संजीव शुक्ल
इतिहास घटित घटनाओं का यथारूप विवरण है, जिसकी व्याख्या तथ्यों के आलोक में ही संभव है। बुलबुल की सवारी वाली कहानी गढ़ के आप किसी का महिमामंडन भले ही कर लें लेकिन उसे इतिहास के रूप में मनवाने के प्रयास सफल साबित नहीं होंगे। आज नहीं तो कल जब तथ्य सामने आएंगे तो आप बेनकाब होंगे। लेकिन अवसरवादिता की प्रवृत्ति यह सब सोचने कहां देती है?
आज सोशल मीडिया पर इतिहास के संदर्भ में अराजक स्थिति है। पार्टी के आईटी सेल थोक भाव में इतिहास के नाम पर अफवाहों को परोस रहें हैं और लोग-बाग उसे इतिहास समझ दिग्भ्रमित हो रहे हैं।
इस शातिर दुष्प्रचार ने एक बड़ी जनसंख्या को अपनी चपेट में ले लिया है, जिसके चलते आबादी का बड़ा हिस्सा अपने ही राष्ट्र नायकों को चरित्रहीन मान उनसे घृणा करने लगा है। आज गांधी को गरियाने वाले संसद को सुशोभित कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन पर शीर्ष नेतृत्व की कृपा रहती है। यह अलग बात है विश्वस्तर पर हमारे देश की पहचान अपने इन्हीं नायकों से है।
इस संदर्भ में राजगोपालाचारी का यह बहुचर्चित वक्तव्य याद आता है। उनका कहा है कि “वे (गांधी और नेहरू) इन सबसे (आलोचना और प्रशंसा से) परे हैं और उनका मूल्यांकन अगर आज भारत के लोग नहीं भी करेंगे तो यकीन मानिए हार्वर्ड में, ऑक्सफोर्ड में, ऑस्ट्रेलिया में, अमेरिका में और दुनियाभर के विश्वविद्यालयों में नेहरू व गांधी पढ़े जाते रहेंगे। हो सकता है कि गांधी और नेहरू को भारत छोड़ दे और पूरी दुनिया अपना ले।” राजगोपालाचारी की भविष्यवाणी आज सच साबित हो रही है। यह स्थिति आई क्यों?
जाहिर उन्होंने दुष्प्रचार को अपनी रणनीति का स्थायी हिस्सा बना लिया है और हमने किताबें पलटनी बन्द कर दी। वे अविराम आरोप लगाते रहे और हम चुपचाप सुनते रहे क्योंकि हमने इतिहास जानना बन्द कर दिया। एक खास विचारधारा से प्रेरित लोगों का तरीका है कि विरोधी विचारधारा के नायकों का चरित्रहनन करो। जाहिर है यह 8-10 सालों की मेहनत नहीं बल्कि यह पिछले 70 सालों की उनकी मेहनत है।
कई झूठ फैलाए गए, मसलन नेहरू मुस्लिम थे, गांधी मुस्लिम-तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे थे, लिहाजा वह स्वभावतः हिन्दू द्रोही थे। गांधी ने सुभाष के खिलाफ चालें चलीं। अगर सुभाष बाबू की राह चलते तो देश लगभग 35 साल पहले देश आजाद हो जाता आदि-आदि।
इसके अलावा गांधी ने नेहरू को प्रधानमंत्री बनवाकर पटेल के साथ नाइंसाफी की तथा नेहरू पर सुभाष की जासूसी करवाने के आरोप भी खूब लगाए जाते हैं।
साथ ही गांधी हत्या को सही ठहराने के लिए कहा जाता है कि गोंडसे गांधी द्वारा हिंदुओं की लगातार उपेक्षा से क्षुब्ध था। वह गांधी के मुस्लिम और पाकिस्तान प्रेम के चलते हिंदुओं की दयनीय दशा से बहुत ही उद्वेलित था, लिहाजा उसको विवश होकर गांधी हत्या का निर्णय लेना पड़ा। गांधी की हत्या के पीछे इन वजहों को सिर्फ़ भ्रम फैलाने के कारण गिनाया जाता है। गांधी की हत्या का यह पहला प्रयास नहीं था। इससे पूर्व भी गांधी की हत्या के कई असफल प्रयास किये गए थे।
