विवेक रंजन सिंह
एक समय में मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने वाले वामपंथी दलों की स्थिति आज की राजनीति में एक सपोर्टिंग पार्टी जैसी हो गई है मगर इस लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के प्रदर्शन ने वामपंथी विचारधारा रखने वाले लोगों के लिए उम्मीद की एक किरण जगाई है।
नब्बे के दशक के बाद कम्युनिस्ट पार्टी और उसके अलग अलग दल, मार्क्सवादी – लेनिनवादी संगठनों का लोकसभा चुनावों में कोई खास प्रदर्शन नहीं रहा है। 2004 के लोकसभा चुनाव में वामपंथी पार्टियां मजबूत जरूर हुई थीं मगर उन्होंने कांग्रेस का सहारा लेकर ही अपना राजनीतिक कदम आगे बढ़ाया। ऐसे में माना जाने लगा था कि अब इन वामपंथी दलों की खुद का कोई राजनीतिक उभार सामने नहीं आयेगा। मगर इस बार के चुनाव में इनका प्रदर्शन देख एक बार फिर यह माना जा रहा है कि इन पार्टियों को देश में खुद की राजनीतिक भूमि तैयार करने व अपनी नीतियों पर मंथन करने का यही समय है।
राजनीति के बदलते रूप और बढ़ते कारपोरेट युग में भले ही वाम दलों की भूमिका मुख्य राजनीतिक धारा में न दिखती हो मगर जमीनी स्तर पर आज भी कई वाजिब मुद्दों पर ये दल सीना तानकर खड़े नजर आते हैं। दक्षिणपंथी संगठन पिछले कुछ दशक में काफी तेजी से मजबूत हुए हैं। हम इस बात को नहीं नकार सकते कि दक्षिणपंथी संगठन भारतीय परिवेश और यहां की सोच समझ के अनुरूप ही अपने मुहिम को अंजाम देते रहे और एक बड़ा जन समूह खड़ा कर लिया मगर वाम दल धीरे धीरे सिमटते गए। कुछ ही ऐसे शैक्षणिक संस्थान भी बचे हैं जहां छात्र राजनीति में वाम दलों की स्थितियां बेहतर हैं। इसका बड़ा कारण है बढ़ता हुआ पूजीवाद और उस पूंजीवादी सोच वाले लोगों का संस्थानों में प्रवेश। कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जहां छात्रसंघ चुनाव पूरी तरीके से बंद किए जा चुके हैं।
इस बार के लोकसभा चुनाव पर एक बार नजर डालें तो इस बार भाकपा और माकपा ने मिलकर कुल आठ सीटें जीते हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद अलग अलग राज्यों में इसकी शाखाओं मार्क्सवादी और लेनिनवादी के बन जाने के बाद से भी वाम आंदोलन पर काफी प्रभाव पड़ा है। मार्क्स,लेनिन और माओ के आयातित विचार को भारत के संदर्भ में ठीक से बिठा पाना थोड़ा कठिन है और ऐसे में इन संगठनों ने कभी भी खुद को सरल और लचीला बनाने का कोई खास प्रयास भी नहीं किया और धीरे धीरे अपने गढ़ों को खोते गए।
पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार ने करीब पैंतीस साल तक राज किया। बाद में उन्हीं के से टूटकर लोग कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में चले गए। वाम दलों को मिलने वाला जनमत भी तृणमूल और भाजपा के खाते में चला गया। आज भी वहां कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव लड़ती है मगर उसके लिए लोकसभा जैसे चुनावों में एक सीट निकाल पाना भी मुश्किल हो जाता है। बिहार और झारखंड में अपनी मार्क्सवादी – लेनिनवादी विचारधारा की जड़ को फैलाने की कोशिश में लगी भाकपा ( माले) ने इस बार जैसा प्रदर्शन किया है उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता। बिहार की लोकसभा सीट आरा और काराकट में भाकपा ( माले) ने जीत दर्ज कर मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वालों के लिए एक आशा की किरण जगाई है। ऐसा ही कुछ राजस्थान के सीकर में भी देखने को मिला है। यहां से इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार कॉमरेड अमराराम ने जीत दर्ज कर पिछले कई सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। जहां