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मुगल बादशाह जहांगीर ने ढलवाया था दुनिया का सबसे बड़ा सोने का सिक्का’,अब कहां है?

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 12 किलो वजनी सोने के सिक्‍के की कीमत क्‍या होगी? ताजा भाव से अनुमान लगाएं तो करीब 6 करोड़ रुपये। अब जेहन में यह बैठाइए कि उसे मुगल बादशाह जहांगीर ने ढलवाया था। सिक्‍के की एंटीक वैल्‍यू उसे बेशकीमती बना देती है मगर यह सिक्‍का है कहां? आखिरी बार इस सिक्‍के को हैदराबाद के निजाम VIII मुकर्रम जाह के पास देखा गया था। उनको य‍ह सिक्‍का उनके परदादा और हैदराबाद के आखिरी निजाम मीर उस्‍मान अली खान से विरासत में मिला। 80 के दशक में भनक लगी कि जाह इस सिक्‍के की स्विस बैंक में नीलामी करवाने वाले हैं, मगर सीबीआई सिक्‍का नहीं ढूंढ सकी। चार दशक तक इस सिक्‍के की खोज बेनतीजा साबित हुई। अब केंद्र सरकार ने फिर इसका पता लगाने की कवायद शुरू की है। लगभग 400 साल पुराने इस सिक्‍के के साथ भारत का इतिहास जुड़ा हुआ है। भारत सरकार के दस्‍तावेजों में यह सिक्‍का ‘मुहर’ के रूप में दर्ज है। 1970 में निजाम के खजाने से यह सिक्‍का गायब हो गया। तब से इसका कुछ पता नहीं।

जहांगीर की आत्‍मकथा, विदेशी यात्रियों में जिक्र
आखिर दुनिया का सबसे बड़ा सोने का सिक्‍का मुगलों के हाथ से निकलकर निजामों तक कैसे पहुंचा? प्रफेसर सलमा अहमद फारुकी (मौलाना आजाद नैशनल उर्दू यूनिवर्सिटी मे एचके शेरवानी सेंटर फॉर डेक्‍कन स्‍टडीज की डायरेक्‍टर) के मुताबिक, इतिहासकारों और सीबीआई अधिकारियों ने मिलकर टूटी कड़‍ियां जोड़ने की कोशिश की। प्रफेसर सलमा के अनुसार, ‘आजादी तक यह सिक्‍का हैदराबाद के निजामों के पास ही रहा। बहुत लोगों को पता नहीं कि इस सिक्‍के को जहांगीर कौकब-ई-ताली बुलाते थे।’

जहांगीर काल के सिक्‍कों की मेटलर्जी से पता चलता है कि 17वीं सदी की शुआत में ऐसे बड़े सिक्‍के ढाले जाने शुरू किए जा चुके थे। निकोलाओ मनुक्‍की और कैप्‍टन हॉकिन्‍स व अन्‍य कई अपने यात्रा वृतांतों में बड़े सिक्‍कों का जिक्र किया है। वेटिकन यात्री मनुक्‍की ने लिखा है कि ये सिक्‍के चालू नहीं थे लेकिन जहांगीर और शाहजहां जैसे मुगल बादशाहों ने इन्‍हें राजदूतों और विशेष अतिथियों को तोहफे में दिया।

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जहांगीर ने ढलवाए थे 12-12 किलो वजन वाले ये सिक्‍के
निजामों के हाथ कैसे लगा यह सिक्‍का?
सलमा ने हमारे सहयोगी ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ से बातचीत में कहा, ‘जहांगीर ने अपनी आत्‍मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में सोने की एक मुहर के बारे में बताया है जो 1000 तोले की थी और ईरान के शाह के दूत यदगार अली को भेंट की गई थी। अली 10 अप्रैल, 1612 को बादशाह अकबर की मौत पर शोक संदेश और तोहफे लेकर आए थे। 20.3 सेंटीमीटर व्‍यास वाला यह सोने का सिक्‍का आगरा में ढाला गया था।’ उन्‍होंने बताया कि सिक्‍का हैदराबाद कैसे पहुंचा, इसे लेकर एक राय नहीं है।

