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इसी तरह आता है कॉर्पोरेट नेशनलिज्म

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हेमन्त कुमार झा,

एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

कॉर्पोरेट नेशनलिज्म इसी तरह आता है जैसे भारत में आया. स्वप्नों को त्रासदियों में बदल देने वाले छद्म राष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवाद की आढ़ में मुनाफे का निरंकुश खेल, जिसमें राजनीति बंधक बन जाती है और लोकतंत्र जैसे किसी प्रहसन में तब्दील हो जाता है. चल रही व्यवस्था से नाराज लोगों को अच्छे दिनों के ख्वाब दिखाना, बेरोजगारी से त्रस्त समाज को नौकरी के सब्जबाग दिखाना, अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का भरोसा दिलाना और जनता की तमाम जहालतों का ठीकरा व्यवस्था पर काबिज लोगों और उनकी नीतियों पर फोड़ना, इस तरह यह अपना रास्ता बनाता है.

इतना ही काफी नहीं होता. कॉर्पोरेट नेशनलिज्म को अपने पांव पसारने के लिए एक ऐसे प्रायोजित नायक की जरूरत होती है, जिसके छद्म छवि निर्माण से जनता को भ्रमित और चमत्कृत किया जा सके ताकि उसे लगे कि हमारा उद्धार करने वाला आ गया और कि हमें उसका खैर मकदम करते हुए अपने सिस्टम की चाबी उसे सौंप देनी चाहिए. अवतारवाद की अवधारणा में विश्वास रखने वाले और इस विश्वास की चारदीवारी में अपनी चेतना को कैद कर देने वाले भारतीय जनमानस में इन कृत्रिमताओं की जड़े जमाना आसान साबित हुआ और एक नए दौर का आगाज हो गया.

ऐसा दौर, जिसने भारतीय पत्रकारिता का, विशेषकर हिन्दी पत्रकारिता का घोर नैतिक पतन देखा, जिसने मध्य वर्ग की जटिल मानसिकता के भीतर की कुरूपताओं को उजागर किया, तथाकथित सवर्णों के बड़े हिस्से की सांप्रदायिक चेतना को उभारा और जिसने तथाकथित निचली जातियों के कई भ्रष्ट राजनीतिक ठेकेदारों के राजनीतिक चरित्र की नंगई को खोल कर सामने रख दिया. सबसे महत्वपूर्ण कि इस दौर ने नवउदारवाद के भारतीय संस्करण की परतों को उधेड़ कर रख दिया और हमें अहसास दिलाया कि अपने मुनाफे के लिए कॉर्पोरेट का एक प्रभावशाली तबका किस कदर जन विरोधी हो सकता है.

कॉर्पोरेट नेशनलिज्म ने निजीकरण को मुक्ति का मार्ग घोषित किया और इसकी राह में सैद्धांतिक रोड़े अटकाने वालों को देश विरोधी साबित करने का कोई भी जतन बाकी नहीं रखा. 90 के दशक से ही निजीकरण के महिमा मंडन ने मध्य वर्ग को बेहद उत्साहित कर रखा था और दस वर्ष के मनमोहन काल में बढ़ी समृद्धि ने इस वर्ग की आकांक्षाओं को जैसे पंख लगा दिए थे. इन्हीं पंखों पर चढ़ कर कॉर्पोरेट नेशनलिज्म ने अपनी ऊंची उड़ान भरी, जिसे जमीन पर रेंगता आर्थिक रूप से निम्न तबका हसरत भरी निगाहों से ताकता रहा.

हमारे देश के बिजनेस क्लास ने साबित किया कि मुनाफे की संस्कृति में अधिकाधिक लाभ कमाने के लिए वह नैतिक रूप से कितना नीचे गिर सकता है. अधिकाधिक मुनाफा कमाना, अधिकाधिक श्रम लेना, न्यूनतम वेतन देना. नीति निर्माण की प्रक्रिया पर अपनी पकड़ को निरंतर सख्त करता यह वर्ग अमानवीयता की हदों से गुजरता गया, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत संरचनाओं पर उसके बढ़ते आधिपत्य ने एक पतित संस्कृति का निर्माण किया.

जब हम नवउदारवाद के भारतीय संस्करण की बातें करते हैं तो हम इसके चरित्र को यूरोप और अमेरिका से अलग कर देखने की कोशिश करते हैं. लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक और पढ़े लिखे देशों में निजी उपक्रमों पर नियामक संस्थानों का कठोर नियंत्रण होता है और वे निर्धारित मानकों की उपेक्षा नहीं कर सकते. हमारे देश में ये उपक्रम तय मानकों को धता बताने में बिलकुल भी गुरेज नहीं करते जबकि नियामक इकाइयां न्यूनतम मानकों के स्पष्ट उल्लंघन पर भी अक्सर विदूषकों के मंच सरीखा एक्ट करती नजर आती हैं. ऐसा हर क्षेत्र में है जिस कारण हमारे देश में निजीकरण संगठित लूट का एक माध्यम बन गया है.

