नई दिल्ली। देश की आजादी के बाद 1952 में हुए पहले आम चुनाव की तुलना में प्रत्याशियों की संख्या चार गुना तक बढ़ी है। 1952 में जहां 1,874 ने प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था, जबकि 2019 के चुनाव में यह आंकड़ा बढ़कर 8,039 रहा। 1977 तक प्रति सीट पर औसतन तीन से पांच प्रत्याशी हुआ करते थे, लेकिन 2019 में यह आंकड़ा 14.8 रहा।
2019 के चुनावों में जिन पांच निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक था, वे दक्षिणी राज्यों तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु से थे। तेलंगाना में औसतन सबसे अधिक उम्मीदवारों ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था। सबसे अधिक 185 उम्मीदवार निजामाबाद से थे। निजामाबाद को छोड़कर तेलंगाना में उम्मीदवारों की औसत संख्या 16 थी।
साल 1952 में 489 सीटों के लिए1,874 उम्मीदवार थे
साल 1971 में 2,784 हो गई यह संख्या बढ़कर
साल 1980 के चुनावों में संख्या में 4,629
साल 1984-85 के आठवें आम चुनाव में 5,492 उम्मीदवार
साल 1991 में 543 सीटो के लिए 8,668 उम्मीदवार
साल 2009 के आम चुनावों में 8,070 ने चुनाव लड़ा
साल 2014 के चुनाव में 8,251 उम्मीदवार मैदान में
साल 2019 के आम चुनावों में 542 सीटों से 8,039 उम्मीदवार
भारत निर्वाचन आयोग द्वारा प्रत्याशियों के लिए जमानत राशि 500 रुपये से बढ़ाकर 10,000 करने के बाद 1998 के चुनाव में प्रति सीट प्रत्याशियों की औसत संख्या घटकर 8.75 उम्मीदवारों तक आ गई थी। एक लंबे अंतराल के बाद प्रत्याशियों की संख्या पांच हजार से कम देखी गई। 1999 के आम चुनावों में उम्मीदवारों की संख्या मामूली रूप से बढ़कर 4,648 हो गई, यानी प्रति सीट औसतन 8.56 प्रत्याशी। 2004 में कुल प्रत्याशियों का आंकड़ा फिर से 5,000 को पार कर गया। इस चुनाव में 543 लोकसभा सीटों के लिए 5,435 प्रतियोगी मैदान में थे।
दक्षिण के निजामाबाद के बाद कर्नाटक के बेलगाम में दूसरी सबसे बड़ी संख्या में उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व देखा गया। तमिलनाडु में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवारों में से औसतन दो-तिहाई ने स्वतंत्र उम्मीदवारों के रूप में चुनाव लड़ा।