सदी के सबसे बड़े दुष्कृत्यों में शामिल गांधी हत्या की मानसिकता के बीज गोंडसे की मैगजीन अग्रणी में छपे उस कार्टून में देखे जा सकते हैं, जिसमें दशानन के रूप में चित्रित गांधी पर संधानरत सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को दिखाया गया था। यह कार्टून 1945 में छपा था। गांधी के दस सिरों में नेहरू, सुभाष और पटेल को भी दिखाया गया है। यह चित्र यह भी बताता है कि सुभाष और पटेल के प्रति इनकी हमदर्दी सिर्फ़ वाग्जाल है, कोरी बयानबाजी है।
इसके अलावा गांधी द्वारा पाकिस्तान को एक बड़ी धनराशि दिलवाने के लिए दबाव डाला गया वगैरह-वगैरह आरोप भी लगाए गए। भाई वह पैसा तो पाकिस्तान के ही हिस्से का था, फिर उसे अपने पास रोकने का नैतिक औचित्य क्या था? अगर न देते और पाकिस्तान इसे मुद्दा बनाकर इंटरनेशनल कोर्ट चला जाता तब हमारी कितनी भद्द होती, कभी सोचा है?
खैर ये अफवाहें अब व्हाट्सएप ज्ञान के रूप में सबको सहज सुलभ हैं। पढ़ने से परहेज रखने वाले इन्हें वेदवाक्य के रूप में लेते हैं।
चरित्र हनन में निष्णात सुधीजन नेहरू-गांधी पर निशाना साधने के लिए सुभाष, पटेल, आजाद और भगतसिंह के कंधों का सहारा लेते हैं। विचार के स्तर पर न इन्हें सुभाष- पटेल से मतलब है और न ही भगतसिंह से। ये सभी नायक सांप्रदायिकता के धुर विरोधी थे, जबकि दक्षिणपंथ समर्थित विचारधारा सांप्रदायिकता से ही अपनी ऊष्मा लेती है।
सुभाष ही वह पहले नेता थे जिन्होंने कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय काल में सांप्रदायिक विचारधारा वाले मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के लोगों को कांग्रेस की सदस्यता से मुक्त किया। भगतसिंह तो खैर नास्तिक ही थे। भगतसिंह से अतिशय हमदर्दी रखने वाले जब यह कहते हैं कि कांग्रेस ने भगतसिंह को बचाने के लिए कुछ नहीं किया तो उन्हें एक बार अपने पुरखों पर भी निगाह डाल लेनी चाहिए कि उन्होंने भगतसिंह के लिए क्या किया।
क्या उन्होंने भगतसिंह की शहादत पर श्रद्धांजलि के दो शब्द भी बोले। क्या आपकी नैतिक जिम्मेदारी कुछ नहीं थी। यहां गोलवलकर जी का यह कथन भी याद रखना चाहिए- “भगतसिंह और उनके साथी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हुए, इसलिए वे किसी भी सम्मान के पात्र नहीं।”
अब यहां यह भी बता देना जरूरी है कि नेहरू भगतसिंह से मिलने जेल भी गए थे और गांधी ने भगतसिंह को बचाने के लिए वायसराय को पत्र भी लिखे थे। भगतसिंह खुद किसी भी तरह की रियायत या सिफारिश के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने तो एक बार अपने पिताजी को बहुत धिक्कारा था कि आप बिना हमारी जानकारी के शासकों के पास सजा में रियायत वाली याचिका क्यों भेजी। आपने हमें शर्मसार कर दिया। भगतसिंह तो कह रहे थे कि हमें फांसी के बजाय गोली से उड़ा दिया जाय। भगतसिंह की फांसी के बाद भी उनके पिता कांग्रेस के सदस्य के रूप में पार्टी को अपनी सेवाएं देते रहे।
इसी तरह पटेल के संदर्भ में इस बात का हवाला दिया जाता है कि उन्हें ज्यादा कांग्रेस समितियों का समर्थन हासिल था, फिर भी नेहरू को प्रधानमंत्री बना दिया गया। तो पहली बात तो यह कि वह अध्यक्ष पद के लिए चुनाव था न कि प्रधानमंत्री के पद का। यह बात 1946 की है, तब तक तो अंतरिम गवर्मेंट के बारे में भी निर्णय नहीं हुआ था।
