दिव्यांशी मिश्रा
_भारतीय दर्शन ने शिव की प्रतिमा को अर्धनारीश्वर बनाया है। शंकर की आधी प्रतिमा पुरुष की और आधी स्त्री की है। शिव- पार्वती “एक जान- एक ज़िस्म” हैं। शिव मंदिरों मे हम योनि में स्थित लिंग की पूजा करते हैं। यह अनूठी घटना है।_
जो लोग भी जीवन के परम रहस्य में जाना चाहते हैं, उन्हें शिव के व्यक्तित्व को ठीक से समझना ही पड़ेगा।
_सब देवताओं को हमने देवता कहा है, शिव को महादेव कहा है। उनसे ऊंचाई पर हमने किसी को रखा नहीं। उसके कुछ कारण हैं। क्योंकि उनकी कल्पना में हमने सारे जीवन का सार और कुंजियां छिपा दी हैं।_
अर्धनारीश्वर का अर्थ यह हुआ कि जिस दिन परम~संभोग घटित होना शुरू होता है : पति का आधा व्यक्तित्व पत्नी और पत्नी का आधा व्यक्तित्व पति हो जाता है।
_अनिवार्यता बस इतनी होती है इस संभोग के लिए– नर और नारी का स्तर समान हो : भावना-संवेदना-चेतना के मामले में। इसके साथ, संभोग 2 घण्टे नहीं, तो कम से कम 1 घण्टे चले।_
स्तरीयता का चयन आप करें। एक घण्टे संभोग की क्षमता हम आपको देंगे : आपके भीतर से ही प्रस्फुटित करके, वो भी निःशुल्क। आपको मेरे सानिध्य में मेडिटेटिव सेक्स की तकनीकी समझनी होगी। अगर आप ठीक से/पूरी तरह मुझे ऑब्जॉर्व किए तो मेरी तरह 02 घण्टे सेक्स की केपेसिटी भी अर्जित कर सकते हैं।
_ऐसे मिक्सअप में आपकी ही आधी ऊर्जा स्त्रैण और आधी पुरुष हो जाती है। है भी वैसा ही मूलतः। दोनों के भीतर अथाह रस और लीनता पैदा होती है। फिर शक्ति का कहीं कोई विसर्जन नहीं होता।_
अगर आप बायोलाजिस्ट से पूछें आज, तो वह राजी हैं। वे कहते हैं, हर व्यक्ति दोनों है, बाई-सेक्सुअल है। वह आधा पुरुष है, आधा स्त्री है। होना भी चाहिए, क्योंकि आप पैदा एक स्त्री और एक पुरुष के मिलन से हुए हैं।
_तो आधे-आधे आप होना ही चाहिए। अगर आप सिर्फ मां से पैदा हुए होते, तो स्त्री होते; सिर्फ पिता से पैदा हुए होते, तो पुरुष होते। लेकिन आपमें पचास प्रतिशत आपके पिता और पचास प्रतिशत आपकी मां मौजूद है। तो आप आधे-आधे होंगे ही।_
आप न तो पुरुष हो सकते हैं, न स्त्री हो सकते हैं–अर्धनारीश्वर ही हैं। बस प्रयोग से मिलने वाले अनुभव की देर है।
बायोलाजी ने तो अब खोजा है इधर पचास वर्षों में, लेकिन हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में, आज से कम से कम पचास हजार साल पहले, इस धारणा को स्थापित कर दिया।
_यह धारणा हमने कोई बायोलाजी, जीव-शास्त्र के आधार पर नहीं खोजी, यह हमने खोजी योगी के अनुभव के आधार पर। क्योंकि जब योगी भीतर लीन होता है, तब वह पाता है कि मैं दोनों हूं, प्रकृति भी और पुरुष भी; मुझमें दोनों मिल रहे हैं; मेरा पुरुष मेरी प्रकृति में लीन हो रहा है; मेरी प्रकृति मेरे पुरुष से मिल रही है; उनका आलिंगन अबाध चल रहा है; वर्तुल पूरा हो गया है।_
मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि आप आधे पुरुष हैं और आधे स्त्री हैं। आपका चेतन पुरुष है, आपका अचेतन स्त्री है। अगर आपका चेतन स्त्री का है, तो आपका अचेतन पुरुष है। और उन दोनों में एक मिलन चल रहा है।
_जगत द्वंद्व से निर्मित है, इसलिए आप दो होंगे ही। आप बाहर खोज रहे हैं स्त्री को, क्योंकि आपको भीतर की स्त्री का पता नहीं। आप बाहर खोज रहे हैं पुरुष को, क्योंकि आपको भीतर के पुरुष का पता नहीं।_
इसीलिए, कोई भी पुरुष मिल जाए, तृप्ति न होगी, कोई भी स्त्री मिल जाए, तृप्ति न होगी। क्योंकि भीतर जैसी सुंदर स्त्री बाहर पाई नहीं जा सकती।