ईश्‍वरदास नागर ने फुतुहाते आलमगिरी में लिखा है जब बीजापुर पर दोबारा कब्‍जा हो रहा था तो औरंगजेब ने थके-हारे और भूखे सैनिकों को राहत सामग्री भिजवाई। गाजियाउद्दीन खान बहादुर, रणमस्‍त खान, अमानुल्‍लाह और बाकी लोगों की सुरक्षा में 5000 बैलगाड़‍ियों में गेंहू,चावल अैर अन्‍य अनाज और कुछ खजाना भेजा गया। ऐसा कहा जाता है कि कृतज्ञ होकर औरंगजेब ने गाजियाउद्दीन खान सिद्दीकी बहादुर फीरोज जंग I को 1000 तोला वजनी सिक्‍का दिया। विरासत में यह सिक्‍का उनके बेटे निजामुल-मुल्‍क को मिला जिन्‍होंने असफ जाह वंश की नींव डाली। अगली दो शताब्दियों के दौरान यह सिक्‍का पीढ़ी-दर-पीढ़ी निजामों के पास ही रहा। आखिर में यह नाम के 8वें नवाब, मुकर्रम जाह के पास आया मगर निजामों की तिजोरियों में यह सिक्‍का मिला ही नहीं।

भारत से बाहर कैसे गया यह सिक्‍का?
सेंट्रल इकनॉमिक इंटेलिजेंस ब्‍यूरो (CEIB) को यह मुहर (सिक्‍का) ढूंढने की जिम्‍मेदारी दी गई थी। मुकर्रम जाह ने भारत सरकार को बताया था कि सिक्‍कों को आजादी से पहले अंग्रेज लेकर चले गए थे। यह नहीं बताया कि कौन ले गया लेकिन CEIB को यकीन था कि जाह झूठ बोल रहे हैं। सरकारी दस्‍तावेजों के आधार पर वरिष्‍ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे लिखते हैं कि सिक्‍का 1970 में निजाम के खजाने से गायब हो गया। CEIB ने सरकार को बताया कि 1970s में एक शीर्ष राजनेता अपने सूट में सिक्‍का रखकर मुंबई से लंदन गए। VIPs के सामान की चेकिंग आम लोगों की तरह नहीं होती। CEIB की जांच में सामने आया कि निजाम का परिवार और कुछ वरिष्‍ठ सरकारी अधिकारी साजिश में शामिल हैं।

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बेहद दुर्लभ हैं ये सिक्‍के, बेशकीमती।
मुकर्रम शाह की एक शादी ऑस्‍ट्रेलिया की हेलेन सिमंस से हुई। जाह ऑस्‍ट्रेलिया शिफ्ट हो गए। 1987 में CEIB के तत्‍कालीन डीजी एमएल वाधवान ऑस्‍ट्रेलिया गए और सिक्‍के का पता लगाने में कस्‍टम की मदद मांगी। जाह से कस्‍टम अधिकारियों ने पूछताछ की। उन्‍होंने कहा कि उन्‍हें सिक्‍के के बारे में कुछ पता नहीं है।

