अग्नि आलोक
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संघर्ष होना चाहिए मक्कार मुल्लों से, कट्टर इदारों से. जातिवाद, फिरक़ापरस्ती से

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नाज़िश

अम्मी हज से लौटकर बताने लगी, सऊदी में औरतें भी वर्कर होती हैं. सफाई कर्मचारी, वॉलंटियर, देख रेख वगैरह के कामों में. लेकिन सब सर से पैर तक बुर्क़े में. सिर्फ आंख खुली. किसी भी सऊदी औरत का चेहरा नहीं दिखा. सुनकर मैं हैरान थी.

सऊदी में औरतों को driving के लिए संघर्ष करना पड़ता है, ईरान में बुर्क़ा हटाने के लिए. पड़ोसी देश अफगानिस्तान में भी इसकी तपिश पहुंचनी चाहिए. लेकिन भारत में ईरान की तरह हिजाब की प्लेटें सिधवाने के लिए पुलिस नहीं लगी, न अफगानिस्तान की तरह सर से पैर तक लबादा न लादने पर सरेराह, बीच चौराहे डंडे बरसाए जा रहे.

हिंदुस्तानी ख़्वातीन में कोई बुर्क़ा (फुल कवर) लेता है, कोई हिजाब (हेड कवर), कोई चादर. कोई सर पे दुपट्टा भी नहीं. कोई बाहर जींस पहनकर घूम लेती है. किसी को घर में भी मैक्सी की इजाज़त नहीं.

यहां पहनावे सरकार नहीं तय कर रही सो, संघर्ष सड़क पर होने का कोई अर्थ नहीं. उनकी नक़ेले धर्म के नाम पर पितृसत्ता के वाहकों के हाथ में हैं. संघर्ष होना चाहिए घर में. अपने पिता, भाई, पति, बेटों से. कई दफ़ा इसी पितृसत्ता की संवाहक औरतों से भी. मक्कार मुल्लों से, कट्टर इदारों (संस्थाओं) से. जातिवाद, फिरक़ापरस्ती (संप्रदाय वाद) में एक दूसरे से रोटी-बेटी का संबंध न बनाने वालों से.

  1. एक जानने वाले बरेली ख्यालात के हैं. रिश्ता दूसरे फिरक़े में अच्छा था लेकिन बेटी की शादी दूर किसी गरीब के यहां तय कर दी. वजह- बेटी के सुख से ज़्यादा ज़रूरी है फिरक़ा.
  2. और देखिये – निकाह में लड़की की रज़ा पूछी जाती है. सो लड़की को न-राज़ी होने का भी विकल्प मिलना चाहिए. शरीयत की तरफ से उसे हक़ है लेकिन कब किसी लड़की ने कहा, ‘कुबूल नहीं है’ !
  3. , और सुनिये, निकाह के साथ होती है मेहर. यानी, वो रकम है जो निकाह के वक़्त तय हो जाती है कि अगर कभी लड़का तलाक़ दे, लड़की खाली हाथ नहीं लौटाए जाएगी. एक क़िस्म की financial security. यहां भी रकम ज़माना या महंगाई के ऐतबार से कम, इस बात से तय होती है कि अलां की बेटी की कितनी थी, फलां की बहन की कितनी. ब्याह दी जाने वाली बिटिया का मुंह तो वैसे भी बंद ही रहना है सुसंस्कृत, सभ्य, संस्कारी लड़की के नाम पर. अकसर वो रक़म मिलती भी नहीं है.
  4. एएमयू जामिया को जाने दीजिये, आस पास के डिग्री कालेज, विद्यालयों में देखिये मुस्लिम लड़कियां कितनी हैं ? कुंजी और गाईडों के सहारे बीए पास लड़कियों को छोड़कर ढूंढिये ज़रा टेक्निकल education में लड़कियां कितनी है ? पढ़ ले गई हैं तो नौकरियों में कितनी है ?
  5. कब लड़कियों ने कहा उन्हें सोफ़ा, ज़ेवर, अलमारी के झुनझुने देकर बाप की जायदाद से बेदखल कर दिया जाए ? जिन्हें जायदाद में हिस्सा मिला भी तो रिश्तों की गर्मी जाती रही. हक़ की बात करने वाले बेटी-बहन ‘लैमार’ घोषित हुए.
  6. शरीयत तो यह भी है कि सास ससुर की सेवा बहु पर फ़र्ज़ नहीं, बेटा करे. बहु करती है तो उसका एहसान मंद होना चाहिए. इस संदर्भ में मुस्लिम छोड़िये, पूरे भारतीय समाज का हाल जग जाहिर है. स्पष्टिकरण की आवश्यकता है क्या ?
  7. और हां, तीन तलाक़ के विरोध में सड़क पे उतरी औरतें जागरूकता की देवी नहीं थी. वे मर्दों द्वारा भेजी गई पितृसत्ता को बचाए रखने का माध्यम भर थी.

चिड़िया को बताईये ही न कि उसमें उड़ने की सिफ़त है. नज़रें घुमा कर वह डैने देखे तो छंटवा दीजिए. अब पिंजरा खोलिए, बन्द रखिये क्या ही फ़र्क़ पड़ता है ! दो चार ज़रा चहचहाए तो हराम-हलाल, जन्नत-दोज़ख कह के डरा दीजिये. न डरे तो फतवा दीजिये.

जब तक औरतें समझेंगी नहीं कि कितनी चालाकी से धर्म को टूल बनाकर उनका शोषण किया जाता है, कैसे अधिकार छुपाकर सिर्फ कर्तव्य की चक्की में पीसा जाता है. ‘जी, ठीक है, अच्छा’ जैसे आज्ञापालक शब्दों के ही उच्चारण से क्यों उन्हें approval और appraisal दिया जाता है.

जब तक औरतें कर्तव्य के बजाय अधिकार को जानेंगी नहीं, मांगेंगी नहीं, उनके ज़हन गुलाम की तरह संचालित होते रहेंगे. और गुलाम चाहे चेहरा खोले, बाल खोले, न खोले, गुलाम ही रहेंगे.

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