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 जो उत्पादन के विज्ञान को नहीं समझते, सच्चे अर्थों में राजनीतिज्ञ नहीं हो सकते

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रजनीश भारती

सभी जीवधारियों को भूख लगती है। भूख का समाधान सिर्फ भोजन है। मनुश्य और अन्य जीवधारियों के बीच बुनियादी फर्क यही है कि अन्य जीवधारी भोजन का उत्पादन नहीं करते जबकि मनुश्य अपने भोजन का उत्पादन करता है। उत्पादन की कार्यवाही मुख्य कार्यवाही होती है, और यही अन्य कार्यवाहियों को नियंत्रित करती है। यहाँ तक कि राजनीतिक कार्यवाहियों को भी नियंत्रित करती है। अतः राजनीति को समझने के लिये उत्पादन के विज्ञान को समझना होगा। जो उत्पादन के विज्ञान को नहीं समझते, सच्चे अर्थों में राजनीतिज्ञ नहीं हो सकते। 

मनुश्य अपने भोजन के उत्पादन के लिये जो तरीके अपनाता है उसी तरीके से समाज में सम्बन्ध भी बनते हैं। सामाजिक सम्बन्ध वास्तव में उत्पादन के ही सम्बन्ध हैं। हम जिसे परिवार कहते हैं यह उत्पादन की एक छोटी इकाई है। प्राचीन काल में परिवार नहीं था। पूरा कबीला ही उत्पादन की एक इकाई था। कबीले के सारे सक्श म लोग मिलजुल कर शिकार करते थे तो उस समय लोगों के बीच कबीलाई सम्बन्ध था। पति-पत्नी, बेटी-बेटा, भाई-बहन, माँ-बाप जैसा कोई परिवारिक सम्बन्ध नहीं था। वह आदिम कबीलाई समाज था।

कालान्तर में मनुश्य फल खाते-खाते पेड़ लगाना सीख लिया, पशुओं का शिकार करते-करते पशुपालन सीख लिया, पशुओं को चारा खिलाने के चक्कर में खेती सीख लिया, गुफाओं में रहते-रहते घर बनाना सीख लिया। नदियों से पानी पीते-पीते कुँआ खोदना सीख लिया। अर्थात भोजन का संग्रह करते-करते भोजन पैदा करना सीख लिये। औजार बनाने के चक्कर में घर्शण से आग का आविश्कार कर लिया। इससे भोजन में गुणात्मक वृद्धि होने लगी और बचत भी होने लगी। इसी दौरान औजारों से बेहतर औजार बनाना सीखते गये। छोटे-छोटे औजार ही पहले बन पाये। जो अकेले-अकेले व्यक्तिगत प्रयास से ही चल सकते थे। छोटे औजारों को एक से अधिक लोग मिलकर चला ही नहीं सकते थे। छोटे औजारों को चलाने के लिये किसी सामूहिकता की जरूरत नहीं थी। छोटे औजारों (धनुश आदि) ने मनुश्य को इतना सक्श म बना दिया कि वे अकेले अर्थात निजी प्रयास से भी श िकार कर सकते थे। फिर भी समूह में रहना मनुश्य की बाध्यता और आदत भी थी। निजी मालकाने का ज्ञान ही नहीं था।

किन्तु उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि और अतिरिक्त बचत में आदिम साम्यवादी कबीले में विभेदीकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया अर्थात पशुपालन करने वाला कबीला, खेती करने वाला कबीला, औजार बनाने वाला कबीला, श िकार करने वाला कबीला एक दूसरे से अलग होता गया। इस प्रकार उनमें श्रम विभाजन हुआ और वे बचत का एक दूसरे कबीले से आदान-प्रदान करने लगे। उपभोग के बाद जो बच जाता था वह हर कबीले की सामूहिक सम्पत्ति होती थी। अलग-अलग सामूहिक सम्पत्ति के आदान-प्रदान की सरलता के लिए निजी सम्पत्ति का जन्म हुआ। व्यक्ति केन्द्रित औजारों के विकास ने निजी सम्पत्ति के आधार को मजबूत किया। जहाँ सामूहिक सम्पत्ति के दौर में सामूहिक पत्नियाँ होती थीं, वहीं निजी सम्पत्ति के समाज में निजी पत्नी होने लगी। निजी पत्नी से निजी बच्चे और इस तरह परिवार बन गया।

एक ओर कबीले के अन्दर बचत और विभेदीकरण, दूसरी ओर एक कबीले के लोग, दूसरे कबीले के लोगों को परास्त करके उन्हें गुलाम बनाने लगे। तब समाज में ‘गुलाम और गुलामों के मालिक’ वाला सामाजिक सम्बन्ध बना और उत्पादन कार्य सिर्फ गुलामां से करवाया जाने लगा। छोटे औजारों के विकास के साथ-साथ गुलाम भी निजी सम्पत्ति का हिस्सा बनते गये। यह गुलाम प्रथा हजारों साल तक चलती रही। कालान्तर में जब लोहे की खोज हुई और लोहे की कुल्हाडी़ बनी तो बहुत तेजी से जंगलां की कटाई हुई और खेतों का विस्तार दूर-दराज तक हो गया। दासों को दूर-दराज फैले खेतों में बसा दिया गया तब जो पहले समय में ‘दास’ थे वे अब ‘भूदास’ बन गये और ‘दास मालिक’ का स्थान भूस्वामी ने ले लिया। तब ‘जमीन के बदले लगान वाली व्यवस्था’ आ गयी। जिसे ‘सामन्ती समाज’ कहते हैं। 

