(बापू से क्षमा प्रार्थना के साथ )
रामकिशोर मेहता
बापू! अब हमको स्वीकार नहीं
केवल प्रतीक बने रहना
उठ रही इतनी सड़ाँध व्यवस्था से
कि घुट रहा दम
अब हमको स्वीकार नहीं
मुंह पर हाथ धरे रहना ।
बापू! अब तो शब्दकोश में
ऐसा कोई शब्द नहीं है
जिससे जुड़ा घोटाला न हो।
न ही कोई ऐसी विभूति पद पर
जिसके नाम हवाला न हो।
अब तो अम्बर से धरती तक
कण कण में फैला है व्यभिचार ।
पलक और पुतली के बीच बनी
पानी की पतली सी झिल्ली पर भी है
अब उसका अधिकार।
अब किस मतलब का
आँखों पर हाथ धरे रहना।
बापू! अब तो मिस्टर भ्रष्टाचारी
छुपकर कोई काम नहीं करता
अब तो उसके हाथों में
ढोल और नगाड़े हैं
बड़े बड़े अपराध
बड़ी बेशर्मी से
बड़ो बड़ो ने स्वीकारें है।
अब तो उनकी जिह्वाओं पर
बैठी हैं आकाशवाणियाँ
और वे जन प्रतिनिधि होने का
अमृत पीकर बैठे हैं।
ब्रह्म सा व्यापक है उनका शब्द नाद
सुनना ही पड़ता है
वे जो कुछ भी कहते हैं।
व्यर्थ का अभिनय बन कर रह जाता है
बापू! अब कानों पर हाथ धरे रहना।
बापू! अब तो जड़ और ढीठ हो गई हैं
ये मुद्राएं ।
अंधे , बहरे , गूँगे और गुलामों का
प्रतीक हो गई हैं ये मुद्राएं।
अब हाथों को , कानों को,
आँखों को, वाणी को
मुक्ति दो।
फिर से दोहराने को आतुर है इतिहास।
अब फिर से
करो मरो की युक्ति दो।