इस संदर्भ में पटेल के अनन्य सहयोगी और महाकौशल के बड़े कांग्रेसी नेता डीपी मिश्रा ने कहा था कि पार्टी अध्यक्ष के लिए पटेल के नाम की अनुशंसा करने का मतलब यह कतई नहीं था कि हम उनको प्रधानमंत्री के लिए चुन रहे थे। नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने के पीछे अंतरराष्ट्रीय विषयों के प्रति उनकी समझ और लोकप्रियता भी एक वजह रही थी। पटेल ने भी इस निर्णय को सराहा था।
और फिर जब पटेल को आपत्ति नहीं थी तो भाई आप काहे मरे जा रहे हैं। बढ़ती उम्र के कारण ज़्यादातर प्रांतीय समितयां पटेल को अध्यक्ष बनाना चाहती थीं, जबकि नेहरू तो इससे पहले भी तीन बार अध्यक्ष रह चुके थे। इसके अलावा सुभाष की गोपनीय फ़ाइलों में जो लोग उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे थे, खुलने के बाद निराशा हाथ लगी। यह मुद्दा भी हाथ से निकल गया। उल्टे नेताजी की बेटी ने नेहरू की खुलकर तारीफ की।
आरोपों के सिलसिले में ताजा आरोप नेहरू के सेंगोल दिये जाने के संबंध में हैं। अब तो बड़े-बड़े मीडिया हॉउस भी कब्जे में हैं, सो अब तो कोई दिक्कत नहीं। बस जरूरत एक कहानी के गढ़ने की रहती है। यह बिलकुल ताजी अफवाह है। खूब टीवी चैनलों पर चलाई गयी।
सेंगोल विवाद के चलते आखिर “द हिंदू” की चेयरपर्सन मालिनी पार्थसारथी को अपने पद से हाथ धोना पड़ा। हुआ यह कि वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा नए संसद के उद्घाटन के अवसर पर राजदंड के रूप में सेंगोल को ग्रहण करने के औचित्य के रूप में परम्परा के निर्वहन से जोड़ कर देखा गया। इसे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में ग्रहण करने से जोड़ा गया।
बताया गया कि माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर सेंगोल को नेहरू को सौंपा था। यह भी बताया गया कि सेंगोल के महत्व को समझते हुए राजगोपालाचारी ने दक्षिण के एक मठ से सम्पर्क स्थापित किया। यह सरकारी कहानी खूब प्रचारित की गई, जबकि तत्कालीन अखबारों और दस्तावेजों में इसका कहीं जिकर तक नहीं था। इस सरकारी कहानी को मालिनी के नेतृत्व में “द हिन्दू” ने भी खूब जगह दी।
लेकिन इस समाचार को हिंदू के ही एक दिग्गज पत्रकार और पुराने चेयरमैन एन. राम ने फर्जी सिद्ध कर दिया। एन. राम ने प्रेस कांफ्रेन्स करके 29 अगस्त, 1947 के हिन्दू का वो संस्करण लोगों के सामने रख दिया, जिसमें इस सेंगोल को नेहरू को सौंपने की खबर प्रकाशित थी। इस खबर में माउंटबेटन वाली कहानी का कोई ज़िक्र न था।
वास्तव में सेंगोल एक मठ की सदाशयता और आशीर्वाद का महज प्रतीक मात्र था और नेहरू ने संतों की पवित्र भावना का मान रख उसे श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। इसका सत्ता हस्तांतरण से कोई संबंध नहीं था। बाद में नेहरू ने इसे संग्रहालय में रखवा दिया।
अब बताइये जब इस तरह खबरें प्रचारित की जाती हों, तो अपने अतीत के प्रति बहुत सजग रहने की जरूरत है। अन्यथा हम हमेशा बरगलाए जाते रहेंगे। आज जरूरत है इनसे होशियार रहने की और जवाब में लोगों को सच बताने की।