एक ओर वाम दलों का संसद से सफाया होता नजर आ रहा था वहां इस तरह की जीत से आशा है कि आने वाले समय में मजदूरों और वंचितों की आवाज़ बुलंद करने वाली वाम पार्टियां यदि सही तरीके से चुनाव लड़ती रहीं तो संसद भवन में वो अपनी आवाज को बुलंद कर पाएंगी। कॉमरेड अमराराम ने भाजपा के सुमेधानंद सरस्वती को हराया है। वो भी ऐसे समय में जब मोदी और भाजपा मिलकर देश में हिंदुत्व की बयार बहाने में लगे हैं। मोदी और उनके मंत्री लगातार वामपंथ और वामपंथी लोगों को देश के लिए नुकसानदायक बताते रहे हैं। अर्बन नक्सल जैसी संज्ञाओं से नवाजने वाली मोदी सरकार ने इस बार वामपंथ के खिलाफ माहौल जरूर बनाया मगर राजस्थान और बिहार से कम्युनिस्ट पार्टी की जीत वाम दलों की इच्छाशक्ति को मजबूत करती हुई दिख रही हैं। कई राज्यों में वाम दलों से इंडिया गठबंधन का प्रचार भी किया। केरल के लोकसभा चुनाव में वाम थोड़ा कमजोर हुआ है। उसका वोट कांग्रेस की ओर बंटा है मगर विधानसभा चुनावों में वो उसी तरह मजबूत बनीं दिखती है। तमिलनाडु में भी माकपा और भाकपा ने मिलकर दो – दो सीटें जीती हैं।
त्रिपुरा,पश्चिम बंगाल,झारखंड में लगभग लगभग अब वाम दल का सूरज अस्त हो चुका है। जबकि एक समय में ये राज्य वाम दलों का बड़ा अड्डा हुआ करता था। इस हार के पीछे बदलता राजनीतिक परिदृश्य और वाम दलों का अपनी संरचना व ढांचों में समय के अनुरूप बदलाव न करना है। पिछले एक दशक में भाजपा ने हिंदू मत को अपनी ओर मिलाने और उनका विश्वास जीतने के लिए हर संभव कार्य किया है। माणिक सरकार के गढ़ में भी भाजपा ने सेंध मारी और आज स्थिति ये है कि उत्तर पूर्व के राज्यों में भाजपा लगातार मज़बूत होती है। जल,जंगल,जमीन के लिए दक्षिणपंथी संगठनों की कभी कोई लड़ाई नही रही है बल्कि देखा जाए तो एक तरह से ये इससे शोषक ही रहे हैं। ऐसे में वाम दलों को इस बात को समझना होगा कि पहाड़ों और वादियों में भाजपा और हिंदुत्व पार्टियों के मजबूत होने का आखिर क्या कारण रहा है। सिर्फ भाजपा ही नहीं बल्कि पूजी और कॉरपोरेट वाली पार्टियां इन गढ़ों ने आखिर कैसे मजबूत होती गईं। कैसे जनमानस में वाम दलों के खिलाफ लगातार जहर घोला जाता रहा और उनकी छवि धर्म विरोधी, संस्कृति विरोधी बनाई जाती रही और वाम दल भी अपने ऊपर लग रहे इन आरोपों का खण्डन करने में असफल रहे हैं।
2004 के लोकसभा चुनाव के बाद से वाम दलों को मिलने वाला मत प्रतिशत लगातार गिरा है। 2004 के चुनावों में वाम दलों ने शानदार प्रदर्शन किया था और यूपीए सरकार का हिस्सा बने थे। तब देश में कांग्रेस, भाजपा के बाद माकपा तीसरे बड़े दल के रूप में सामने आई थी। जैसे इस बार के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी जीत दर्ज कर राष्ट्रीय पार्टी बनने के करीब पहुंच गई है। 2004 में माकपा ने 43, भाकपा ने 10, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने तीन- तीन सीटें जीती थीं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि 2004 में यूपीए सरकार में शामिल होकर कांग्रेस के साथ खड़े होने से वामदलों को नुकसान हुआ। नतीजा यह हुआ कि 2009 में उनकी सीटें 24, 2014 में 11 तथा 2019 में महज छह रह। इस बार यही सीटें बढ़कर नौ हुई हैं। जिसमे एक सीट आर एस पी की और आठ कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े दलों की हैं। इस बार यह मत प्रतिशत पिछले चुनाव की अपेक्षा बढ़ा जरूर है मगर वह भी संतुष्टिजनक नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में 2.46 प्रतिशत मत पाने वाले वाम दल इस बार 2.54 प्रतिशत मत पाकर थोड़े ऊपर उठे हैं मगर इससे उन्हें खुश न होकर आत्ममंथन करने की जरूरत है। इस मामूली सी उछाल से कुछ नहीं होने वाला बल्कि बिना किसी अन्य पार्टी का सहारा लिए खुद के राजनीतिक उभार के बारे में चिंतन करने की जरूरत है। 2004 के लोकसभा चुनाव में यही मत प्रतिशत 7.85 रहा जो लगातार 2019 तक गिरता रहा है। अब थोड़ी मामूली बढ़त जो मिली है,उससे उत्सव तो मनाया नहीं जा सकता मगर एक आशा जो वाम दलों में जगी है उसपर बैठकर विमर्श करने तथा रणनीति बनाने की जरूरत है।