इस प्रकार लोहे की कुल्हाड़ी के आ जाने से उत्पादन का तरीका बदला तो उत्पादन का सम्बन्ध भी बदलना पडा़ और एक नया सामाजिक सम्बन्ध बना जो दास प्रथा वाले समाज से अलग किस्म का था। भूस्वामियों और भूदासों के बीच जो सम्बन्ध बना वही नया सामाजिक सम्बन्ध हो गया। भूदासों एवं भूस्वामियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्परा, खान-पान, नियम आदि में जो बदलाव हुआ इससे एक नयी संस्कृति का जन्म हुआ जिसे सामन्ती संस्कृति कहते हैं। यह सामन्ती संस्कृति, दास प्रथा युग की संस्कृति से बुनियादी तौर पर अलग होती थी। 

भूदासां में दो श्रेणी थी एक काश्तकार और दूसरा दस्तकार। इनमें जो दस्तकार थे (जैसे- लुहार, बुनकर, धुनकर, कुम्हार आदि।) उनकी छोटी-छोटी कार्यशालायें, नयी-नयी मशीनों की खोज होने से विकसित होती गयीं और बड़े कारखाने का रूप लेती गयीं। पूँजीवादी विकास तीन चरणों में हुआ-

प्रथम चरण- दस्तकारी :- इस दौर में एक कारीगर ही पूरी चीज तैयार करता है। जैसे एक दर्जी कपड़े को काटकर पूरा कुर्ता अकेले तैयार करता है। 

द्वितीय चरण- मैन्यूफैक्चरी :- इस दौर में कई कारीगर मिलकर एक चीज के अलग-अलग पार्ट को बनाकर पूरी चीज को तैयार करते हैं। जैसे कई दर्जी मिलकर काम करते हैं। उनमें से कोई कपड़ा काटता है। कोई आस्तीन सिलता है। कोई गला बनाता है। कोई काज-बटन लगाता है। इस प्रकार कई दर्जी मिलकर पूरा कुर्ता तैयार करते हैं। इस दौर में व्यक्तिगत उत्पादन सामूहिक उत्पादन में बदलता गया, जिससे उत्पादन बढ़ता गया। मैन्यूफैक्चरी के सामूहिक उत्पादन ने उद्योग का रास्ता खोल दिया ।

तृतीय चरण- उद्योग :- इस दौर में बड़ी-बड़ी मश ीनों द्वारा सामूहिक उत्पादन होता है। 

औद्योगिक विकास के दौरान जब भाप के इन्जन की खोज हो गयी तो कारखानों में बहुत तीव्र विकास हुआ। इस प्रकार पूँजीवाद विकसित हुआ। पूँजीवाद का विकास सामन्तवादी व्यवस्था की कोख में हुआ। परन्तु पूँजीवादी विकास ने सामन्तवाद को तोड़ डाला और राजतंत्र की जगह पूँजीवादी लोकतंत्र की स्थापना किया। विकास के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। जहाँ ‘घर्शण से आग’ के आविश्कार से प्राचीन काल में निजी सम्पत्ति का आधार मजबूत होता है और निजी सम्पत्ति से वर्ग विभाजन होता है वहीं ‘आग से घर्शण’ (भाप शक्ति) के आविश्कार ने पूँजीवाद को विकसित किया और उत्पादन में सामूहिकता को अनिवार्य बना दिया जिससे समाजवाद का आधार तैयार होता गया।

पूँजीवादी विकास जिस अनुपात में बढ़ता है। उसी अनुपात में महँगाई, बेरोजगारी, भ्रश्टाचार, कर्ज और युद्ध का बोझ भी जनता के ऊपर अनिवार्य तौर पर बढ़ता जाता है। अन्ना हजारे, केजरीवाल, बाबा रामदेव जैसे अनेक लोग ऐसे हैं जो कि भ्रश्टाचार, महँगाई, बेरोजगारी का कभी-कभार विरोध तो करते हैं मगर जिस पूँजीवादी व्यवस्था से ये बुराइयाँ पैदा होती हैं उस पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध कत्तई नहीं करते। इसलिए उनकी पूरी लड़ाई पाखण्ड ही होती है। यह पाखण्ड वे जनता को धोखा देने के लिए करते रहते हैं। महँगाई, बेरोजगारी, भ्रश्टाचार से पीडि़त जनता ऐसे पाखण्डियों के साथ जब-जब खड़ी हुई है, तब-तब धोखा ही खाई है।

दरअसल आम जनता पूँजीवादी व्यवस्था की खामियों को नहीं समझती है। इसीलिए वह इस व्यवस्था को चलाने वाले व्यक्तियों में ही दोश देखती है। उसे भरोसा होता है कि ‘‘यदि इस पूँजीवादी व्यवस्था को कोई सही व्यक्ति चलाये तो महँगाई, बेरोजगारी, भ्रश्टाचार, कर्ज एवं युद्ध से निजात मिल सकती है।’’

इसी राजनीतिक अंधविश्वास के कारण बार-बार हर चुनाव में जनता व्यक्तियों को बदल देती है और सोचती है कि ‘अब सब कुछ ठीक हो जायेगा’ मगर हर चुनाव बाद जो भी सरकारें बनी हैं वे अपनी पिछली सरकारों से ज्यादा खूंखार साबित हुई हैं। परन्तु अंधविश्वास जनता का पीछा नहीं छोड़ रहा है। इस अंधविश्वास से निकलने के लिये पूँजीवादी व्यवस्था की खामियों को समझना जरूरी है। इसके लिए यदि हम पूँजीवादी विकास मॉडल से पीडि़त हैं और इस विकास माडल से पैदा होने वाली महँगाई, बेरोजगारी… आदि समस्याओं का समाधान चाहते हैं तो इस महँगाई, बेरोजगारी के पीछे की राजनीति को समझना होगा।

*रजनीश भारती*

*जनवादी किसान सभा*

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