अग्नि आलोक
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*समय चिंतन : आदिशंकराचार्य और परम्पराएं*

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      पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

   फ़कीर साहब की नायाब फकीरी के चलते इन दिनों ‘शंकराचार्य’ नाम हर किसी की जुबान पर है. कम लोगों को इनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पता होगी.  जिन्हें नहीं पता है, जानें. प्रसारित करें ताकी नई पीढ़ी भी वस्तुस्थिति से महरूम नहीं रहे.

भारत में वैदिकधर्म के पुनर्जागरण के इतिहास में भगवत्पाद जगद्गुरु आद्यशंकराचार्य का नाम सर्वोपरि है। आद्य शंकराचार्य के महान् व्यक्तित्व में धर्म-सुधारक, समाज-सुधारक, दार्शनिक, कवि, साहित्यकार, योगी, भक्त, गुरु, कर्मनिष्ठ, विभिन्न सम्प्रदायों एवं मतों के समन्वयकर्त्ता-जैसे रूप समाहित थे।

     उनका महान् व्यक्तित्व सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करनेवाला था। उन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की प्राप्ति के साथ ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया था। उनके व्यक्तित्व में अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्म के साथ सगुण-साकार की भक्ति की धाराएँ समाहित थीं।

     ‘जीव ही ब्रह्म है, अन्य नहीं’ पर जोर देनेवाले आदि शंकराचार्य ने ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्धोष किया और बताया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने अपने अकाट्य तर्क से शैव, शाक्त और वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त कर पञ्चदेवोपासना का मार्ग दिखाया।

     कुछ विद्वान् शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं। आचार्य शंकर में मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव मानकर उनको ‘प्रच्छन्न बुद्ध’ कहा गया। आचार्य शंकर के उपदेश आत्मा और पमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं।

आचार्य शंकर ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में देश को एकसूत्र में पिरोने और वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जितना कार्य किया, वह अनुपम है। उनके समस्त कार्यों का मूल्यांकन करना लेखनी के वश की बात नहीं है। देश के चार स्थानों पर मठों की स्थापना करके वहाँ ‘शंकराचार्य’ की नियुक्ति; दशनामी संन्यासियों का संगठन बनाकर उनके लिए अखाड़ों और महामण्डलेश्वर की व्यवस्था; कुम्भ-मेलों और द्वादश ज्योतिर्लिंगों का व्यवस्थापन; प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता) पर भाष्य तथा अद्वैतवेदान्त के अनेक मौलिक ग्रंथों एवं स्तोत्रों की रचना तथा अवैदिक मत-मतांतरवाले अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करके सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा-जैसे अनेक कार्य शंकराचार्य को एक लौकिक मानव से ऊपर अलौकिक की श्रेणी में प्रतिष्ठित करते हैं।

*शांकर मठ परम्परा :*

    जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने सनातन-धर्म के प्रचार-प्रसार, गुरु-शिष्य परम्परा के निर्वहन, शिक्षा, उपदेश और संन्यासियों के प्रशिक्षण और दीक्षा, आदि के लिए देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर 4 मठों या पीठों की स्थापना की और वहाँ के मठाध्यक्ष (मठाधीश, महंत, पीठाधीश, पीठाध्यक्ष) को ‘शंकराचार्य’ की उपाधि दी। इस प्रकार ये मठाधीश, आद्य शंकराचार्य के प्रतिनिधि माने जाते हैं और ये प्रतीक-चिह्न, दण्ड, छत्र, चँवर और सिंहासन धारण करते हैं।

      ये अपने जीवनकाल में ही अपने सबसे योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं। यह उल्लेखनीय है कि आद्य शंकराचार्य से पूर्व ऐसी मठ-परम्परा का संकेत नहीं मिलता। आद्य शंकराचार्य ने ही यह महान् परम्परा की नींव रखी थी। इसलिए ‘शंकराचार्य’ हिंदू-धर्म में सर्वोच्च धर्मगुरु का पद है जो कि बौद्ध-सम्प्रदाय में ‘परमपावन दलाईलामा’ एवं ईसाइयत में ‘पोप’ के समकक्ष है।

    आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों को शांकर मठ भी कहा जाता है। इन मठों में संन्यास लेने के बाद दीक्षा लेनेवाले संन्यासी के नाम के बाद एक विशेषण लगा दिया जाता है जिससे यह संकेत मिलता है कि यह संन्यासी किस मठ से है और वेद की किस परम्परा का वाहक है। सभी मठ अलग-अलग वेद के प्रचारक होते हैं और इनका एक विशेष महावाक्य होता है।

