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कुछ गिने-चुने कोने रह गए हैं जहां पत्रकारिता हो रही है बाक़ी जगह हो रहा है प्रोपेगेंडा

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“…मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट हो रही है, ऐसे में अब कुछ गिने-चुने कोने रह गए हैं जहां पत्रकारिता हो रही है बाक़ी जगह प्रोपेगेंडा हो रहा है।”

नाज़मा ख़ान

भारत के चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कुछ समय पहले एक कार्यक्रम में कहा था कि “एक राज्य की संकल्पना में मीडिया चौथा स्तंभ है और एक लोकतंत्र का अभिन्न अंग। एक स्वस्थ लोकतंत्र में हमेशा पत्रकारिता को ऐसे संस्थान के तौर पर बढ़ावा देना चाहिए जो सत्ता से कठिन सवाल कर सके। जब प्रेस को ठीक ऐसा करने से रोका जाता है तो, किसी भी लोकतंत्र की जीवंतता से समझौता किया जाता है। अगर किसी देश को लोकतंत्र बने रहना है तो प्रेस को आज़ाद रहना चाहिए।”

चीफ़ जस्टिस कहते हैं कि “प्रेस को आज़ाद रहना चाहिए” लेकिन क्या मौजूदा दौर में हम ऐसा मान सकते हैं? पत्रकारों ने हर दौर में अलग तरह की चुनौतियों का सामना किया है, लेकिन भारतीय मीडिया इस वक़्त जिस दौर से गुज़र रही है वो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो रहा है। ये वो दौर है जब पत्रकार अपनी जान जोखिम में डालकर ख़बर कर रहे हैं, खोजी पत्रकारिता तो क़रीब-क़रीब ख़त्म ही हो गई है और जो गिने-चुने स्वतंत्र मीडिया संस्थान ख़बर को ख़बर के तौर पर पेश करने का ‘जोखिम’ उठा रहे हैं उन्हें UAPA ( Unlawful Activities ( Prevention) Act) जैसे कानून का सामना करना पड़ रहा है। (गौरतलब है कि UAPA एक आतंकवाद-विरोधी कानून है और इसके तहत गिरफ़्तारी होने पर ज़मानत मिलना बेहद मुश्किल होता है।)

साल 2023 में जब ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स’ की रैंकिंग जारी हुई तो भारत 11 पायदान फिसलकर 180 देशों की लिस्ट में 161 वें नंबर पर नज़र आता है। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ नाम की संस्था जिसकी शॉर्ट फॉर्म को RSF कहते हैं इस इंडेक्स को तैयार करती है। ये अंतरराष्ट्रीय संस्था पांच कैटेगरी के साथ ही कुछ और पैमानों के आधार पर इंडेक्स तैयार करती है। RSF की भारत को लेकर कही गई कुछ बातों को ज़रूर पढ़ना चाहिए। 

RSF ने सेफ्टी के लिहाज़ से भारत को मीडिया के लिए दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक बताया है। इनके मुताबिक “हर साल क़रीब तीन या चार पत्रकारों को अपने काम की वजह से जान गंवानी पड़ती है। पत्रकारों को सभी प्रकार की शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है, जिसमें पुलिस हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा की जाने वाली हिंसा, आपराधिक समूहों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों के द्वारा भी। सोशल मीडिया या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर भी पत्रकारों खासतौर पर महिला पत्रकारों को निशाना बनाया जाता है। RSF ने कश्मीर में भी स्थिति को चिंताजनक बताया। 

पिछले 6 महीने से हिंसाग्रस्त मणिपुर की कवरेज और फैक्ट फाइंडिंग टीम को लेकर जिस तरह का रवैया निभाया जा रहा है वो अपने आप में ही कई सवाल खड़े करता है। सितंबर महीने में पुलिस ने ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’  की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम के ख़िलाफ़ ही FIR दर्ज कर दी जिन्हें बाद में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से राहत मिली। वहीं न्यूज़क्लिक पर जिस तरह से कार्रवाई की गई उसे लेकर पूरी दुनिया की नज़र एक बार फिर भारत की तरफ मुड़ गई।

राष्ट्रीय प्रेस दिवस

आज, 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के तौर पर मनाया जाता है। भारत में प्रेस के लिए नियामक संस्था भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना 16 नवंबर 1966 को हुई थी, तभी से इस दिन को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इस परिषद के मुख्य उद्देश्य में एक सबसे अहम है – प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखना। 

लेकिन जब हम साल 2023 में प्रेस की स्वतंत्रता को देखते हैं तो क्या नज़र आता है? ये सवाल ही अपने आप में एक सवाल बन जाता है। देश की पत्रकारिता ने भले ही स्वर्ण काल न देखा हो लेकिन एक लंबा सफर तय किया है। भारतीय पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर गौरी लंकेश जैसे बेहतरीन पत्रकारों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने सच लिखने, समाज को बचाने के लिए अपनी जान देकर क़ीमत चुकाई।

हमने कारवां के कार्यकारी संपादक हरतोष सिंह बल से मौजूदा दौर में स्वतंत्र पत्रकारिता पर बात की। 

सवाल: 2023 में पत्रकारिता को आप कैसे देखते हैं?