नीति विशेषज्ञों का मानना रहा है कि वाम दलों ने जिस विचार को बाहर से समय समय पर आयात किया वो जनता के बीच उन विचारों को उसी तरह से फैलाने में लगे रहे। बगैर ये समझे कि भारत का परिदृश्य और यहां के जन का मन कैसा है। मसलन सुदूर गांव और पहाड़ों,जंगलों और दूभर दुर्लभ जगहों में रहने वाले लोगों की मान्यताएं,परंपराएं और उनकी संस्कृतियां कैसी हैं? उनकी आस्था और उनकी परंपरा क्या है? इनको बिना जाने,समझे और स्वीकारे वो मार्क्स,लेनिन और माओ के विचारों को फैलाने में लग गए और धीरे धीरे आस्थावादी और परंपरावादी समाज की नजर में धर्म विरोधी तथा परंपराविरोधी बन गए। नब्बे के दशक के बाद बाजार बढ़ा और उदारवादी दुनिया में भी वो जस के तस बने रहे। ऐसे में जनता को इन दलों से कुछ खास फायदा नहीं नजर आया और वे बड़े बड़े धनाढ्य पार्टियों की ओर उन्मुख होती गईं। ये तो बात राजनीति के जानकारों से जानने को मिलती है मगर हम ये नहीं कह सकते कि वाम दलों की आज की राजनीति में जरूरत नहीं है। आदिवासी,हाशिए का समाज और मजदूर मेहनतकश समाज की आवाज बुलंद करने वाले और उनके अधिकारों के लिए बिना स्वार्थ लड़ने वाला आज कोई दल है तो सिर्फ वाम दल है। जंगलों के कटाई का विरोध हो या नदियों को निचोड़कर पी जाने वाले पूजीपतियों व उद्योगपतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने की, ये दल हमेशा लड़ाई लड़ा है और जेल की सलाखों के पीछे भी गया है। ये अलग बात है कि सरकारें इन्हें नक्सली संगठनों की हितैषी मानती और बताती रही हैं।
वाम दलों को आज ये आत्ममंथन करना है कि वो कैसे भारतीय जनमानस को अपनी ओर खींच पाएं। उन्हें उनकी व्यक्तिगत और सामाजिक आस्था तथा परंपरा का सम्मान करते हुए साथ मिलाकर आवाज बुलंद करना होगा। इस चुनाव में जनता का धर्म और आडंबर से मोहभंग हुआ है। मोदी सरकार अंदर ही अंदर इस बात से चिंतित भी है कि उनका हिंदुत्व कार्ड काम नहीं आया ऐसे में इस मौके को लपककर वाम दलों को एक ऐसी नीति बनाने की जरूरत है जहां मोदी से मोह तोड़ चुकी जनता को अपनी ओर मिला सके और उन्हें विश्वास दिला सके कि वो संस्कृति,धर्म या परंपरा के विरोधी नहीं हैं बल्कि तार्किक और वैज्ञानिक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वो किसी ईश्वर के विरोधी नहीं है बल्कि ईश्वर के नाम पर ढोंग और आडंबर फैला रहे लोगों के विरोधी हैं। वो परंपरा के शत्रु नहीं बल्कि परंपरा के नाम पर सताए गए समाज के साथी हैं। ब्राह्मणवाद और मनुवाद की आलोचना और उसके प्रति गुस्सा दिखाकर वाम दल एक प्रकार से अन्य दलों की ही सहायता करते हैं। इन्हीं सब बातों को हिंदू कार्ड खेलने वाली पार्टियां आम जनता के बीच तोड़ मरोड़ कर पेश करती हैं और इनकी छवि ‘ क्रूर ‘ और ‘ धर्मविरोधी ‘ बताकर जनता में भ्रम पैदा करती हैं। अपनी इस बिगड़ी छवि को वामपंथी दलों को खुद सुधारना होगा। तमाम वैदिक पौराणिक काल के झगड़ों से आगे बढ़कर कुछ नया अध्याय लिखना होगा। कुछ नया श्लोगन चलाना होगा।
छात्र पत्रकारिता विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा महाराष्ट्र