मुनेश त्यागी
आज भारत के अमर साहित्यकार उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि (8 अक्टूबर1936) का अवसर है। उन्होंने अपने जीवन में 300 से ज्यादा कहानियां और 15 से ज्यादा उपन्यास लिखे। उनका पहला उपन्यास “सोजे वतन” था जो अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था इसमें देशभक्ति की कहानियां थी। उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और हिंदी पर उनका समान अधिकार था। बंगला साहित्यकार शरद चंद्र ने मुंशी प्रेमचंद को “उपन्यास सम्राट” की उपाधि दी थी।
उन्होंने अनुवाद किये और नाटकों की भी पटकथा लिखी। उनका आखिरी उपन्यास गोदान था। उन्होंने राजा महाराजाओं की जगह किसानों, मजदूरों और महिलाओं को वाणी दी, बोलना सिखाया और अपने कहानी और उपन्यासों में नायक नायिका बनाई। यही उनका सबसे बड़ा योगदान है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गई प्रेमचंद इसके संस्थापक अध्यक्ष थे।
उन्होंने बेजबानों को जबान दी, उन्हें बोलना सिखाया, उन्हें अन्याय, शोषण, दमन, उत्पीड़न और अत्याचार का सामना करना सिखाया, उसके खिलाफ लड़ना सिखाया। उनकी रचनाएं ऐसी है जैसे कि वह आज ही लिखी गई हो, कल ही लिखी गई हों। प्रेमचंद द्वारा उठाए गए मुद्दे आज भी समाज के ज्वलंतशील मुद्दे बने हुए हैं, उनका निदान होना बाकी है। जनता को न्याय, समानता, समता और आजादी मिलनी अभी बाकी है।
प्रेमचंद साहित्य के जरिए प्रचार करते थे। उनका कहना था कि सभी लेखक कोई ना कोई प्रॉपेगंडा करते हैं। क्या पूंजीवाद, सांप्रदायिकता और महाजनी की वकालत करते लोग, प्रोपेगंडा नहीं करते हैं? उन्होंने लिखा था कि “हम तो सांप्रदायिकता को समाज का कोड समझते हैं।” उनकी रचनाओं में हिंदू मुसलमान एकता की बात मिलती है। वे सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ाने वाले लेखक थे। वे हिंदू मुस्लिम एकता में विश्वास करते थे। यही कारण है कि उनकी अनेक रचनाओं में मुसलमान पात्रों को नायक के रूप में पेश किया है। इसी कारण उनकी ईदगाह कहानी का अमर पात्र ,,,,, हामिद, आज भी लोगों की जबान पर चढ़ा रहता है।
प्रेमचंद की मशहूर कहानियों में,,, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, ठाकुर का कुआं, पूस की रात, कफन, ईदगाह, बड़े घर की बेटी और न जाने कितनी महान कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनके उपन्यासों में, सोजे वतन, कर्मभूमि, रंगभूमि, गोदान जैसे मशहूर उपन्यास शामिल हैं। प्रेमचंद ने सदियों के बहरों को सुनाया और सुनाने के लिए लिखा। उन्होंने गरीबों, वंचितों, शोषितों और अभावग्रस्तों को वाणी दी, बोलना और विरोध करना सिखाया और राजा रानी की जगह अपने उपन्यासों और कहानियों में उन्हें नायक और नायिका बनाया और और समाज में सम्मान से जीने की वकालत की।
प्रेमचंद ने अपने लेखन में सती प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा, बेमेल विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह, योग्य वर वधु की वकालत की और सामंतवाद और पूंजीवाद का घोर विरोध किया। प्रेमचंद अपने को कलम का सिपाही और कलम का मजदूर कहा करते थे और वह कहते थे कि जब तक मैं समाज हित में कुछ लिखना लूं, तब तक मुझे खाने का अधिकार नहीं है।
उन्होंने समाजवाद और साम्यवाद को, सारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रोगों और अवरोधों की, रामबाण दवा बताया। उन्होंने जलसे, जलूस, प्रदर्शन और प्रतिरोध का समर्थन करने को, जनता के अति आवश्यक हथियार बताया और कहा कि यह सब जिंदा होने की निशानियां हैं और ये बताते हैं कि अभी हम मरे नहीं हैं, जिंदा हैं।