  इनका विवरण इस प्रकार है :

      *ज्योतिर्मठ :*

यह मठ उत्तराखण्ड के बद्रीकाश्रम में है। इस मठ की स्थापना सर्वप्रथम, 492 ई.पू. में हुई। यहाँ दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ और ‘सागर’ विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है।

     इस पीठ का महावाक्य ‘अयमात्म ब्रह्म’ है। यहाँ अथर्ववेद-परम्परा का पालन किया जाता है। आद्य शंकराचार्य ने तोटकाचार्य इस पीठ का प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किया था। ब्रह्मलीन पुज्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम महाराज जी के पश्चात वर्तमान समय तक मठ का आचार्य-पद विवादित है, जो बहुत ही चिंताजनक है।

      *शृंगेरी शारदा मठ :*

 यह मठ कर्नाटक के शृंगेरी में अवस्थित है। इस मठ की स्थापना 490 ई.पू. में हुई। यहाँ दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘सरस्वती’, ‘भारती’, ‘पुरी’ नामक विशेषण लगाया जाता है। इस मठ का महावाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ है। यहाँ यजुर्वेद-परम्परा का पालन किया जाता है।

    सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) यहाँ के प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किए गए थे। सम्प्रति स्वामी भारती तीर्थ महास्वामी इस पीठ के शंकराचार्य हैं।

*द्वारका_शारदा मठ :*

    यह मठ गुजरात के द्वारका में अवस्थित है। इस मठ की स्थापना 489 ई.पू. में हुई। इस मठ में दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘तीर्थ’ और ‘आश्रम’ विशेषण लगाया जाता है। यहाँ का वेद सामवेद और महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ है।

     इस मठ के प्रथम शंकराचार्य हस्तामालकाचार्य थे। हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे। वर्तमान में स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती इसके 79वें मठाधीश हैं।

*गोवर्धन मठ :*

यह ओड़ीशा के जगन्नाथपुरी में है। इस मठ की स्थापना 486 ई.पू. में हुई। इस मठ में दीक्षा लेनेवाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘आरण्य’ विशेषण लगाया जाता है। यहाँ का वेद ऋग्वेद है। इस मठ का महावाक्य ‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’ है।

    आद्य शंकराचार्य ने अपने प्रथम शिष्य पद्मपादाचार्य को इस मठ का प्रथम शंकराचार्य नियुक्त किया था। सम्प्रति स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती यहाँ के 145वें शंकराचार्य हैं।

 *काञ्ची कामकोटि मठ :*

 यह मठ तमिलनाडु के काञ्चीपुरम् में अवस्थित है। आद्य शंकराचार्य देश के चार कोनों में मठों की स्थापना करके अपने जीवन का शेष समय व्यतीत करने के लिए 482 ई.पू. में काञ्चीपुरम् में रहने लगे थे।

    तभी से उनका निवास-स्थान मठ में परिवर्तित हो गया और कालांतर में ‘काञ्ची कामकोटि मठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आद्य शंकराचार्य जब तक उस मठ में रहे, तब तक उस मठ के अध्यक्ष स्वयं रहे। 477 ई.पू. में हिमालय जाने से पूर्व उन्होंने शृंगेरी शारदा मठ के अध्यक्ष सुरेश्वराचार्य को काञ्ची का भी अतिरिक्त कार्यभार सौंपा। सम्प्रति स्वामी शंकर विजयेन्द्र सरस्वती यहाँ के 70वें शंकराचार्य हैं।

 उपर्युक्त पाँचों मठों के अतिरिक्त भी भारत में कई अन्य जगह ‘शंकराचार्य’ की उपाधि लगानेवाले मठ मिलते हैं। यह इस प्रकार हुआ कि कुछ शंकराचार्यों के शिष्यों ने अपने मठ स्थापित कर लिये एवं अपने नाम के आगे भी ‘शंकराचार्य’ उपाधि लगाने लगे। परन्तु असली शंकराचार्य उपरोक्त पाँचों मठों पर आसीन को ही माना जाता है।

*आद्य शंकराचार्य का काल :*

भारतीय इतिहास और संस्कृति की अति प्राचीन और अविच्छिन्न परम्परा से अपरिचित पश्चिमी विद्वानों की यह साग्रह धारणा रही कि भारतीय सभ्यता बहुत अधिक प्राचीन नहीं है।

