फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जोश साहब से पहली मुलाकात साल 1936 में हुई, जब तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन की पहली कॉन्फ्रेंस के दौरान उस अंजुमन की दाग़बेल डाली जा रही थी। जब तक लखनऊ वालों के कान में हमारी शायरी की भनक नहीं पड़ी थी और अंजुमन के उन दो चार मेंबरों के अलावा जो अमृतसर से हमें जानते थे, किसी को हमारे बारे में कुछ भी इल्म नहीं था। चुनांचे जब कॉन्फ्रेंस के ख़ात्मे पर महफ़िल-ए-मुशायरा आयोजित हुआ, तो हमें शायद आख़िरी बार सामईन की सफ़ बैठकर, मुशायरा सुनने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। उसके बाद चाय की एक दावत पर जोश साहिब से रस्मी सा तआरुफ़ हुआ, लेकिन बात कुछ आगे नहीं बढ़ी। दो, चार बरस बाद देहली में एक सरकारी क़िस्म का मुशायरा था, जिसका आयोजन हर साल वित्त मंत्रालय की जानिब से हमारे पूर्व गवर्नर जनरल ग़ुलाम मुहम्मद किया करते थे। यहीं वो वाक़िआ पेश आया था, जब हमारे एक बुजुर्ग दोस्त एडी अज़हर ने भोले से कह दिया कि जोश साहिब, मुशायरे में ख़वातीन भी होंगी, इसलिए ज़रा एहतियात कीजियेगा। जोश साहिब फ़ौरन बिगड़ गये और मुशायरे में जाने से इंकार कर दिया। बाद में बहुत इल्तिजा करने के बाद राज़ी हुए। हम एक ही होटल में ठहरे थे। जोश साहिब मुझे देखते ही बरस पड़े।
‘‘ये लखनऊ में आपने क्या हरकत फ़रमाई थी? यहां तुम कोई अनब्याही लड़की हो कि तुम्हें मर्दाने में आने से डर लगता है या शे’र कहना ऐसा बुरा काम है कि आप इससे शर्मिंदा हैं। आख़िर वहां हमें क्यों महरूम रखा?’’
उनकी अदा ही थी कि कम उम्र लिखने वालों से भी आत्मीयता से पेश आते थे। डांट भी देते थे। शे’र की दाद देने में जितने फ़र्राख़दिल थे, ज़बान पे पकड़ करने में उतने ही रिआयत न करने वाले। जब वो इस्लामाबाद आए, तो हम कहीं पूछ बैठे, ‘‘जोश साहिब! आपकी रिहाइश कहां है?’’
फ़ौरन तुनुक कर कहा, ‘‘हाएं क्या फ़रमाया ? ये रिहाइश कौन ज़बान का लफ़्ज़ है ? अब आप कहेंगे कि आपकी लुआइश कहां है ?’’
मुशायरों में कुछ यूं था कि अगर किसी काव्य अनभिज्ञ मजमे से पाला पड़ा, जैसे अक्सर औक़ात होता रहता था और जोश साहिब ने अपनी शान-शौकत वाली ज़बान में कोई संजीदा नज़्म शुरू की, और उधर से उठने-बैठने की आवाज़ें आने लगीं, तो किसी अक़ीदतमंद ने आवाज़ लगाई,
‘‘जोश साहिब, कोई मोटा माल लाइये।’’
जोश साहिब नाराज़ होने के बजाय फ़ौरन अपनी हास्य-व्यंग्य की रुबाईयों पर उतर आये और हमारा नाम पुकारा गया, तो बोले,
‘‘बेटा, अब तू चढ़ जा सूली पर।’’
जोश साहिब अपने बारे में फ़रमाते हैं कि बक़ौल शायर मेरा मिज़ाज लड़कपन से आशिक़ाना था। अगर इस पर वो ये इज़ाफ़ा करते कि मेरा मिज़ाज लड़कपन से चोट पहुंचानेवाला था, तो तस्वीर मुकम्मल हो जाती, इसलिए कि उनका कलाम और मिज़ाज इन्हीं दो ख़ूबियों से बना है। इसलिए कि उनकी आशिक़ी भी इल्तिजा करने वाली नहीं, बल्कि चोट पहुंचाने वाली है और इंक़लाबियत भी, इंकलाबाना कम और रूमानवी या आशिक़ाना ज़्यादा है। इश्क़ के आह व पुकार के मक़ामों का मज़मून, तो खै़र आपने सिरे अपनाया ही नहीं, लेकिन सूझ बूझ के बारे में भी, जो उनका ख़ास मौजूअ है, फ़लसफ़ा और साइंस की बारीकियों में जाने की बजाय चंद हुक्म जारी कर देते और इंक़लाब की नसीहत में भी सियासी और समाजी मुआमलों पर नज़र डालने के बजाय लड़ने-भिड़ने और क़त्ल करने पर अपनी शायरी के जौहर दिखाये और होना भी यूं ही चाहिए था, इसलिए कि अल्लामा इक़बाल की ज़बान में ‘यग़माज़दा तुर्काना’ की रवायत यही थी।
फ़िराक़ साहिब से 1940 में पहली बार मुलाक़ात तो नहीं कह सकते, सिर्फ़ सामना हुआ। मिंटो पार्क में जो अब इक़बाल पार्क कहलाता है। शायद यौम-ए-इक़बाल के मौक़े पर एक बहुत बड़े पंडाल में कुल-हिंद मुशायरा हुआ। जिसमें जमना पार के चंद उस्तादों का पहले-पहल दीदार हुआ। जिनमें फ़िराक़ साहिब के अलावा यास यगाना, सीमाब अकबराबादी और मौलाना वगैरह शामिल थे। मैंने अपनी नज़्म ‘रक़ीब’ पढ़ कर सुनायी, जो एकाध दिन पहले ख़त्म की थी। मुशायरे के ख़ात्मे पर वापस जाते हुए फ़िराक़ साहिब ने अपनी गोल-गोल आंखें घुमाते हुए कहा,
‘‘वाह मियां ! क्या नज़्म कहीं है !’’