आपके पास, सबके पास, एक ब्लू-प्रिंट है। वह आप जन्म से लेकर घूम रहे हैं। इसलिए आपको कितनी ही सुंदर स्त्री मिल जाए, कितना ही सुंदर पुरुष मिल जाए, थोड़े दिन में बेचैनी शुरू हो जाती है, लगता है कि बात बन नहीं रही।
_आज प्रेमी-प्रेमिका असफल होते हैं; क्योंकि समान स्तर नहीं होता। ऐसे मे बात बननी करीब-करीब असंभव है।_
वह जो प्रतिमा आप भीतर लिए हैं, वैसी प्रतिमा जैसी स्त्री आपको अगर कभी मिले, तो शायद तृप्ति हो सकती है। लेकिन वैसी स्त्री आपको कहीं मिलेगी नहीं। उसके मिलने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जो भी स्त्री आपको मिलेगी, वह किन्हीं पिता और मां से पैदा हुई और उन पिता और मां की प्रतिछवि उसमें घूम रही है। आप अपनी प्रतिछवि लिए हुए हैं हृदय के भीतर। यही बात पुरुष के फैक्टर पर भी लागू होती है।
_यदि उम्र, रूप-रंग, कद-काठी, जाति-धर्म और दौलत के बजाए, भावना- संवेदना-चेतना स्तरीय समानता के आधार पर जुडाव कायम किया जाए तब ही बात बन सकती है।_
जब आपको अचानक किसी को देखकर प्रेम हो जाता है, तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि आपके भीतर जो प्रतिछवि है, उसकी ध्वनि किसी में दिखाई पड़ गई, बस। इसलिए पहली नजर में भी प्रेम हो सकता है, अगर किसी में आपको वह बात दिखाई पड़ गई, जो आपकी चाह है–चाह का मतलब, जो आपके भीतर छिपी स्त्री या पुरुष है–किसी में वह रूप दिखाई पड़ गया, जो आप भीतर लिए घूम रहे हैं, जिसकी तलाश है।
चीन में एक कथा के अनुसार जब पहली दफा पृथ्वी पर परमात्मा ने स्त्री और पुरुष को बनाया, तो उन दोनों को इकट्ठा पैदा किया। वे जुड़े थे–ठीक जुड़वां तभी अर्थ होता है–वे जुड़े थे। अर्धनारीश्वर थे। लेकिन इससे बड़ी अड़चन होती थी। काम-धाम, दोनों को साथ जाना पड़ता, दो शरीर साथ ढोने पड़ते। तो उन्होंने प्रार्थना की कि हमें अलग-अलग कर दें, सुविधा रहेगी। सुविधा की दृष्टि से परमात्मा ने उन्हें अलग-अलग कर दिया। अलग-अलग होकर इतनी बड़ी पृथ्वी पर अनंत-अनंत जन्मों में वे खो गए।
प्रेम अपने उस जुड़वां हिस्से की तलाश है, चीन में वे कहते हैं, जो खो गया; जब मिल जाएगा, तो तृप्ति होगी।
_इतनी बड़ी पृथ्वी है, कोई चार अरब स्त्री-पुरुष हैं। आप खोज रहे हैं अपनी स्त्री को। कोई खोज रहा है अपने पुरुष को। खोज चल रही है जन्मों-जन्मों में। जो भी मिलता है, उससे ही तृप्ति नहीं होती। मिलना करीब-करीब असंभव मालूम पड़ता है। चार अरब में संयोग की ही बात है, कभी उससे मिलना हो जाए, जिससे आपकी तृप्ति हो जाए।_
यह कथा प्रीतिकर है। कथा ही है, पर प्रीतिकर है, अर्थपूर्ण है। मेरे हिसाब से वह मिलना कभी भी नहीं होगा, जब तक आपकी आंख भीतर न जाए। भीतर वह स्त्री मौजूद है। उस स्त्री और आपके भीतर के पुरुष के मिलने की कला ही योग है।
_जिस दिन यह मिलन घट जाता है, उस दिन आपकी शक्ति खोती नहीं, ब्रह्मचर्य {ब्रह्मा में विचरण} संभव हो जाता है।_
इसलिए ब्रह्मचर्य की धारणा निषेध की धारणा नहीं है, त्याग की धारणा नहीं है, परमभोग की धारणा है।
_सारा योग, सारा तंत्र, सारा धर्म यही सिखाता है। परमात्मा परमभोग है। वह परमसंभोग का अनुभव है। अपने ही भीतर द्वंद्व खो गया, द्वैत खो गया; अद्वैत पैदा हो गया। आलिंगन अद्वैत है; जहां दो मिट जाते हैं और एक बचता है।_