     अतः उन्होंने अपनी इस पूर्वकल्पित धारणा के सामंजस्य में भारतीय तिथिक्रम को तोड़ा-मरोड़ा। उन्होंने जीसस के बाद ही किसी महान् घटना को सिद्ध करने के लिए शंकर की तिथि को जान-बूझकर 788-820 ई. में रखा, ताकि उनकी (यूरोप) श्रेष्ठता स्थापित हो सके। जबकि वास्तविकता तो यह है कि शृंगेरी के शंकराचार्य नृसिंह भारती से पूर्व ये इतिहासकार आचार्य शंकर के जन्मस्थान तक का पता नहीं लगा सके थे, जबकि शंकर के जन्मकाल से अधिक विवादग्रस्त विषय भारतीय इतिहास में शायद ही कुछ हो।

     विदेशी और भारतीय इतिहासकारों ने भारत के परंपरागत इतिहास को अप्रामाणिक मानकर जिन प्रमाणों के आधार पर शंकराचार्य को 8वीं शती का माना है, वे प्रमाण तर्क और तथ्य की कसौटी पर थोथे सिद्ध हुए।

     आद्य शंकराचार्य के काल-निर्धारण में आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से काम लेने की आवश्यकता है। देश के प्रतीकपुरुष शंकराचार्य के जन्मकाल के सम्बन्ध में पाश्चात्य मत से प्रभावित अधिकांश इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित 788-820 ई. को प्रामाणिक मानकर कई शोधकर्ताओं ने डॉक्टरेट की उपाधियाँ भी प्राप्त कर ली हैं।

      जबकि शांकर-मठाम्नाय एवं अन्य प्राचीन परम्परा आचार्य शंकर का स्थिति-काल 509-477 ई.पू. निश्चित करती है। गोवर्धन मठ, द्वारका शारदा मठ और काञ्ची कामकोटि मठ में क्रमशः 145, 79 और 70 उत्तराधिकारियों (शंकराचार्यों) की अविच्छिन्न परम्परा चली आ रही है और इन तीनों मठों में अपने पूर्ववर्ती शंकराचार्यों की विस्तृत सूची सुरक्षित है जिसमें प्रत्येक शंकराचार्य का वास्तविक नाम, उनका पीठासीन वर्ष, उनका कार्यकाल, उनकी निर्वाण-तिथि, मास, वर्ष तथा स्थान का प्रामाणिकता से उल्लेख है। ये तीनों सूचियाँ उसी समय से अद्यतन की जा रही हैं, जब से वहाँ पर मठों की स्थापना की गयी थी।

     सुयोग्य अनुयायियों ने बड़े यत्न से अपने मठ के इतिहास को सुरक्षित रखा है। बतौर उदाहरण देखिये काञ्ची कामकोटि मठ के शंकराचार्यों की सूची :

