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हमारे अच्छे दिन लाने वालों को अपने बुरे दिनों के बारे में भी अब सोचना आरंभ कर देना चाहिए

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विष्णु नागर

हमारे अच्छे दिन लाने वाले को अपने बुरे दिनों के बारे में भी अब सोचना आरंभ कर देना चाहिए. वे कब किस रास्ते आ जाएं, पता नहीं. उत्तर प्रदेश भी वह रास्ता हो सकता है. ठीक है कि उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल नहीं है मगर चुनाव हो जाने से पहले पश्चिम बंगाल भी पश्चिम बंगाल कब लग रहा था ? आज अखिलेश यादव ममता बनर्जी नहीं लग रहे हैं तो कल ममता बनर्जी भी तो अखिलेश यादव ही लग रही थीं !

वहां ममता बनर्जी ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया, यहां खेल बिगाड़ने के लिए आपके अपने योगीजी हैं. पांच साल से लगे हुए हैं. उन्होंने इतना ‘विकास’ किया है कि अब उत्तर प्रदेश को आगे और ‘विकास ‘ की जरूरत नहीं रही. ‘विकसित’ हो चुका है. इसकी ताईद आप यूपी जाकर कर भी कर आए हैं.

दूसरा, योगी हार भी गये तो गोरखपंथ का धार्मिक छाता अपने ऊपर तान लेंगे. उसमें सुरक्षित रहेंगे. धर्माध्यक्ष को छूना आज की तारीख में किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं. राजनीति का पल्ला छोड़ना भी पड़ा तो उनका अपना एक सुरक्षित साम्राज्य है. अच्छे दिन वाले भाई साहब के पास यह सुविधा नहीं है.

बीस साल राजसुख भोगते-भोगते वक्ष भूल चुके हैं कि जब बुरे दिन आते हैं तो मित्र छिटक जाते हैं. अपना आगे का इंतजाम ठीक करने में व्यस्त हो जाते हैं, बाकी सत्ता में रहते जो दिखता है, वह सब माया होता है. पर्दा हटा कि जो दीखता था, छूमंतर हो जाता है. भक्त भी कामधंधे से लग जाते हैं. गोदी चैनलवाले आनेवाली सत्ता की गोदी में इस फुर्ती से बैठते हैं कि लगता है कि ये तो बेचारे इधर ही थे, हमें ही समझ में नहीं आ रहा था.

समय हो तो ज्यादा दूर नहीं, आडवाणी जी के घर जाकर मिल आओ. वैसे चंडीगढ़ भी दूर नहीं, अमरिंदर सिंह से मिल लो. वे बताएंगे, कल जो उनकी परिक्रमा करते थे, आज उनकी देहरी छूते भी डरते हैं. फोन करते भी घबराते हैं कि कहीं टैप न हो जाए. एक तरफ बुढ़ापा, दूसरी तरफ यह अकेलापन !

बस बता रहा हूं, मानने के लिए नहीं कह रहा हूं. सत्ता जाने के बाद का अकेलापन दिन में भी आधी रात की तरह लगता है, जिसमें चंद्रमा तक उगता नहीं, डूबता नहीं. चौबीस घंटे सांय-सांय हवा चलती रहती है, बिजली कड़कती रहती है. डर लगता है मगर मुंह से किसी को पुकारने के लिए कंठ से आवाज़ तक नहीं निकल पाती. अकड़ भूल कर जब आदमी विनम्र हो जाता है, तो दयनीय लगता है.

सरकार के फंसाने के सौ तरीके

मैं ‘सरकार के फंसाने के सौ तरीके’ शीर्षक एक किताब लिख रहा हूं. अब अधिक विस्तार में न जाते हुए कथा का प्रथम अध्याय प्रारंभ करता हूं. यजमानो, बोलो, मोदीराज की जय ! बोलो भई, मोदीभक्तन की जय ! बोलो बहनों, संघप्रमुख जी की जय ! बोलो भई योगी महाराज की जय. और भक्तों इच्छा हो तो बोलो, अमित शाह की जय भी बोल दो !

तो उत्तर प्रदेश नामक भारत के एक विशाल प्रांत में कभी आदित्यनाथ नामक एक ‘योगी’ हुआ करते थे, जो सत्तायोग करते हुए मुख्यमंत्री पद के परमपद के भोगी बन चुके थे और प्रधानमंत्री के चरमपद की प्राप्ति के लिए लालायितमान होते हुए अमित शाह से प्रतियोगितारत थे.

वैसे तो उस काल में भाजपा नामक एक पार्टी की यह कुविचारित-कुचिंतित-कुफली नीति थी कि जो विरोध में खड़ा हो, उसे ऐसा निबटाओ, ऐसा फंसाओ कि उसके प्राण भले चले जाएं, मगर वह मरकर भी फंसायमान रहे. 57 साल पहले भारत-भू से न जाने किस लोक-अलोक को पलायन कर चुके नेता को भी मत छोड़ो, जैसा जवाहर लाल नेहरू के साथ उस काल में हुआ था.