संभोग के क्षण में भी आप आप हैं; पत्नी पत्नी है। मिलते हैं, कहीं छूते हैं, लेकिन मिल नहीं पाते। इसलिए सभी संभोग के पीछे एक तिक्त स्वाद मुंह में छूट जाता है कि जैसे कोई चीज असफल हो गई। बस करीब-करीब पहुंच गए थे, फिर खो गया। इसलिए फिर संभोग की आकांक्षा जगती है। लेकिन कोई संभोग तृप्त नहीं करता, क्योंकि कोई संभोग परम तृप्ति नहीं बन सकता; तड़पाता है।
_जिस दिन स्वस्थ- समग्र मिलन हो जाता है, उस दिन बात समाप्त हो गई। उस दिन बाहर अब कोई खोज नहीं है। अब कोई दूसरा न बचा, द्वंद्व मिटा, निर्द्वंद्व हुए। द्वैत मिटा, अद्वैत घटा। अद्वैत यानी परम आलिंगन। ऐसा जो व्यक्ति है, शिवलिंग/पार्वतीयोनि जैसा हो गया। अपने भीतर वर्तुलाकार पूर्ण हो गया, अपने ही भीतर रस, आत्म-रमण होने लगा जिसका, जिसका स्व-संभोग शुरू हुआ। ऐसा व्यक्ति कोई भी ऊर्जा नहीं खोता।_
ऊर्जा के लिए नुकीले बिंदु चाहिए। आपके शरीर की विद्युत अंगुलियों से खो सकती है, सिर से नहीं खो सकती। क्योंकि कोई भी चीज जो गोलाकार है, वहां से ऊर्जा को खोने का उपाय नहीं मिलता। जगह नहीं मिलती, जहां से वह खो जाए। जननेंद्रिय से ऊर्जा खो सकती है। जननेंद्रिय विशेष आयोजन है, ऊर्जा को खोने का।
_यह आपको समझ ही लेना चाहिए कि शरीर के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा है, जहां से शरीर ऊर्जा लेता है। और एक हिस्सा है, जहां से शरीर ऊर्जा खोता है। लेने वाले सब हिस्से आपके सिर में हैं, वह आपका एक छोर है। और इसीलिए सिर गोलाकार है, क्योंकि वहां से खोना नहीं है, वहां से इकट्ठा करना है।_
भोजन आप मुंह से लेते हैं, श्वास नाक से लेते हैं, किरणें आंख से लेते हैं, ध्वनि कान से लेते हैं। वहां से खोना नहीं है, वहां से पकड़ना है। वे रिसीविंग, ग्राहक अंग हैं। वहां दरवाजे हैं, जिनसे चीजें भीतर जा सकती हैं, लेकिन वहां से लौट नहीं सकतीं।
_योनि, लिंग नुकीला अंग है। और इसीलिए जननेंद्रिय में प्रकृति ने एक व्यवस्था की है, कि जब आप कामवासना से भर जाएं, तब जननेंद्रिय उभार में आ जाए और पूरी तरह नुकीली हो जाए। क्योंकि उस क्षण में जितनी नुकीली हो जननेंद्रिय, उतनी शीघ्रता से ऊर्जा का विसर्जन हो जाएगा।_
यह जो वर्तुलाकार शिवलिंग है, यहां से कहीं से भी ऊर्जा के निकलने का उपाय नहीं है। इस शिवलिंग की परिधि पर ऊर्जा घूम सकती है, घूमती रह सकती है, लेकिन बाहर नहीं जा सकती।
_हमने मंदिरों के ऊपर गोलाकार गुंबद बनाए थे, वह सिर्फ इसीलिए कि मंदिर के भीतर जो मंत्रोच्चार किया जाए, जो प्रार्थना की जाए, वह वापस गूंजकर गिर जाए मंदिर में, बाहर न जाए। वह गिरती रहे, वह प्रार्थना करने वाले पर वापस बरसती रहे। गूंज उसकी लौटती रहे, एक वर्तुल निर्मित हो जाए।_
_इस अर्थ में मंदिर की जो खूबी है, वह खूबी मस्जिद की नहीं, चर्च की भी नहीं। मंदिर ठीक सिर की भांति हमने निर्मित किया है। वहां ऊर्जा बरसती रहे, उसके नीचे जाकर कोई ऊर्जावान हो, शक्तिशाली हो, संगृहीत करे।_
आपका सिर मंदिर की भांति बन जाता है, अगर आपके भीतर के स्त्री-पुरुष का मिलन होता है।
अगर ठीक से मंदिर के आर्किटेक्ट को आप समझें, तो वह ठीक आदमी के शरीर में निर्मित किया गया है। आपका शरीर चौकोन है, तो मंदिर चौकोन है। ऊपर सिर की भांति मंदिर का गुंबद है। और जब योगी बैठता है पद्मासन में, तो जो उसके शरीर की आकृति है, वही मंदिर की आकृति है। ठीक योगी पद्मासन में बैठा है, वही मंदिर की स्थापत्यकला का सूत्र है। वैसे ही हमने मंदिर बनाया है, वह सिर्फ प्रतीक है।
_ऐसे ही भीतर के मिलन के क्षण में आप मंदिर बन जाएंगे।_
(चेतना विकास मिशन)