अमिता नीरव
31 अक्टूबर 1984 की दोपहर तक इंदिरा गाँधी को गोली मार देने की खबर आग की तरह फैल गई थी। इकतीस गोली मारी गई वो भी उन्हीं के अंगरक्षकों ने… मतलब इतने करीब से कि चमत्कार भी बचा नहीं सकते हैं। राजीव गाँधी चुनावी दौर पर दिल्ली से बाहर थे।
दिन भर ये खबरें चलती रहीं कि इंदिरा जी एम्स में है, डॉक्टर प्रयास कर रहे हैं। किशोर मन सोचता है कि अभी तक यदि उनके मारे जाने की खबर नहीं आई है तो इसका ये मतलब हुआ कि अब भी कोई गुंजाइश बाकी हैं, वे अब भी जिंदा हैं।
घर के सारे बड़े दबे स्वर में कह रहे थे कि इतनी गोलियाँ लगने के बाद कोई भी जीवित नहीं बच सकता है। मगर मैं इस नुक्ते पर अटकी थी कि यदि वे नहीं होती तो अब तक उसकी खबर आ चुकी होती। आखिर देश की जनता को अपनी प्रधानमंत्री के बारे में हर बात जानने का हक है।
देर रात राजीव गाँधी के दिल्ली पहुँचने और प्रधानमंत्री पद की शपथ ले लेने के बाद इस बात की घोषणा हुई कि इंदिरा गाँधी नहीं रहीं। आदत नहीं है किसी से कुछ पूछने की तो खुद ही खुद को बताया कि कभी भी प्रधानमंत्री का पद खाली नहीं रहता है। देश में हर वक्त एक सरकार होती ही है।
तो जब तक देश को नया प्रधानमंत्री नहीं मिला तब तक मौजूदा प्रधानमंत्री के न रहने की खबर सार्वजनिक नहीं की जा सकती है।
दो दिन पहले झारखंड में जो कुछ हुआ, उसने अब तक की सारी समझ को पलीता लगा दिया है। हेमंत सोरेन के इस्तीफे के बाद लगभग दो दिन तक झारखंड में कोई सरकार नहीं थी। जबकि हमने ही आधी रात को महाराष्ट्र में सरकार बिगड़ते औऱ बनते देखी है। हाल ही में बिहार में भी इसे ही दोहराते देखा है।
कुछ वक्त से ये विचार लगातार आ रहे हैं कि मुझे क्यों सिस्टम के खिलाफ बोलना औऱ लिखना चाहिए? मुझे तो इस सिस्टम से सारे प्रिविलेज हासिल हैं। जिनको इस सिस्टम से दिक्कत है, हो सकती है, उन्हें इस दिशा में कहना, करना चाहिए। यदि वे नहीं करते हैं तो अपन कौन, खामखाँ?
फिर ये भी कि हर चीज को बार-बार क्यों दोहराया जाना चाहिए? माननीय के तौर-तरीकों में कोई खास बदलाव तो आया नहीं है। तो क्यों हर बार वही-वही कहा सुना जाना जाए? मगर हर बात को समभाव से स्वीकार कर लिया जाए, जीवन में चौंकने की गुंजाइश ही न हो तो फिर कहे, लिखे जाने के लिए क्या बचेगा!
राजा बाबू के पहले ही कार्यकाल में एक डरे हुए मित्र ने भविष्यवाणी कर दी थी कि आप देखिएगा, कैसे विरोधियों को घसीट कर गिरफ्तार किया जाएगा, कैसे उन्हें डराया जाएगा, कैसे लो क तं त्र को कुचला जाएगा! मैंने इसे उनका डर ही माना था, लेकिन मैं गलत थी।
एक-एक करके जो भी माननीय के विरोध में हैं उन्हें किसी न किसी मामले में फँसाकर गिरफ्तार कर लिया गया है। रवीश का कार्यक्रम देख रही थी जिसमें वे इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से बता रहे थे कि पिछले दस साल में इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) के मामलों में चार गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है।
उसमें भी पंचानवे प्रतिशत से ज्यादा मामले उन पर हैं, जो विपक्ष में हैं। उसमें भी सजा सिर्फ एक प्रतिशत को ही होती है। नीतिश कुमार के आरजेडी के साथ सरकार में रहने तक लालू यादव को कुछ नहीं किया, कहा गया। नीतिश के आरजेडी से अलग होकर भाजपा के साथ सरकार बनाते ही लालू यादव से पूछताछ शुरू हो जाती है।
पिछले सालों में लगातार संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग हो रहा है। मेन स्ट्रीम मीडिया फेक न्यूज को मनमाने तरीके से चला रहा है। न्यूज को मैनिपुलेट कर रहा है। सरकार के समर्थन में लगातार बैटिंग कर रहा है। सरकार असंवैधानिक तरीकों से राज्य सरकारों को बनाने औऱ बिगाड़ने का खेल खेल रही है।
चुनाव आयोग लगातार सरकार के पक्ष में निर्णय लेता आ रहा है। ज्यूडिशियरी के पास एक अनूठा शब्द आ गया है, जनभावना औऱ उसे देखते हुए निर्णय किए जा रहे हैं। मतलब दस सालों में देश में इतने सारे, इतने गहरे और इतने बुरे परिवर्तन हो रहे हैं, लेकिन आम आदमी तो ठीक, बुद्धिजीवियों को इसमें कुछ गलत नजर नहीं आ रहा है।
कई पढ़े-लिखे जागरूक लोगों मैंने यह कहते पाया है कि कांग्रेस कुछ अलग नहीं थी। ठीक बात है कि कांग्रेस ने भी राजनीति में अनैथिकल प्रैक्टिस को प्रमोट किया है, लेकिन फिर भी दोनों में बड़ा फर्क है। कांग्रेस ने अनैथिकल प्रैक्टिस को कभी भी जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की।
दूसरी और अहम बात, उन्होंने इसे लेजिटीमाइज करने के लिए प्रचार माध्यमों को निर्देश नहीं दिए हैं। तीसरी बात यदि कांग्रेस वही सब करती जो आज किया जा रहा है, तो यकीन मानिए कि आज को सत्ता में बैठे हैं, वो सब असल में जेल में होते। क्योंकि कुकर्म तो उनके इतने हैं कि यदि ईश्वर है औऱ वह न्याय पर आमादा हो तो इन्हें सृष्टि में ही कहीं जगह न मिले।
असल में मैं इस बात पर चौंकती हूँ कि वो सारे लोग, जो तटस्थता के लाइन में करीने से खड़े हैं, वे कांग्रेस के दस पापों को मौजूदा सत्ता के एक लाख पापों से कट करने का गुनाह कर रहे हैं। और मजे की बात ये भी है कि वे खुद को तटस्थ कहते हुए गौरवान्वित भी होते हैं।
हालाँकि ये सब इतनी बार दोहराया जा चुका है कि मुझे चौंकना नहीं चाहिए, लेकिन कमाल ये है कि अब भी मुझे ये सब चौंकाता है। औऱ यही मुझे लिखने पर मजबूर कर देता है।