–रवीन्द्र शुक्ला
संदर्भ– एक अखबार में समाचार- “जयपुर के एक स्कूल मे हैलोवीन का कार्यक्रम आयोजित किया गया।”
हमारे समाज का एक वर्ग पश्चिमी सभ्यताओं की कुरूपताओं और विद्रूपताओं को अंगीकार कर अपने आपको उन्नत (??) समझने की मानसिकता पालने लगा है। अभी यह बीमारी बडे शहरों के नव-धनाढ्य और छद्म-बौद्धिक वर्ग में है जो अपनी संस्कृति के गंभीर यथार्थ, मानवीय हितों और जमीनी हकीकतों से स्वयं को जानबूझकर दूर कर रहा है और दिखावेबाजी को अपना रहा है।
आशंका यह है कि विडंबना का यह काला साया भविष्य में धीरे -धीरे छोटे शहरों कस्बों तक फैल जाएगा और उसके वाहक होंगे वहां कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल जिनका अंग्रेज़ी भाषा के सारगर्भित और लालित्यपूर्ण साहित्य से बच्चों को परिचित कराने का दूर-दूर तक कोई मकसद नहीं है । वे तो मानो बच्चों को हैलोवीन जैसी विद्रूपताओं के गर्त में ढकेलने को ही अपना मकसद समझते हैं और इसे हासिल कर लेने में ही अपनी सफलता मानते हैं।
आज एक विडंबना यह भी है कि युवा माता-पिता इस काले वीभत्स साये की जबर्दस्त गिरफ्त में हैं और बाल मन पर थोपी जा रही अप-संस्कृति के माध्यम से हो रहे कुठाराघात को रोकने के लिए तत्पर नहीं हैं,बल्कि उसके प्रति सहयोगात्मक रवैया अपना रहे हैं। हो सकता है कि यह उनकी विवशता हो कि वे ऐसा ही रवैया अपनाने को विवश हों क्योंकि उन्हें अपने आसपास के समुदाय(सोसायटी) से जुडे रहना है। फ्रेंड सर्कल में बने रहना है। अपनी वक़त, शोहरत, स्टेटस बनाए रखना है और इस तरह अपने आप को सोशल साबित करना है।
और, दादा-दादी या नाना-नानी जैसे बुजुर्ग क्या करें? जो अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव की ओर अग्रसर होते हुए अपने कमाऊ बेटे-बहू या बेटी-दामाद के पास रह रहे हैं और अपने पोते- पोतियों, नाती-नातिनों को “हैलोवीन” जैसे पर्व मनाते देख रहे हैं , वे क्या करें? वे तो बस याद कर सकते हैं अपने बचपन को जब वे खुद बच्चे थे और कभी भुजलिया लेकर और कभी सोन- पत्ती लेकर मोहल्ले में घर-घर जाते थे, बुजुर्गों के पैर छूते थे, आशीर्वाद के साथ सुसंस्कारित होने की अच्छी सी कोई सीख और मिठाई पाते थे। अब बदले हुए परिवेश में वे अपने पोते-पोती, नाती-नातिनों को क्या कहें? दैत्य- राक्षसी(demon) का मेक अप सजाकर या मुखौटा पहनकर अपने घर आए बच्चों को क्या आशीर्वाद दें; क्या सीख दें? या क्या उन्हें चाकलेट बांटकर ही संतोष कर लें और खुशी जता दें कि चलो अच्छा हुआ कि तुम लोग हमसे मिलने तो आए ,चाहे किसी भी रूप में हो ?
दिक्कत है कि बाल शिक्षण के क्षेत्र में गुणवत्ता उन्नयन काअपना कोई देशज शिक्षाविद नजर नहीं आता । पिछली सदी में दार्शनिक और बाल शिक्षण सिद्धांतकार विवेकानंद, अरबिंदो, रवीन्द्र नाथ टैगोर और महात्मा गांधी ने भारतीय संदर्भ में आदर्श बाल शिक्षा के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे। महात्मा गांधी प्रणीत ‘नई तालीम’ या ‘बुनियादी शिक्षा’ (Basic Education) को त्याज्य मान लिया गया।हालांकि यह भी एक एक सच्चाई है कि उसके ही कई सिद्धांतों और पहलुओं को पिछले कुछ दशकों में बने शिक्षा आयोगों ने अपनी रपटों में प्रकारांतर से और नए नाम से अपनी निजी सोच और निजी उपलब्धि बताते हुए शामिल किया गया है।
विचारणीय यह भी है कि लोग मैकाले को भारत में अंग्रेजियत के संस्कार फैलाने की उसकी बदनीयत भरी शिक्षा नीति के लिए आलोचना का शिकार बनाते तो नहीं थकते, किंतु स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही अंग्रेजी पद्धति का साहस के साथ प्रतिकार करने वाले गुजरात के बाल शिक्षाविद गिजु भाई वधेका और बंबई (अब मुंबई) की तारा बाई मोडक को कभी याद नही करते जिन्होने अपनी कर्मठता से और नवाचारी शिक्षण पद्धतियों बाल शिक्षा के नए आयाम प्रस्तुत किए थे। स्वातंत्र्योत्तर भारत में स्व नारायण भाई देसाई की दूरदृष्टिपूर्ण शैक्षिक सोच से विकसित सनोसरा (जिला भावनगर, गुजरात) स्थित लोक भारती विद्यालय और पूर्व मध्य भारत प्रांत के शिक्षा मंत्री रहे स्व काशीनाथ जी त्रिवेदी की प्रेरणा से टवलाई (जिला धार,म प्र) मे स्थापित ग्राम भारती आश्रम के सुमंगल स्कूल में कई दशकों से बच्चो को नैतिक मूल्यो से जुडे रहकर कर्मनिष्ठ सदाचारी नागरिक बनाने योग्य शिक्षा दी जाती रही है। बच्चों मे सुसंस्कारों का बीजारोपण करने के लिए जिन शिक्षाविदों ने अपना जीवन खपत दिया, वे भी आज सुनियोजित तरीकों से भुला दिए गए हैं ।
हाल ही के वर्षों में देश भारत की प्राचीन विरासत और संस्कृति की रक्षा के लिए बहुत से अभियान चल रहे हैं। एक अभियान बाल संस्कारो की रक्षा के के लिए क्यों नहीं?
( लेखक इंदौर के स्वतंत्र पत्रकार हैं। वे करीब चालीस वर्ष ‘नईदुनिया’ इंदौर और समाचार चैनल-‘ई टी वी’ हैदराबाद के संपादकीय विभागों मे वरिष्ठ पदों पर रहे हैं ।)