  1. आद्य शंकराचार्य (482-477 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल एकादशी, 477 ई.पू., कैलास पर्वत-स्थित दत्तात्रेय-गुफा में)
    1. सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) (477-407 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, 407 ई.पू., काञ्ची)
    2. सर्वज्ञात्मन (407-364 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, 364 ई.पू., काञ्ची)
  2. सत्यबोध (364-268 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष कृष्ण अष्मी, 268 ई.पू., काञ्ची)
    5 ज्ञानानन्द (268-205 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, 205 ई.पू., काञ्ची)
  3. शुद्धानन्द (205-124 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, 124 ई.पू., काञ्ची)
  4. अनन्तानन्द (124-55 ई.पू.) (स्वर्गारोहण : वैशाख कृष्ण नवमी, 55 ई.पू., श्रीशैल)
  5. कैवल्यानन्द (55 ई.पू.-28 ई.) (स्वर्गारोहण : 28 ई., पुण्यरस काञ्ची)
  6. कृपाशंकर (28-69 ई.) (स्वर्गारोहण : कार्तिक कृष्ण तृतीया, 69 ई., विन्ध्य पर्वत)
  7. सुरेश्वर (69-127 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा, 127 ई., काञ्ची)
  8. शिवानन्द चिद्घन (127-172 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ कृष्ण दशमी, 172 ई., वृद्धाचल)
  9. चन्द्रशेखर I (172-235 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ शुक्ल नवमी, 235 ई., शेषाचल)
  10. सच्चिदघन (235-272 ई.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, 272 ई., काञ्ची)
  11. विद्याघन I (272-317 ई.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष कृष्ण अमावस्या, 317 ई., अगस्त्य पर्वत)
  12. गंगाधर I (317-329 ई.) (स्वर्गारोहण : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, 329 ई., अगस्त्य पर्वत)
  13. उज्ज्वल शंकर (329-367 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल अष्मी, 367 ई. काश्मीर
  14. गौड़ सदाशिव (367-375 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, 375 ई., त्र्यम्बक)
  15. सुरेन्द्र सरस्वती (375-385 ई.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, 385 ई., उज्जैन)
  16. विद्याघन II (385-398 ई.) (स्वर्गारोहण : भाद्रपद कृष्ण नवमी, 398 ई., गोदावरी-तट)
  17. मूकशंकर (398-437 ई.) (स्वर्गारोहण : श्रावण शुक्ल पूर्णिमा, 437 ई., गोदावरी-तट)
  18. चन्द्रशेखर II (437-447 ई.) (स्वर्गारोहण : श्रावण कृष्ण अष्टमी, 447 ई., काशी)
  19. बोधेन्द्र (447-481 ई.) (स्वर्गारोहण : कार्तिक कृष्ण नवमी, 481 ई., पुरी)
  20. सच्चित्सुख (481-512 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल सप्तमी, 512 ई., पुरी)
  21. चित्सुख (512-522 ई.) (स्वर्गारोहण : श्रावण कृष्ण नवमी, 522 ई., रत्नागिरि)
  22. सच्चिदानन्दघन (522-548 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, 548 ई., गोकर्ण)
  23. प्रज्ञानघन (548-564 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल अष्टमी, 564 ई., काञ्ची)
  24. चिद्विलास (564-577 ई.) (स्वर्गारोहण : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, 577 ई., काञ्ची)
  25. महादेवेन्द्र सरस्वती I (577-601 ई.) (स्वर्गारोहण : कार्तिक कृष्ण दशमी, 601 ई., काञ्ची)
  26. पूर्णबोध् I (601-618 ई.) (स्वर्गारोहण : श्रावण शुक्ल दशमी, 618 ई., काञ्ची)
  27. बोधेन्द्र सरस्वती (618-655 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख कृष्ण चतुर्थी, 655 ई., काञ्ची)
  28. ब्रह्मानन्दघन (655-668 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, 668 ई., काञ्ची)
  29. चिदानन्दघन (668-672 ई.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, 672 ई., काञ्ची)
  30. सच्चिदानन्द (672-692 ई.) (स्वर्गारोहण : भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, 692 ई., काञ्ची)
  31. चन्द्रशेखर III (692-710 ई.) (स्वर्गारोहण : मार्गशीर्ष कृष्ण अमावस्या, 710 ई., काञ्ची)
