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समय चिंतन : युगीन वैचारिक-व्योम

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पुष्पा गुप्ता 

एक मित्र का सहज प्रतिसंवेदन  : हमारी समझ 1960 के दशक में स्वरुप लेने लगी थी। 1962 में जब चीन- भारत सीमा विवाद हुआ था, तब मेरी उम्र नौ साल की थी; और जब 1964 में जवाहरलाल नेहरू मरे थे, तब मैं ग्यारह का था।_

        यानी हमारे किशोरकाल तक स्वतंत्रता आंदोलन की कहानियां और उनकी राष्ट्रवादी ध्वनियाँ  हमारे इर्द-गिर्द बनी हुई थीं। राजनीति पर नेहरू की गहरी छाप थी। कम्युनिस्ट -सोशलिस्ट उनका विरोध तो करते थे, लेकिन उनके प्रति उनका एक राग भी बना हुआ था।

     _राममनोहर लोहिया ने जरूर एक अल्हड़ मिजाज की टीम विकसित की थी, जिसके बूते उनका नेहरू पर अनाप -शनाप हमला होता रहता था। इन हमलों में वैचारिकता कम नेहरू से डाह अधिक दीखता था। निःसंदेह लोहिया प्रतिभावान थे, लेकिन उनका नेहरू विरोध कुछ उसी किस्म का था ,जैसे हिंदी कवि निराला का टैगोर विरोध।_

          पूरी ज़िंदगी निराला टैगोर -डाह में अपने अश्लील होने की हद तक डूबे रहे। ऐसा ही लोहिया में था। 

1970 के आसपास मैं मार्क्सवाद से परिचित हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर बना। मेरे मन पर मार्क्सवाद का एक चंदोवा तना होता था और पूरी दुनिया केवल दो भागों में विभक्त दिखती थी। हमारी दुनिया में एक तरफ मार्क्सवादी थे और दूसरी तरफ उनके विरोधी।     

     _राजनीति ,साहित्य ,दर्शन सब पर मार्क्सवाद का प्रभाव था। गीताप्रेस  गोरखपुर से छपने वाले हिन्दू धर्म के साहित्य तक पर उसका प्रभाव दीखता था। मद्भगवत गीता की व्याख्या करते हुए करपात्री जी महाराज कहते थे कि जिस तरह मार्क्स मिहनतक़श लोगों को सभ्यता के केंद्र में रखना चाहता है, गीता-दर्शन भी चाहता है ; क्योंकि वह भी बिना यज्ञ किए हुए खाने का निषेध करता है।_

       अब ऐसे में हिंदी लेखकों का मिजाज समझना कोई मुश्किल नहीं है। मैं स्वयं गांव के एक ऐसे किसान परिवार से आता था,जिसमें केवल एक पीढ़ी पहले पढाई-लिखाई शुरू हुई थी। हमारी पढाई गांव में हिन्दी माध्यम से हुई।

उन दिनों सरकारी विद्यालयों में अंग्रेजी कक्षा छह से पढाई जाती थी। इन सबका खामियाजा हमें भुगतना पड़ा था। हमारे चारों ओर हिन्दी कवियों -लेखकों की चर्चा होती थी। मैट्रिक तक की पढाई में अंग्रेजी भाषा स्तर तक ही हम सीख-समझ पाए थे। जब हम कॉलेज में पहुंचे तब जाकर अंगेजी के लेखकों -कवियों के बारे में कुछ जान सका।

      _उन दिनों सोवियतसंघ से हिंदी में अनूदित रूसी साहित्य भी खूब मिलता था। उनके द्वारा रूसी साहित्य के दिग्गज लेखकों के बारे में भी हमने जाना। दोस्तोवस्की, पुश्किन ,टॉलस्टॉय, चेखब ,गोर्की आदि के साहित्य ने हमारी चेतना के नए गवाक्ष सृजित किए।_

        इसी दौर में मैं लिखने भी लगा और मेरा लिखा  यत्र -तत्र प्रकाशित भी होने लगा। फिर लेखकों की दुनिया से परिचित हुआ। इस विषय पर अन्यत्र लिख चुका हूँ ,इसलिए दुहराऊंगा नहीं। हाँ, उनके वैचारिक -व्योम पर चर्चा जरूर करना चाहूंगा हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी प्रगतिशील धारा प्रभावशाली थी ;लेकिन इसके विरुद्ध भी बड़ी जमात थी।

        _समाजवादी -लोहियावादी लेखकों का एक अलग कुनबा था। अज्ञेय -धर्मवीर भारती जैसे लोग मार्क्सवाद विरोधी माने जाते थे। खांटी मार्क्सवादी लेखकों का सुसंगठित खेमा था ,जिसके तब कमसे कम तीन प्रकोष्ठ तो विकसित हो ही गए थे। सीपीआई ,सीपीएम और नक्सलबाड़ी समर्थक कम्युनिस्टों का अलग -अलग राग सुनाई देता था।_

       लेकिन सब मिला कर वे विशिष्ट किस्म की वाम साम्प्रदायिकता विकसित कर रहे थे,जिसमें मार्क्सवाद प्रभावशाली और मनुष्य उपेक्षित होता जा रहा था। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी एक कहानी ‘ आत्मसाक्षी ‘ में इस पक्ष को खूबसूरत और प्रभावपूर्ण ढंग से रखा है।

      _यह एक सामान्य कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता गनपत की कहानी है,जो तीस साल के अपने राजनीतिक संघर्ष के बाद महसूस करता है कि हम गलत राह पर थे। अज्ञेय और जर्मन हिन्दी विद्वान लोठार लुत्से ने इस कहानी को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है।_