कुछ दिन बाद शायद ‘अदबी दुनिया’ में उनका बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण तब्शिरा शाए हुआ था, जिसमें लिखा था कि ‘‘कीट्स और शैले भी इससे बेहतर क्या कह सकते थे !’’
हमें तब तक इससे बड़ा सर्टिफ़िकेट कहीं से नहीं मिला था। अगले पांच-सात बरस में देहली, लखनऊ और इलाहाबाद के मुशायरों में मिलना होता रहा और वो उसी तौर पर आत्मीयता फ़रमाते रहे। इस मेहरबानी का आख़िरी दिल को लुभाने वाला इज़हार उनकी आख़िरी मुलाक़ात से वाबस्ता है, जिसके निशान अभी तक याद में ताज़ा हैं। कोई दो बरस पहले हिंदुस्तान में कुछ दोस्तों ने हमारी 70वीं सालगिरह का मुख़्तलिफ़ शहरों में आयोजन किया था। इलाहाबाद में स्थानीय यूनीवर्सिटी की जानिब से सम्मेलन की दावत थी। हम चंद दोस्तों के हमराह जलसे के निश्चित वक़्त से एकाध घंटा पहले फ़िराक़ साहिब के घर पर सलाम करने पहुंचे। जब वो चलने-फिरने से लाचार हो चुके थे, लेकिन जे़हन वैसे ही खिला हुआ और तरो-ताज़ा था और ज़बान वैसे ही कैंची की तरह चलती थी। बहुत मज़े की बातें हुईं। हमने रुख़्सत चाही, तो कहने लगे,
‘‘मैं भी चलूंगा। एम्बूलेंस गाड़ी और पहियों वाली कुर्सी का इंतिज़ाम करो।’’
चुनांचे उसी सवारी पर वो पहुंचे। अपनी खनकदार आवाज़ में तक़रीर भी फ़रमाई। शे’र भी सुनाये और मकते (आख़िरी शे’र) पर पहुंचे,
‘‘पहले फ़िराक़ को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं।’’
….तो कहीं से आवाज़ आयी,
‘‘ये हवाई किसी दुश्मन ने उड़ायी होगी।’’
फ़िराक़ साहिब ने इसी पर बस नहीं की। अगले दिन मुस्लिम हॉस्टल के सम्मेलन में जलती दोपहर के दौरान फिर उसी गाड़ी में तशरीफ़ लाये। ज़ाहिर है कि ये रवायती रख-रखाव की बात नहीं थी, उनके अपने मिज़ाज और शख़्सियत का अक्स था।
अगरचे जोश और फ़िराक़ एक ही इलाके के रहने वाले, एक ही ज़बान के रसिया और एक ही मुशायरे के लोग थे, लेकिन उनके व्यक्तिगत और सृजनात्मक गुणों में समानता कम थी और भिन्नता ज़्यादा। हक़-गोई (सत्यवादिता) और बेबाकी, जे़हानत और ज़बानदानी दोनों की घुट्टी में पड़ी थी। उनके सियासी और समाजी नज़रिये भी बहुत हद तक साझे थे। लेकिन जोश साहिब की तबीयत एक क़स्बाती-रईसाना माहौल में हुई थी। फ़िराक़ साहिब की एक शहरी मध्यम घराने में। जोश साहिब का जे़हनी और अदबी रिश्ता तुर्की की और फ़ारसी रवायत से जुड़ा था, फ़िराक़ साहिब का हिंदुस्तानी मधुर रवायत से। चुनांचे उनके मौज़ूआत, कैफ़ियात (रंग ढंग), शाइराना शब्दावली और तकनीक में भी यही फ़र्क़ है। जोश साहिब को दिल की नज़ाकतों और अंदरूनी एहसासात, कोमलता से बहुत कम वास्ता था। इसी तरह उनकी शाइराना लहजे में भी लोच के बजाय घन-गरज और तुनतुने को ज़्यादा दख़्ल था। वो ज़्यादातर बड़े केनवस पर मोटे ब्रश से ऑयल पेंट करते थे। इसी सबब से तंगनाए-ग़ज़ल (कविता की एक शैली या रूप के रूप में ग़ज़ल की सीमा) के बजाय क़सीदानुमा नज़्म से आकृष्ट हुए, इसके बरअक्स फ़िराक़ साहिब जज़्बात व एहसासात की बारीक-बीनी में इज़हार के ढंग के बारे में कशीदाकारी के माहिर थे। इस लिहाज़ से सामूहिक तौर से न सही, बहुत हद तक उनका ‘सौदा’ और ‘मीर’ से मुक़ाबला कर सकते हैं।
(रोज़नामा: ‘सहाफ़त’ लखनऊ 18 नवम्बर 2007, पेशकश-लिप्यंतरण-अनुवाद: ज़ाहिद ख़ान)