नैशनल म्‍यूजियम के तत्‍कालीन डीजी एलपी सिहारे ने तत्‍कालीन पीएम इंदिरा गांधी को बताया कि मुहर को स्विट्जरलैंड में किसी हैरी विंस्‍टन ने नीलामी के लिए रखा है। गांधी ने विदेश मंत्रालय और बर्न में भारतीय राजदूत से कहा कि स्विस अधिकारियों से संपर्क कर मुहर सीज करें। समय से दखल देने पर नीलामी रुक गई। CEIB ने सरकार को यह भी बताया कि मुकर्रम जाह उस वक्‍त जिनेवा में ही मौजूद थे। स्विस अधिकारियों ने विदेश मंत्रालय को बताया कि उनके देश में सिक्‍का कहीं नहीं मिला। सूत्रों के हवाले से रे लिखते हैं कि किसी को नहीं पता कि सिक्‍का जिनेवा के बैंक की तिजोरी में कैसे पहुंचा। नीलामी इसलिए रुक पाई क्‍योंकि सरकार ने समय रहते दखल दिया। नीलामी की डीटेल्‍स एक विदेशी अखबार में छपी थीं।

कर्ज चुकाने के लिए बेचा गया सिक्‍का?
मुकर्रम जाह 2013 में कुछ वक्‍त के लिए भारत आए थे। सीबीआई और हैदराबाद पुलिस ने उनकी सिक्‍का बेचने में कथित भूमिका को लेकर कई केस दर्ज किए। जाह ने जांचकर्ताओं को बताया कि वह भारत, ऑस्‍ट्रेलिया और स्विट्जरलैंड में खुद पर लदता कर्ज चुकाने आए हैं। 2013 में उनकी सपंत्ति 50 करोड़ रुपये के आसपास थी। एक वरिष्‍ठ अधिकारी के हवाले से रे लिखते हैं कि संपत्तियों के कुप्रबंधन के चलते ही जाह ने वो सिक्‍का बेचने की कोशिश की।

जिस वक्‍त भारतीय अधिकारी सिक्‍का बिकने से रोकने में लगे थे, मुकर्रम शाह के वकीलों का तर्क था कि 1947 से पहले बाहर सिक्‍का बाहर ले जाने पर कानून लागू नहीं होता और सिक्‍का आजादी से पहले नीलोफर सुल्‍तान के जरिए पेरिस पहुंचा दिया गया था। यह दावा जाह के उस दावे से एकदम अलग था जो उन्‍होंने भारतीय एजेंसियों के सामने किया था कि अंग्रेज आजादी से पहले सिक्‍का ले गए थे। जाह उस नीलामी के वक्‍त वहीं थे और करीब 20 करोड़ रुपये कीमत की उम्‍मीद लगाए बैठे थे। उन्‍होंने स्विस बैंक से 9.82 करोड़ रुपये का कर्ज भी ले लिया था और ब्‍याज समेत रकम 10.06 करोड़ रुपये हो गई थी। चुकाने में नाकाम हुए तो अदालतों ने भारत और स्विट्जरलैंड में जाह की संपत्तियां फ्रीज करने के आदेश दे दिए। इसी के बाद सिक्‍का गायब हो गया।

मिल भी जाए सिक्‍का तो पेच है
अगर सिक्‍के का पता लग भी जाए तो भारत सरकार को उसपर अधिकार जताना होगा। स्विस कोर्ट ने 2006 में फैसला सुनाया था मगर उसमें भारत सरकार पक्षकार नहीं थी। उसे फैसले की कॉपी तक नहीं भेजी गई। फैसले की जानकारियां स्विस सरकार और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के आर्काइव्‍स में हैं। सीबीआई को इस फैसले की कॉपी पढ़कर तय करना होगा कि भारत की स्थिति क्‍या बनती है। सरकार को यह साबित करना होगा कि सिक्‍का अवैध रूप से 1947 के बाद भारत से बाहर ले जाया गया। और भी पेच है। स्विट्जरलैंड ने एंटिकुटी से जुड़े ऐसे दांवों की अंतरराष्‍ट्रीय संधि पर हस्‍ताक्षर नहीं किए हैं। सबसे अहम दस्‍तावेज अदालत के फैसले की कॉपी है जो यह साबित करेगी कि सिक्‍का निजी रूप से बेचा गया। सिक्‍के की खोज में एक बार फिर फोकस मुकर्रम जाह पर होगा।

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