उन्होंने कहा कि साम्यवाद का विरोध कोई क्यों करेगा? जो विचार समता, समानता, आजादी, बराबरी और सबके साम्य और बराबरी की बात करता हो, उससे उच्च विचार कोई नहीं हो सकता और यह कह कर साम्यवाद का पक्ष लिया और इसकी स्थापना की वकालत की।
महान साहित्यकार प्रेमचंद ने साहित्य को मशाल बताया और कहा कि साहित्य राजनीति के आगे आगे चलने वाली मशाल है। यह दुनिया को रोशन करता है और उन्होंने जनता के साहित्य को आगे बढ़ाने की बात की। उन्होंने अपने तमाम लेखन में सबको शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और कानूनी हक देने की मांग की। प्रेमचंद ने अपने समस्त लेखन में अन्याय, शोषण, गैर बराबरी, भेदभाव, छोटा बड़ा, ऊंच-नीच की मानसिकता का विरोध किया और शोषितों, वंचितों, गरीबों और उत्पीड़ितों को इनका विरोध करना सिखाया।
उन्होंने कहा कि साहित्य मनोरंजन की वस्तु या समान नही है, लेखक का काम महफिले सजाना नहीं है। उन्होंने आह्वान किया कि लेखकों को ऐसा साहित्य रचना चाहिए जो समता, समानता, आजादी, जनतंत्र, सांप्रदायिक सौहार्द, आपसी मेल मिलाप, भाईचारे और समाजवादी समाज की स्थापना की बात करता हो, जो उसे जगाये, सुलाये ना।
प्रेमचंद कहा करते थे की एक पूंजीपति और जमीदार और सामंत को हटाकर, उसकी जगह दूसरा पूंजीपति और जमींदार बिठाने से देश की समस्याओं का हल नहीं हो सकता। देश के करोड़ों किसानों और मजदूरों की समस्याओं का हल करने के लिए किसानों मजदूरों की सरकार जरूरी है, समाज में समाजवाद की स्थापना करना जरूरी है, इसके बिना जनता की समस्याओं का हल नहीं हो सकता और हजारों साल की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकती।
प्रेमचंद ने किसी भाषा विशेष पर जोर नहीं दिया था। उन्होंने हिंदी या उर्दू का पक्ष नहीं लिया था, बल्कि वे हिंदुस्तानी भाषा को सबसे ज्यादा पसंद करते थे। इसी कारण उन्होंने अपना अधिकांश साहित्य जनता की भाषा में रचा और संस्कृतनिष्ठ और अरबी फारसी शब्दों को लिखने से परहेज किया था। हमारे देश में आज प्रेमचंद की इसी बात को हमारे फिल्मकारों ने अपनाया और हिंदुस्तानी भाषा गाने और संवाद बनकर पूरे देश में छायी हुई है।
प्रेमचंद जीवन भर अपनी गरीबी से नही उबर पाए थे। उन्हें जीवन भर दो जोड़ी धोती कुर्ता, कच्चा मकान और खाने के लाले ही पड़े रहे। उन्होंने देश और दुनिया से कुछ भी नहीं लिया और अपना सब कुछ हमें देकर चले गए हुए। वे जीवन भर अभावों और गरीबी से जूझते रहे, मगर आने वाली पीढ़ियों को समृद्ध साहित्य देकर चले गए। ऐसे युगदृष्टा और महान साहित्यकार को भला कैसे भूल जा सकता है?
भारत के किसान और मजदूर उन्हें हमेशा हमेशा ही याद रखेंगे।
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का भारतीय साहित्य में वह स्थान है जो गोर्की का सोवियत यूनियन में और लूसुन का चीन में था। उन्हें हम भारत का गोर्की और चीन का लूसुन भी कह सकते हैं। आज भारत के साहित्यकारों को प्रेमचंद के रास्ते पर चलने की जरूरत है और समाज में उग आई जनविरोधी सरकार की नीतियों का भंडाफोड़ करना जरूरी है और जनता को इनके बारे में अवगत कराना सबसे जरूरी है। तभी जनता अपने कल्याण का नीतियों और अपनी सरकार बनाने का रास्ता चुन सकती है।
महान क्रांतिकारी साहित्यकार प्रेमचंद ने साहित्य के द्वारा जनजागरण और जनकल्याण की जो मशाल उठाई और जलाई थी, उसे आज जलाये रखने और आगे ले जाने की जरूरत है। आज हमें ज्ञानवान, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जनसाहित्य रचने की सबसे ज्यादा जरूरत है।