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बैताल कथा : राजनीति में रिश्ते नहीं होते

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– विवेक मेहता

 फिर से राजा ने चुपचाप जाकर पेड़ पर से लाश को उतार कर कंधे पर लोकतंत्र की तरह लादा और चल पड़ा। लाश में छुपे बैताल ने कहा- “लगता है राजन, राज भार ज्यादा हो गया है। निराश और थके हुए लगते हो। चलो तुम्हारी परेशानी दूर करने के लिए एक कहानी सुनाता हूं- जम्बूद्वीप के गणराज्यों की परिषदों के सभासद का चुनाव बड़ा खर्चीला होता जा रहा था। कहने को तो खर्चे की सीमा तय थी मगर लोग मानते थे- कि नियम होते ही इसलिए है कि उन्हें तोड़ा जाए। क्या विपक्ष, क्या पक्ष सभी चुनावों में बेलगाम खर्चे किया करते थे। जब किसी पार्टी को सरकार बनाने के लिए बहुमत नहीं मिलता तो खरीद मंडी लग जाती थी। और ‘माननीय’ अपनी खुद की बोली लगवा कर बिक जाते थे। इसबीच वे पंचतारा होटलों का आनंद भी उठा लेते। गणराज्य से द्वीप की परिषद में प्रतिनिधि भेजने का चुनाव भी दो-तीन वर्षों में एक बार आ जाता और त्रिशंकु, कमजोर बहुमत वाले गणराज्यों के चुने हुए सभासदों को कभी-कभी यहां से भी वसूली का मौका भी मिल जाता। चुनाव के मौसम में कभी किसी पार्टी का जोर होता, हवा चलती तो लोग कहते- वह पार्टी गधे को भी टिकट दे दे तो वह चुनाव जीत जाएगा। लोगों का क्या? उनका काम तो है कहना! जिसे टिकट मिलता वही जानता था कि कितने लोहे के चने चबाना पड़ते है, जूतियां घिसना पड़ती है,पैसों की नदियां बहाना पड़ती है, गधे को बाप बनाना पड़ता हैं। तब जाकर चुनाव जीता जाता हैं।

             ऐसी ही देशकाल, परिस्थिति में चुनाव के वक्त एक गणराज्य में रामलाल जी को पहली बार सभासद का टिकट मिल गया। उनकी फटी जेब की थोड़ी सिलाई पार्टी ने चुनावी फंड से कर दी। फिर भी जेब तो काफी फटी थी तो सिलवाने के लिए व्यापारी दोस्त के हाथ पांव जोड़ कर खर्चे करवाना पड़ें। उसकी इस धंधे में लगाई पूंजी से रामलाल जी चुनाव जीत गए। बाद में व्यापारी दोस्त ने अपने इस इन्वेस्टमेंट्स से कई गुना प्रॉफिट कमाया। दूसरी बार जोड़ तोड़ कर रामलाल जी टिकट ले आए । व्यापारी दोस्त की व्यवस्था से चुनाव भी जीते। तीसरे चुनाव के वक्त रामलाल जी इतने सदर हो चुके थे कि पार्टी फंड के लिए थोक में रुपए देकर टिकट खरीद लिया। अब व्यापारी दोस्त की जरूरत कम हो गई। पैसों की वसूली के लिए उन्होंने सब कमाऊं विभागों में अपने आदमी सेट कर दिये। वे आदमी उन्हें कमाई वाले कामों में गड़बड़ी की सूचना देते और रामलालजी उस जानकारी के आधार पर ‘येन केन प्रकारेण’ वसूली कर लेते। अपनी इस व्यवस्था से उन्हें समाचार मिले कि उनके व्यापारी दोस्त ने जमीन खरीदी हैं। उसके नामांतरण में कमाई की संभावना हैं। उन्होंने उस विभाग के अफसर को निर्देशित किया कि काम बिना पैसों के नहीं होना चाहिए अन्यथा विभागीय जांच और ट्रांसफर के लिए तैयार रहें। हुआ भी ऐसा ही। व्यापारी दोस्त के काम में अड़ंगा लगा। वह सभासद के पास पहुंचा रामलाल जी बोले- ‘साले अफसर पर ईमानदारी का भूत चढ़ा हैं। मैं कुछ व्यवस्था करता हूं।’ व्यवस्था तो होना नहीं थी। हुई भी नहीं। मामला लंबा खींचते देख व्यापारी ने अफसर से सीधी बात की। पैसा देकर मामला निपटा लिया। उसने जोश में आकर रामलाल जी को फोन भी कर दिया- ‘आपकी तो कृपा रही नहीं। लक्ष्मी जी ने कृपा की मामला सुलझ गया। जय श्री राम’

 रामलाल जी बोले- ‘तुमने जल्दी कर दी। मैंने ऊपर बात कर कर ली थी। मामला बस निपटने ही वाला था। विश्वास तो रखते मुझ पर।’

       और उसी शाम को अफसर रामलाल जी के पास उनका हिस्सा पहुंचा गया।”

       कहानी समाप्त कर बेताल ने प्रश्न किया- “राजन, व्यापारी दोस्त के खर्चे और व्यवस्था से ही रामलाल जी चुनाव जीतते रहे थे। फिर भी मौका मिलते ही उन्होंने अपने व्यापारी दोस्त को मुंडने के लिए खेल क्यों खेला? इस सवाल का जवाब जानते हुए भी नहीं दोगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे।”

” डाकन भी सात घर छोड़ देती होगी, राजनीति में तो अपनी मां से भी रिश्ता नहीं होता। दोस्ती फिर क्या चीज हैं! राजनीति में, कंधे ऊपर चढ़ने के लिए उपयोग में आते है, नीचे उतरने के लिए नहीं। रामलाल जी को अब टिकट खरीदना पड़ता हैं। उसके लिए पैसों की व्यवस्था तो करना ही पड़ेगी! उन्होंने यही किया।”

          राजा के चुप होते ही बेताल राजा के कंधे पर से लाश को लेकर पेड़ पर लटक गया।

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