  32. चित्सुख (710-737 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, 737 ई., सह्याद्रि पर्वत)
  33. चित्सुखानन्द (737-758 ई.) (स्वर्गारोहण : आश्विन शुक्ल पूर्णिमा, 758 ई., काञ्ची)
  34. विद्याघन (758-788 ई.) (स्वर्गारोहण : पौष शुक्ल द्वितीया, 788 ई., चिदम्बरम्)
  35. अभिनव शंकर (788-840 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ कृष्ण अमावस्या, 840 ई., दत्तात्रेय-गुफा)
  36. सच्चिद्विलास (840-873 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल पूर्णिमा, 873 ई., काञ्ची)
  37. महादेव II (873-913 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल षष्ठी, 915 ई.. काञ्ची
  38. गंगाधर II (913-950 ई.) (स्वर्गारोहण : श्रावण शुक्ल प्रतिपदा, 950 ई., काञ्ची)
  39. ब्रह्मानन्दघन (950-978 ई.) (स्वर्गारोहण : कार्तिक शुक्ल अष्मी, 978 ई., काञ्ची)
  40. आनन्दघन (978-1014 ई.) (स्वर्गारोहण : चैत्र शुक्ल नवमी, 1014 ई., काञ्ची)
  41. पूर्णबोध II (1014-1040 ई.) (स्वर्गारोहण : भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, 1040 ई., काञ्ची)
  42. परमशिव I (1040-1061 ई.) (स्वर्गारोहण : आश्विन शुक्ल सप्तमी, 1061 ई., काञ्ची)
  43. सुरेन्द्रबोध (1061-1098 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ कृष्ण अमावस्या, 1098 ई., अरुणाचल)
  44. चन्द्रशेखर IV (1098-1166 ई.) (स्वर्गारोहण : चैत्र कृष्ण अमावस्या, 1166 ई., अरुणाचल)
  45. अद्वैतानन्दबोध (1166-1200 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, 1200 ई., चिदम्बरम्)
  46. महादेव III (1200-1247 ई.) (स्वर्गारोहण : कार्तिक शुक्ल अष्मी, 1247 ई., गादीलाम)
  47. चन्द्रचूड़ I (1247-1297 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, 1297 ई. गादीलाम)
  48. विद्यातीर्थ (1297-1385 ई.) (स्वर्गारोहण : माघ कृष्ण प्रतिपदा, 1385 ई. , हिमालय)
  49. शंकरानन्द (1385-1417 ई.) (स्वर्गारोहण : वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, 1417 ई., काञ्ची)
  50. पूर्णानन्द सदाशिव (1417-1498 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, 1498 ई., काञ्ची)
  51. व्यासाचल महादेव (1498-1507 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा, 1507 ई., व्यासाचल)
  52. चन्द्रचूड़ II (1507-1524 ई.) (स्वर्गारोहण : 1524 ई., काञ्ची)
  53. सर्वज्ञान सदाशिवबोध (1524-1539 ई.) (स्वर्गारोहण : चैत्र शुक्ल अष्मी, 1539 ई., रामेश्वरम)
  54. परमशिव II (1539-1586 ई.) (स्वर्गारोहण : श्रावण शुक्ल दशमी, 1586 ई., श्वेतारण्य)
  55. आत्मबोध (1586-1638 ई.) (स्वर्गारोहण : 1638 ई., गादीलाम)
  56. भगवद्धाम बोधेन्द्र (1638-1692 ई.) (स्वर्गारोहण : भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा, 1692 ई., गोविन्दपुरम्)
  57. अध्यात्म प्रकाश (1692-1704 ई.) (स्वर्गारोहण : चैत्र कृष्ण द्वितीया, 1704 ई., गोविन्दपुरम्)
  58. महादेव IV (1704-1746 ई.) (स्वर्गारोहण : ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, 1746 ई., तिर्वोत्तियुर)
  59. चन्द्रशेखर V (1746-1783 ई.) (स्वर्गारोहण : पौष कृष्ण द्वितीया, 1783 ई., कुम्भकोणम्)
  60. महादेव V (1783-1814 ई.) (स्वर्गारोहण : आषाढ़ शुक्ल दशमी, 1814 ई., कुम्भकोणम्)
  61. चन्द्रशेखर VI (1814-1851 ई.) (स्वर्गारोहण : कार्तिक कृष्ण द्वितीया, 1851 ई., कुम्भकोणम्)
  62. महादेव VI (सुदर्शन) (1851-1891 ई.) (स्वर्गारोहण : फाल्गुन कृष्ण अमावस्या, 1891 ई., विदैयत्तंकुदी)
  63. चन्द्रशेखर VII (1891-1908 ई.) (स्वर्गारोहण : माघ कृष्ण अष्टमी, 1908 ई., कलावदी)
  64. महादेवेन्द्र सरस्वती VII (1908-1908 ई.) (स्वर्गारोहण : फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, 1908 ई., कलावदी)
  65. चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती (1908-1994) (स्वर्गारोहण : पौष कृष्ण एकादशी, 1994 ई., काञ्ची)
  66. जयेन्द्र सरस्वती स्वामीगल (1994-2018) (स्वर्गारोहण : फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, 2018 ई., काञ्ची)
  67. शंकर विजयेन्द्र सरस्वती (2018-वर्तमान)