क्या कोई कल्पना कर सकता है कि इंग्लैंड या फ्रांस या जर्मनी में कोई लकदक निजी अस्पताल किसी मरीज की जान जाने के बाद भी उसे आईसीयू में भर्ती किए रखने का नाटक करता रहे और इस तरीके से विवश और आर्त्त परिजनों का आर्थिक दोहन कर उन्हें रुला दे ? क्या कोई सोच सकता है कि यूरोप के पढ़े लिखे देशों के डिजाइनर प्राइवेट स्कूल हमारे देश की तरह बच्चों की स्तरीय शिक्षा से अधिक चिंता उनके ड्रेस और उनकी किताबों के माध्यम से अधिकाधिक मुनाफा लूटने पर करें ?

ठेठ और कुरूप सत्य यह है कि हमारे देश के अधिकतर डिजाइनर निजी अस्पताल और स्कूल ऐसे हैं जहां आप अपने परिजनों के इलाज या उनकी शिक्षा के लिए पहुंचते हैं तो आपको इंसान नहीं बकरा समझा जाता है. आर्थिक उदारवाद ने मध्यवर्ग के एक हिस्से को इतनी समृद्धि तो दे ही दी है कि बतौर बकरा उनके जिस भी हिस्से में दांत गड़ाया जाए, मांस ही मांस मिलेगा.

हास्यास्पद यह कि अपने नोचे जाने पर भी ये बकरे गर्व का उत्सव मनाते हैं और डिजाइनर स्कूलों, अस्पतालों में खुद के लूटे जाने को स्टेटस सिंबल मानते हैं. सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की कल्पना से ही इन्हें उबकाई आती है इसलिए इन्होंने इस पर सोचना ही छोड़ दिया है कि इनकी दशा सुधारने से देश और समाज का भला होगा, खुद उनका भी.

कॉर्पोरेट नेशनलिज्म ऐसे बिजनेस मॉडल को आदर्श मानता है जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य मुनाफा की संस्कृति की बलि चढ़ जाए. आयुष्मान योजना के माध्यम से पचास करोड़ गरीबों के हेल्थ बीमा का प्लान मुनाफे की इसी संस्कृति को बल देता है. हेल्थ स्ट्रक्चर में सरकारी निवेश से अधिक तवज्जो करदाताओं की गाढ़ी कमाई से चलाई जा रही बीमा योजनाओं के माध्यम से निजी सेक्टर को मुनाफा के अवसर देना इसी आर्थिक चिंतन का हिस्सा है.

हालांकि, कोरोना महामारी के दौरान अमेरिका तक में सार्वजनिक हेल्थ बीमा के माध्यम से चिकित्सा प्रणाली की विफलता उजागर हो चुकी है. हमारे देश में तो उस दौर की दुर्दशा की याद अभी भी अधिक पुरानी नहीं पड़ी लेकिन उस दुर्दशा के बावजूद न नीति निर्माताओं ने कोई सीख ली, न जनता ने. कोरोना संकट ने साबित किया कि दुनिया के जिस भी देश ने स्वास्थ्य में सरकारी संरचना को मजबूती दी है, वही इस महामारी का बेहतर तरीके से सामना कर सका. लेकिन, कॉर्पोरेट संस्कृति इन सीखों पर भ्रम का आवरण चढ़ाने में देर नहीं लगाती.

कॉर्पोरेट नेशनलिज्म जब एक बार किसी सिस्टम पर काबिज हो जाता है तो आसानी से इसके तंबू नहीं उखड़ते. जब तक यह बकरों के खून को चूस सकता है, जब तक यह मानवता को तहस नहस कर सकता है, तब तक अंतिम दम तक यह फन काढ कर खड़ा रहता है. बहुत सारे लोग, जिनमें कुछ नामचीन चिंतक पत्रकार भी शामिल हैं, उम्मीदें लगाए हैं कि 2024 शायद इनका विराम बिंदु साबित हो लेकिन, यह इतना आसान नहीं. कोई राजनीतिक दल या दलों का समूह तब तक इन्हें अपदस्थ नहीं कर सकता जब तक जनता इनके तंबुओं के बांस उखाड़ने पर आमादा न हो जाए. फिलहाल तो ऐसी अधिक उम्मीद नहीं.

नौकरी और अच्छे भविष्य, अच्छी अर्थव्यवस्था और अच्छे दिनों के आश्वासनों के पुल पर चढ़ कर आया, नेशनलिज्म और ठेठ सांप्रदायिकता को अपने औजारों की तरह यूज करते कॉर्पोरेट राज को असल चुनौती किसी राजनीतिक दल से नहीं, जनता से ही मिलती है और इसके कनात तब उखड़ते हैं जब तक चतुर्दिक त्राहि त्राहि नहीं मच जाती और बिलबिलाती जनता विरोध में मुट्ठियां नहीं कस लेती. इतिहास इस तथ्य का साक्षी है.

हालांकि बिलबिलाती जनता जब विरोध में मुट्ठियां कस लेती है तो झूठे स्वप्नों का आख्यान रचते, देश और जनता को ठगते सिस्टम के अलंबरदारों की कैसी दुर्गति होती है यह भी इतिहास अनेक उदाहरणों से हमें बताता है. लगता नहीं कि भारत के मतदाताओं का बड़ा हिस्सा अभी उस व्यामोह से बाहर निकल सका है, जिसका वितान कॉर्पोरेट नेशनलिज्म के सूत्रधारों ने रचा है. शायद अभी और फजीहतें बाकी हैं.

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