विजय त्रिवेदी,
वरिष्ठ पत्रकार
जयपुर से कई टर्म बीजेपी के सांसद रहे गिरधारी लाल भार्गव। बीजेपी के राजस्थान में सबसे बड़े नेता भैरोंसिंह शेखावत से उनकी नहीं पटती थी, लेकिन फिर भी वह बड़े लोकप्रिय थे। उनके निधन के बाद ही पहली बार जयपुर की संसदीय सीट बीजेपी हारी थी। भार्गव जयपुर में हर दिन अपने स्कूटर पर निकल जाते और पूरे शहर में किसी के निधन, किसी की शादी जैसे तमाम कार्यक्रमों में शिरकत करते हुए देर रात घर लौटते। शहर के लोगों का एक और बड़ा काम उन्होंने किया। तब जयपुर के श्मशान गृह में ऐसी बहुत सी अस्थियों का ढेर पड़ा रहता था जिसे कोई प्रवाहित करने वाला नहीं होता था। भार्गव हर शनिवार की रात बोरी भर कर अस्थियां राजस्थान रोडवेज की बस से हरिद्वार ले जाते, और पूरे विधि-विधान के साथ उन्हें हर की पौड़ी पर प्रवाहित कर आते। जयपुर में हर पार्टी का कार्यकर्ता और वोटर उन्हें अपना नेता मानता था। दिल्ली में सांसद के तौर पर जब उन्हें घर मिला तो वे उसका सिर्फ एक कमरा इस्तेमाल करते थे, बाकी घर राजस्थान से आने वाले लोगों के लिए हमेशा खुला रहता था। वहां भंडारे की व्यवस्था रहती थी हमेशा। एक बार जयपुर के पूर्व नरेश भवानी सिंह ने उनके खिलाफ चुनाव लड़ा। भार्गव का नारा था- जिसका कोई न पूछे हाल, उसके संग गिरधारी लाल। और जनता के इस नुमाइंदे ने राजा को हरा दिया।
मंत्री जी को वोटरों ने बैनर से दिया जवाब
वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद रेसकोर्स रोड के उनके सरकारी आवास पर पुस्तक विमोचन और मिलन के कार्यक्रमों का आयोजन रोज की बात हो गई थी। वाजपेयी के जन्मदिन पर हजारों लोग उन्हें बधाई देने पहुंच जाते और मेला सा लगा रहता। मुझे भी कई बार उनके साथ देश के अलग-अलग शहरों में जाने का मौका मिला। वहां भी वही हाल रहता। कार्यकर्ताओं से मिलने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। लेकिन वाजपेयी सरकार में एक बड़े मंत्री थे। उन्होंने अपने घर के बाहर तख्ती लगवा दी, ‘कृपया तबादलों और दाखिलों के लिए न मिलें।’ किसी ने पूछा कि कार्यकर्ता का इतना सा भी काम नहीं करेंगे तो उसकी सरकार होने का क्या मतलब? ब्रह्म ज्ञान वाले मंत्री जी ने कहा, ‘सरकार में सब बराबर हैं’। उसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में उनके क्षेत्र में जाने का मौका मिला, तो वहां बहुत सी कॉलोनियों में बैनर लगे हुए थे, ‘कृपया वोट के लिए न मिलें।’ उस चुनाव का नतीजा तो आप नहीं ही जानना चाहेंगे।
ऐसे ही यूपीए सरकार में दिल्ली से कांग्रेस के एक बड़े मंत्री थे। दिल्ली में माता की चौकी यानी जागरण के कार्यक्रम बहुत होते हैं। हर कोई चाहता है कि उनके कार्यक्रम में स्थानीय सांसद या विधायक जरूर आएं। चुनाव से पहले खुद को दिल्ली का असल पंजाबी बताने वाले नेताजी के मंत्री बनने के बाद सुर बदल गए। उन्होंने साफ मना कर दिया किसी माता की चौकी या जागरण के कार्यक्रम में जाने से। आजकल वे न मंत्री हैं, न ही सांसद और अब उन्हें माता की चौकी के लिए भी कोई नहीं बुलाता।
नई पार्टी बनाना और उसे अलग पहचान देना आसान काम नहीं था। नए राजनीतिक दल का नाम तय करने की बात जब उठी, तब भी पार्टी के बहुत से नेता इस बात के लिए दबाव डालते रहे कि उसका नाम फिर से ‘भारतीय जनसंघ’ ही रखा जाए लेकिन पार्टी के ज्यादातर कार्यकर्ताओं और नेताओं ने वाजपेयी के इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि उसका नाम ‘भारतीय जनता पार्टी’ होना चाहिए। वाजपेयी ने कहा कि इस नाम से यह साफ होता है कि हमारे संबंध भारतीय जनसंघ और जनता पार्टी दोनों से रहे हैं, लेकिन अब हम अपनी अलग और नई पहचान बनाना चाहते हैं।
पार्टी के कमल निशान की कहानी
अब नई पार्टी के लिए निशान और झंडे की खोज शुरू हुई। झंडे में एक तिहाई हरा रंग और दो तिहाई भगवा रंग शामिल किया गया। बीजेपी के पास उस वक्त कोई चुनाव चिह्न नहीं था क्योंकि वह चुनाव आयोग में पंजीकृत पार्टी नहीं थी। आडवाणी की अगुआई में एक प्रतिनिधिमंडल ने मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर से मुलाकात की। शकधर ने कहा कि पार्टी के लिए इतनी जल्दी चुनाव चिह्न का आंवटन करना तो मुमकिन नहीं है, लेकिन फिलहाल निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए रखे गए चुनाव चिह्नों में से किसी एक को पसंद कर लिया जाए, तो आयोग पार्टी के सभी उम्मीदवारों को वही चुनाव चिह्न दे देगा। इससे बिना पंजीकृत पार्टी के भी सभी उम्मीदवार एक चुनाव चिह्न पर मैदान में उतर सकेंगे। आडवाणी ने उन चिह्नों में से कमल को पसंद कर लिया और आयोग ने हामी भर दी। इस तरह बीजेपी का चुनाव चिह्न कमल हो गया।
1980 में जनता पार्टी से निकल कर भारतीय जनता पार्टी बनाते वक्त वाजपेयी के दिमाग में नई पार्टी को लेकर शायद एक अलग तस्वीर थी। वह जनसंघ की ताकत को साथ लेते हुए बीजेपी का विस्तार करना चाहते थे। आपातकाल के दौरान जिन लोगों ने लोकतंत्र की लड़ाई में हिस्सा लिया था और समान विचारधारा के प्रबुद्ध लोग थे, उन्हें वह बीजेपी में शामिल करना चाहते थे। इसीलिए पहली बार पार्टी में उन लोगों को भी सदस्य बनाया गया जो संघ परिवार से जुड़े नहीं रहे थे। इससे पहले जनसंघ में लोग संघ परिवार के रास्ते ही आते थे। एक और अहम बदलाव वाजपेयी ने जनसंघ और बीजेपी में किया। यह बदलाव था पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवतावाद’ के साथ ‘गांधीवादी समाजवाद’ को जोड़ना। बीजेपी में इसको लेकर एकराय नहीं बन पा रही थी और कुछ लोगों ने तो इसका खुलकर विरोध किया। यहां तक कि राजमाता विजया राजे सिंधिया ने इसके खिलाफ एक नोट जारी करके कहा कि गांधीवादी समाजवाद को अपनाने से बीजेपी कांग्रेस की फोटोकॉपी हो जाएगी।
(त्रिवेदी की पुस्तक ‘बीजेपी: कल, आज और कल’ से साभार)