आचार्य शंकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आचार्य उदयवीर शास्त्री (1894-1991), टी.एस. नारायण शास्त्री (1869-1918), ए. नटराज अय्यर, एस. लक्ष्मीनरसिंह शास्त्री, स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वती, पं. कोटावेंटचलम् (1885-1959), स्वामी प्रकाशानन्द सरस्वती, आचार्य बलदेव उपाध्याय (1899-1999), पं. इन्द्रनारायण द्विवेदी, पी.एन. ओक (1917-2007), देवदत्त, आदि विद्वानों ने पर्याप्त शोध किया है।
अधिवक्ता परमेश्वरनाथ मिश्र ने आचार्य शंकर के काल पर स्वामी काशिकानन्द गिरि (1924-2014) द्वारा लिखित शोध-निबन्ध का खण्डन करने के लिए ‘अमिट काल रेखा’ नामक एक ग्रंथ की रचना की है।

इन सभी इतिहासकारों ने अपने शोध-कार्य में उल्लेख किया है कि काञ्ची कामकोटि मठ के 38वें शंकराचार्य अभिनव शंकर (788-840 ई.) इतिहासकारों ने आद्य शंकराचार्य के रूप में प्रचारित किया।
अभिनव शंकर 788 ई. में कांची कामकोटि पीठ पर शंकराचार्य के रूप में विराजमान हुए थे। उनके और आद्य शंकराचार्य का जीवनचरित इतना मेल खाता है कि अभिनव शंकर को ही आद्य शंकराचार्य कहकर प्रचारित किया गया। अभिनव शंकर का जन्म चिदम्बरम् में हुआ था। आद्य शंकर का जन्म कालड़ी में हुआ था, लेकिन एक परम्परा उनका जन्मस्थान चिदम्बरम् मानती है।
अभिनव शंकर और आद्य शंकर ने भारत की अत्यधिक यात्राएँ कीं, दोनों हिमालय गए, दत्तात्रेय-गुफा में प्रविष्ट हुए, फिर उनका कुछ पता न चला। इसी आधार पर 8वीं शती में हुए अभिनव शंकर को आद्य शंकराचार्य कहकर प्रचारित किया गया।
इस दृष्टि से प्रचलित इतिहास में लगभग 1,300 वर्ष की त्रुटि दृष्टिगत होती है। इस भूल से भारतीय ऐतिहासिक कालानुक्रम (क्रोनोलॉजी) में एक बहुत बड़ा व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है।
आचार्य शंकर के काल को 1,300 वर्ष पीछे ले जाने से यह सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध, अश्वघोष, नागार्जुन आदि की प्रचलित लेखकों द्वारा सुझाई तथाकथित तिथियाँ भी अशुद्ध हैं।
आद्य शंकर की तिथि का निर्धारण किए बिना भारतीय इतिहास त्रुटिपूर्ण कालक्रम से मुक्त नहीं हो सकता है। वस्तुतः भारतीय ऐतिहासिक कालानुक्रम में महर्षि वेदव्यास, बुद्ध, चाणक्य और शंकर की तिथियाँ वे महत्त्वपूर्ण पड़ाव हैं, जहाँ से हम इतिहास की अन्य बहुत-सी तिथियाँ सुनिश्चित कर सकते हैं और महाभारत, उससे पूर्व वाल्मीकीयरामायण तथा उससे भी पूर्व वेद का सही-सही काल-निर्धारण कर सकते हैं।
विगत दशकों में भारतीय इतिहास में कालानुक्रम-विषयक अनेक नयी खोजें हुई हैं। ये खोजें आचार्य शंकर की तिथि को संशोधित किए जाने की मांग कर रही हैं।
आद्यशंकर के सही-सही कालनिर्णय से ये परिणाम होंगे :
1. आद्य शंकर की तिथि-विषयक शोध से न केवल उनका सही-सही काल सुनिश्चित होगा, अपितु भारतीय इतिहास की अन्य तिथियाँ भी शुद्ध हो जाएगीं। इसी प्रकार भगवान् बुद्ध, चाणक्य और वेदव्यास की तिथियाँ भी शुद्ध हो जायेंगी।
2. वेदों का रचनाकाल स्वयमेव बहुत पीछे खिसक जायेगा। वेद भारतीय ज्ञान-परम्परा के प्रस्थान-बिन्दु तथा वैदिक वाङ्मय ज्ञान के अक्षय स्रोत हैं। वेदों का काल 1500 अथवा 1200 ई.पू. मानने पर हम उस परम्परा से कभी न्याय नहीं कर सकते।
3. यूरोपीय प्राच्यविदों ने गैर हिंदूवादी वास्तविक हिंदुओं को भी विकासवाद का यात्री मान लिया है और भारतीय इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। यह सिद्धान्त चूर-चूर होने से भारत में उत्तर-दक्षिण विभेद की राजनीति ख़त्म होगी।
4. स्थापित तमाम जड़ मान्यताओं को उखाड़ फेंककर स्वतंत्र दृष्टि से शोध-कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी.

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