जवाब: पत्रकारिता का इतना बुरा वक़्त मैंने अपने 25 साल के काम में नहीं देखा। दिक्कत ये है कि 2014 से साल दर साल ये गिरावट हो ही रही है। पत्रकारिता करने की फ्रीडम में गिरावट हो रही है, मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारिता के स्तर में लगातार गिरावट हो रही है, ऐसे में अब कुछ गिने-चुने कोने रह गए हैं, जहां पत्रकारिता हो रही है बाकी जगह प्रोपेगेंडा हो रहा है और सरकार का कंट्रोल इस पूरी मैसेजिंग, जो मीडिया के थ्रू जा रही है, उसपर काफी हद तक हो गई है।

सवाल: पत्रकारों को हर दौर में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, आज की चुनौतियां कैसी हैं?

जवाब: पत्रकार एक हद तक ही संघर्ष कर सकते हैं अगर पत्रकारिता की जो संस्थाएं हैं वे झुक जाएं या प्रोपेगेंडा का एक हिस्सा बन जाएं तो फिर पत्रकार के पास पत्रकारिता करने की जगह ही नहीं रह जाती है। पैसे के संसाधन बनाना पत्रकार ये खुद नहीं कर सकते हैं वो थोड़ा बहुत प्रतिरोध (Resist) कर सकते हैं लेकिन जहां पर पूरी संस्थाएं ढह गई हैं, सरकार के साथ खड़ी हो गई हैं, प्रोपेगेंडा कर रही हैं वहां पर पत्रकार यही कर सकते हैं कि या तो अपना छोटा-सा यूट्यूब चैनल बना लें या फिर जो गिनी चुनी संस्थाएं बची हैं उनमें नौकरी तलाशें लेकिन ऐसी कितनी नौकरियां रह गई हैं, तो मैं दोष पत्रकारों को नहीं देता हूं ये जो मीडिया का एक संसाधन है, ढांचा बना हुआ है इसको ही सरकार ने Co-Opt (सहयोगित) कर लिया है, अपना हथकंडा बना लिया है।

हमने इसी से जुड़े कुछ सवाल वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश से भी पूछे।

सवाल: आज के दौर की चुनौतियां क्या हैं? 

जवाब: आज के मीडिया में असहमति की जो तनिक भी आवाज़ थी उसको भी ख़त्म कर दिया गया है, मैं मेनस्ट्रीम मीडिया की बात कर रहा हूं, कहीं भी किसी विषय पर डिस्कशन करना, कोई मुद्दा आता है तो उसपर ओपन माइंड से रिपोर्ट करना या लिखना ये मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए असंभव काम हो गया है।

वे आगे कहते हैं कि “मीडिया मालिकों में कोई डायवर्सिटी नहीं है, सब एक ही तरह के है, तो एक तरह का होने की वजह से वो अपने-अपने संस्थानों में भी डायवर्सिटी को, वैचारिक भिन्नता को, असहमित को, लोकतांत्रिक ढंग से चीज़ों को देखने के नज़रिए को महत्व नहीं दे रहे हैं। वे नहीं जानते की इसकी कितनी बड़ी कीमत ये देश, ये डेमोक्रेसी चुका रही है, उनको ये फील ही नहीं होता है क्योंकि उनको इसका फायदा मिल रहा है।”

सवाल: क्या आज स्वतंत्र मीडिया बचा है, अगर हां तो वो किन बंदिशों से गुज़र रहा है? 

जवाब: अगर आपका सवाल मेनस्ट्रीम मीडिया से है तो जो बड़े हाउसेज़, बड़ी कैपिटल और बड़े संस्थान जो चलते हैं वहां स्वतंत्र मीडिया के लिए कोई जगह नहीं है। जो वेबसाइट हैं, न्यूज़ पोर्टल हैं, कुछ यूट्यूब हैं वहां स्वतंत्र मीडिया की थोड़ी-सी जगह है लेकिन वो बहुत ही सिकुड़ रही है, सिमट रही है उन पर तरह-तरह के दबाव, तरह तरह के दमन ढाए जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में ये कब तक झेल पाएंगे ये कहना बहुत कठिन है मेरे लिए।

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