तो आदित्यनाथ नामक ‘योगी’ भी उस नीति का प्राणपण से अनुपालन करते पाए जाते थे. उनका रघुकुल से कोई संबंध था या नहीं, इस बारे में उस समय के वेदों-पुराणों एवं ‘योगीचरित मानस’ में कुछ नहीं मिलता. मगर वह अपने को रघुकुल का आधुनिक अवतार मानते हुए ‘प्राण जाई पर जाल खाली न जाई’ की नीति का पालन समय-असमय किया करते थे.

उस समय पत्रकार नामक एक क्षीणप्राण प्रजाति भी हुआ करती थी, जो या तो गोदीवंशी थी या विपक्षीवंशी थी. समय के साथ यह दूसरी प्रजाति नष्ट हो रही थी और गोदीवंशी फल से ज्यादा फूलकर कुप्पा हो रही थी.

विपक्षीवंशी प्रजाति के प्रायः नष्ट होने के काल में ही प्रदेश के मिर्जापुर नामक एक जिले में ‘जनसंदेश टाइम्स’ नामक एक दैनिक का एक पत्रकार हुआ करता था. उसका नाम उस समय के अखबारों और टीवी चैनलों में पवन जायसवाल मिलता है. उसने एक गांव के स्कूल में बच्चों को दोपहर के भोजन में नमक-रोटी खिलाए जाने की बात सुनी तो विपक्षीवंशी होने के कारण उसे इस पर आश्चर्य हो गया अन्यथा क्यों होना चाहिए था ?

उसने इसका एक विडिओ बनाया. पहले खबर को अपने अखबार में छपवाया, फिर विडिओ प्रसारित भी कर दिया. फैलते-फैलते यह विडिओ जब अखिल भारतीय स्वरूप ले बैठा तो जिला कलेक्टर-जो बेचारा भूलवश नमक-रोटी खिलानेवालों के खिलाफ कार्रवाई कर चुका था-अपने ही इस कृत्य पर अत्यंत लज्जायमान हुआ.

उसने लज्जा के वशीभूत होकर ऐसा-वैसा स्वप्राणघातक काम नहीं किया बल्कि योगी के ‘पत्रकार फंसाओ कार्यक्रम’ की गति इतनी अधिक तीव्र कर दी कि पत्रकार बेचारे के खिलाफ जाने किन-किन धाराओं-उपधाराओं- अधाराओं में आपराधिक षड़यंत्र, जालसाजी का केस कर दीन्हा. यही गोदी-मोदी-योगी युग का अपना स्वदेशी ब्रांड था.

‘फंसाओ अभियान’ के अंतर्गत उस पर यह आरोप लगाया गया (मगर प्लीज़ हंसिएगा मत) कि वह अखबार का प्रतिनिधि था तो उसने विडिओ क्यों बनाया ? उसे खबर लिखनी चाहिए थी, फोटो खींचना चाहिए था. उसका ऐसा करना केवल अपराध नहीं बल्कि आपराधिक षड़यंत्र है.

तो इस विधि उस युग में छोटे-मोटे विरोधी भी फंसा लिये जाते थे. मूल उद्देश्य फंसाना होता था, बाकी मूर्खतापूर्ण तर्कों का उस युग में पर्याप्त कोटा उपलब्ध था. वैसे भी वह मूर्खता और दंभ का स्वर्ण युग था और ऐसे अभिनव स्वर्ण युग बार-बार नहीं आया करते. इतिहासकार और समकालीन टिप्पणीकारों ने उसे इसी रूप में याद किया है.

उस युग के चले जाने के बाद भारी संख्या में लोग जार -जार रोते पाए गए और किसी ने जब उनके आंसू नहीं पोंछे तो अच्छे बच्चों की तरह वे चुप हो गए और सिर के नीचे तकिया लगाकर खर्राटे मारते हुए निद्रा को प्राप्त हुए. जब वे सुबह ग्यारह बजे भी नहीं जागे तो वही आशंका हुई, जो ऐसी स्थितियों में होती है.

मगर ऐसा कुछ अघट नहीं घटा था. वह सपने में मूर्खता और दंभ के उस स्वर्ण युग में विचर रहे थे कि जब उन्हें हिला-हिला कर जगाया गया तो उन्हें जगानेवाले को दो झापड़ रसीद किए. जागने पर लगा कि वे किस नरक में पटक दिए गए हैं. उन्होंने फिर से सोकर स्वप्न जगत में पलायन का प्रयास किया, जो असफल रहा. इति उत्तर प्रदेशे भारतखंडे, फंसाओ प्रथम अध्याये समाप्ये.’प्रतिभा एक डायरी‘ से

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