्रत्यक्ष है, वैसे ही आन्तर्जगत दिव्य दृष्टि में प्रत्यक्ष है।
इस तथ्य का सर्वप्रथम वेदों में वर्णन किया गया है। ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 125 वें सूक्त में कहा गया है :
आदिशक्ति भगवती कहती है–मैं ही परब्रह्म परमेश्वर की ब्रह्ममयी चेतनाशक्ति हूँ और चेतना के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड और चराचर जगत में, जड़-चेतन में प्रवाहमान हूँ। जगत कारण ब्रह्म चैतन्य रूप होकर रुद्रों और वसुओं के साथ विचरण करती हूँ। स्वर्ग में रहने वाले देवात्मक सोम को धारण करती हूँ। मैं ही जगत की ईश्वरी शक्ति हूँ। मैं ही देवों और मनुष्यों की सेव्यमान होकर स्वयं आत्मविद्या का उपदेश देती हूँ।असुरों को नष्ट करने के लिए मैं महादेव की पिनाक धनुष हूँ। मैं ही सभी भुवनों का कारण रूप होकर कार्य का प्रारंभ करती हूँ। मैं अंतरिक्ष और धरती से परे अर्थात विकारभूत जगत से परे रहती हूँ जो ‘परावाक’ से उदय पाकर पश्यन्ति में परमात्मा को देखती हुई मध्यमा स्वरूप बनकर ‘बैखरी’ में प्रस्फुटित होकर सूक्त रूप बनी हूँ। वही मूलाधार बाह्य जगत का केंद्र है। जगत का प्रलय हो जाने पर भी बीजभूत आन्तर्जगत में से ही बाह्य जगत की अभिव्यक्ति मैं ही हूँ।
भगवती आगे उद्घोष करती हैं–
मैं एकादश रुद्र, अष्ट वसु, द्वादश आदित्य देव, मित्र, वरुण, अग्नि आदि महाशक्तियों को अपने चारों हाथों में धारण किये हूँ। देवात्मक सोम, देवशिल्पी त्वष्टा, भरण-पोषण करने वाले देवता, पूषा, ऐश्वर्यदायिनी शक्तियाँ, भग आदि को मैं ही धारण किये हुए हूँ। अकर्मण्यता, उदासीनता, निरुत्साहता छोड़कर वीर, साहसी, प्रयत्नशील, उद्यम करने वालों के लिए ऐश्वर्य और ज्ञान प्रदान करने वाली मैं ही हूँ। मैं सर्वत्र व्याप्त होकर अपनी मायात्मक देह से अंतरिक्ष के अगाध सागर में विचरती हूँ। मैं कारण रूप होकर जगत का कार्य-कारण हूँ। मैं विकारभूत जगत के परे स्थान में हूँ अर्थात मैं ब्रह्मचैतन्य रूप महाशक्ति हूँ।
आदिशक्ति की उदघोष वाणी ही शक्ति है और वह वाणी परा से निकलती हुई पश्यन्ति और मध्यमा से होती हुई बैखरी रूप में ध्वनिमात्र हूँ। उसका पूर्ण रूप है–ॐ। यदि ॐ त्रिधारा है, अ, उ, म है तो उसका मूल रूप, बिंदु रूप, अर्धमात्रा चितिकला में संकलित होता है।
भगवती का उद्घोष यानी उसकी वाणी विश्व जगत की प्रथम ध्वनि है। वही ध्वनि प्रकाश बनकर जगत का निर्माण करती है।