     लुत्से ने इसका जर्मन जुबान में अनुवाद भी किया है। 

मार्क्सवादी लेखक आलोचक कुछ -कुछ अकड़ और ऐंठ में चलते थे ,जैसे आज संघी चलते हैं। कांग्रेस की कोई खास विचारधारा नहीं थी। गांधीवाद विनोबा के आश्रम और खादी की दुकानों में सिमट गया था।

      _नेहरूवाद से कम्युनिस्टों का कोई विरोध नहीं था और उसकी पूंछ पकड़ कर सरकारी महकमों में वाम पक्षधर भर गए थे। साहित्य और इतिहास के ठिकानों पर इनका ही साम्राज्य था। छुटभैय्ये लेखक इनके इर्द-गिर्द भिनभिनाते होते थे।_

       उन दिनों सोवियत संघ लेखकों को इनाम देता था, उसके साथ यात्राएं भी सुनिश्चित कराई जाती थीं। इन कारणों से मार्क्सवादी लेखकों का एक मठवादी स्वरुप विकसित होता गया। मठों और महंतों के विकसित होते ही पंथ और पाखंड भी स्वाभाविक रूप से  विकसित होते हैं।

       इन लेखकों को आज मैं बहुत चुप -चुप देख रहा हूँ। सुना है इनमे से अधिकांश संघ के खेमे में अपनी जुगाड़ बैठा रहे हैं ।

1990 में सोवियत संघ के  बिखरने और क्रेमलिन से लाल ध्वजा उतरते ही मार्क्सवादी खेमे और उनकी वैचारिक सरणियाँ सिमटने लगीं। इसी दौर में राजनीति में मंडल और रामजन्मभूमि का मामला प्रकट हुआ। दोनों ने संकीर्णतावाद का ऐसा घटाटोप विकसित किया कि नेहरू युग के सारे वैचारिक आवेग ध्वस्त हो गए।

       _कांग्रेस राजनीतिक रूप से सिमटने लगी और भारतीय जनता पार्टी के रूप में आरएसएस की विचारधारा हिन्दू द्विज तबके की मुख्य विचारधारा बनती चली गई। बाद के समय में आरएसएस ने लोहियावादियों के पिछड़ा पावें सौ में साठ की कूटनीति को अपना लिया और राजनीतिक क्षेत्र में कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों की छुट्टी कर दी।_

       इतना ही नहीं, मंडलवाद को ई डव्लू एस से निष्क्रिय करके अथवा संगत बिठा कर समाजवादी आंदोलन की टांग तोड़ दी। अब तो युग की मुख्य विचारधारा हिंदुत्व रह गई है। कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट अपनी मुस्लिम -मोह से आवरणित सेकुलरवाद से उसका मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं।

       फुले -आम्बेडकरवादी जातिवादी -आरक्षणवाद के चक्रव्यूह से निकल नहीं पा रहे हैं। एक उल-जलूल इतिहासबोध और तंग-नजरिया उनकी पूँजी रह गई है। मार्क्सवादियों ने तो कब के अपने हथियार डाल दिए हैं।

      _1990 के दशक में लेखकों के मनोमिजाज पर गौर करता हूँ तब राजेंद्र यादव और नामवर सिंह जी हुई कुछ वैचारिक बहसों और नोंकझोंक का स्मरण होता है। एक दफा राजेंद्र यादव ने हंस के सम्पादकीय में मुस्लिम समाज के पोंगपंथी स्वरुप पर टिप्पणियां की थीं। मार्क्सवादियों को यह बुरा लगा था।_.

         जामिया मिलिया की  की एक संगोष्ठी में,जिसमें मैं भी था, नामवर सिंह ने राजेंद्र यादव की इसके लिए ऐसी -तैसी की थी। राजेंद्र जी और नामवर जी दोनों मार्क्सवादी थे। दोनों 1990 के दौर में फुले -आम्बेडकरवाद से परिचित हुए थे। नामवर जी की अपेक्षा राजेंद्र यादव में वैचारिक खुलापन अधिक था।.

         वे किसी भी विषय को बिलकुल नए ढंग से सोचने पर बल देते थे। नामवर जी में मार्क्सवादी कट्टरता बनी हुई थी । हालांकि एकदम से आखिर में जाकर उन्होंने भी स्वीकार किया कि हमारे ज़माने के वैचारिक ओझा जिस सरसों से भूत भगाना चाहते थे, उस सरसों में ही भूत थे। 

सामान्य तौर पर हिंदी लेखकों का वैचारिक पक्ष ढुलमुल और कमजोर ही रहा है। अपनी कमजोरियां छुपाने केलिए वे यूरोपीय -अमेरिकन विचारकों के उद्धरण पेश करते हैं। मार्क्स -एंगेल्स से मुक्ति मिलती है तो कभी कभार नीत्शे , सार्त्रे या फिर बिल्कुल इधर के एडवर्ड सईद ,फूको आदि का उल्लेख कर अपनी धाक जमा लेना चाहते हैं।

        _अधिकांश कलमघिस्सू लेखक दिनरात लिख रहे हैं और  अपने फालतू -किस्म के उपन्यास -कहानियों से साहित्य का  कूड़ेदान भर रहे हैं। वे सब एक काल्पनिक लोक में जी रहे हैं। एकरोज क़यामत की तारीख आएगी और कोई अल्ला -ईश्वर उनके लिखे का सम्यक मूल्यांकन कर उनके लिए जन्नत सुनिश्चित करेगा।_

      [चेतना विकास मिशन]

madhav mantri

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