24 अक्तूबर को भारतीय सिनेमा के लोकप्रिय संगीतकार मन्ना डे ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था। भले ही वह हमारे बीच नहीं हैं, उनका संगीत हमेशा भारतीय सिनेमा में जीवित रहेगा। वह 50-60 के दशक के ऐसे गायक थे, जिनको हर छोटा-बड़ा संगीतकार पसंद करता था। हिंदी फिल्मों में राग पर आधारिक गाने के लिए मन्ना डे लोगों की पहली पसंद होते थे। तो आइए जानते हैं इनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर गायक मन्ना डे के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में..
उत्तरी कोलकाता के एक रुढ़िवादी संयुक्त बंगाली परिवार में 01 मई 1919 को मन्ना डे का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम पूर्ण चंद्र डे और माता का नाम महामाया डे था। बता दें कि मन्ना डे का असली नाम प्रबोध चंद्र डे था। मन्ना डे के मामा कृष्ण चंद्र डे संगीताचार्य थे। मामा ने मन्ना डे के मन में संगीत के प्रति रुचि पैदा की थी।
मन्ना डे ने साल 1943 में आई फिल्म ‘तमन्ना’ से बतौर पार्श्व गायक अपने कॅरियर की शुरूआत की थी। इस फिल्म में संगीत कृष्ण चंद्र डे ने दिया था। वहीं सुरैया के साथ गाया गया मन्ना डे का इस गीत ने खूब लोकप्रियता बटोरी थी। फिर साल 1950 में आई फिल्म ‘मशाल’ में मन्ना डे को अकेले गाना गाने का मौका मिला।
इसके अलावा साल 1952 में ‘अमर भूपाली’ नाम से आई मराठी फिल्म और बांग्ला में आई फिल्म में भी मन्ना डे ने गाया गया और खुद को बंगाली नायक के तौर पर स्थापित किया। मन्ना डे ने हिंदी, बंगाली, गुजराती, मराठी, मलयालम, कन्नड और असमिया भाषा में भी गाने गाए हैं।
मन्ना डे ने हर गाने में अपनी छाप छोड़ी है, फिर चाहे वह दिल ही तो है का ‘लागा चुनरी में दाग’, बुढ्ढा मिल गया का ‘आयो कहां से घनश्याम’ चाहे वो मेरी सूरत तेरी आंखें का ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’ या बसंत बहार का ‘सुर न सजे’ हो। मन्ना डे की खासियत यह थी कि वह मुश्किल से मुश्किल गाने को बेहद सहजता के साथ गाते थे, जिसका एक उदाहरण ‘एक चतुर नार’ जैसे गीत हैं।
लता और रफी भी थे कायल
मन्ना डे की आवाज के सिर्फ अभिनेता राजकपूर ही नहीं बल्कि लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी भी कायल थे। एक बार रफी साहब ने कहा था कि दुनिया मेरे गाने सुनती है, लेकिन वह मन्ना डे के गाने सुनते हैं। वहीं मन्ना डे और लता मंगेशकर ने एक साथ कई गीत गाए हैं और वह भी मन्ना डे की बड़ी प्रशंसक रहीं।
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