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समय चिंतन : नव वर्ष*

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डॉ. विकास मानव

जिस दिन से  गिनती शुरू करो उसी दिन के हिसाब से नव वर्ष होता है। तभी तो हिन्दुओं का अलग, मुस्लिमों का अलग, ईसाइयों का अलग…। तो *नव वर्ष के सन्दर्भ में अहम बात  यह कि दिन रोज नया होता है।* रोज नये दिन को न देख पाने के कारण हम वर्ष में कभी नया दिन देखने की कोशिश करते हैं। *अपने को धोखा देने की तरकीबों में से एक तरकीब यह भी है।*

 दिन कभी भी पुराना नहीं लौटता। रोज ही नया होता है। हर पल और हर क्षण नया होता है।

लेकिन *हमने अपनी पूरी जिंदगी को पुराना कर डाला है। उसमें नये की तलाश मन में बनी रहती है।* तो वर्ष में एकाध दिन नया दिन मान कर अपनी इस तलाश को पूरा कर लेते हैं।

 *सोचने जैसा है-*

 जिसका पूरा वर्ष पुराना होता हो उसका एक दिन नया कैसे हो सकता है?

 जिसकी एक वर्ष की, पुराना देखने की आदत हो; वह एक दिन को नया कैसे देख पाएगा? 

मैं कल तक जो रोज हर दिन को, हर सुबह को पुराना देखा हूं आज की सुबह को नया कैसे देख सकूंगा?

 मैं ही देखने वाला हूं। और मेरा जो मन हर चीज को पुरानी कर लेता है वह आज को भी पुराना कर लेगा। तब फिर *नये का धोखा पैदा करने के लिए नये कपड़े हैं, उत्सव है, मिठाइयां हैं, गीत हैं;* फिर नये का हम धोखा पैदा करना चाहते हैं।

लेकिन –

न नये कपड़ों से कुछ नया हो सकता है, न नये गीतों से कुछ हो सकता है। ताज़ा मन चाहिए! और *ताज़ा मन जिसके पास हो, उसके लिए कोई दिन कभी पुराना नहीं होता।*

 जिसके पास ताजा मन हो, फ्रेश माइंड हो, वह हर चीज को ताजी और नई कर लेता है। लेकिन ताजा मन हमारे पास नहीं है। तो हम चीजों को नई करते हैं। मकान पर नया रंग-रोगन कर लेते हैं। पुरानी कार बदल कर नई कार ले लेते हैं। पुराने कपड़े की जगह नया कपड़ा कर लेते हैं। *हम चीजों को नया करते रहते हैं, क्योंकि नया मन हमारे पास नहीं है।*

-नई चीजें कितनी देर धोखा देंगी?

 -नया कपड़ा कितनी देर नया रहेगा? पहनते ही पुराना हो जाता है। 

-नई कार कितनी देर नई रहेगी? पोर्च में आते ही पुरानी हो जाती है। 

*कभी सोचा है*

  नये और पुराने होने के बीच में कितना फासला होता है? जब तक जो नहीं मिला है, नया होता है; मिलते ही पुराना हो जाता है। अगर नई कार खरीद लाए हैं, तो कल तक सोचा था कि नई कार कैसे आए, और आज से ही सोचना शुरू कर देंगे कि और नई कैसे आए! इससे छुटकारा कैसे हो!

*चीजों को नया करने वाली इस वृत्ति ने सब तरफ जीवन को बड़ी कठिनाई में डाल दिया है;* क्योंकि कार ही नई नहीं करनी पड़ेगी, पत्नी भी नई लानी पड़ेगी। 

चीजें नई होनी चाहिए न! मकान को नया पोत कर नया कर लेने पर, नई कार खरीद लेने पर पत्नी भी खुश हो रही है, पति भी खुश हो रहा है। लेकिन-

 उन्हें खयाल नहीं कि *चीजों को बदलकर नयापन देखने का आदी आदमी एक पत्नी से जीवन भर राजी नहीं रह सकता, न ऐसी पत्नी एक पति से जीवन भर राजी रह सकती है।* हो भी यही रहा है, खुलकर भी, छुपकर भी।

 जो आदमी स्वयं को नया कर लेता है उसके लिए कभी कोई चीज पुरानी होती ही नहीं। 

जो अपने मन को रोज नया कर लेता है उसके लिए हर चीज रोज नई हो जाती है, क्योंकि-

 वह आदमी रोज नया हो जाता है। 

जो अपने को नया नहीं कर पाता उसके लिए सब चीजें पुरानी ही होती हैं। थोड़ी देर धोखा दे सकता है नये से, लेकिन थोड़ी देर बाद सब चीज पुरानी पड़ जाती है।

*दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं*

-एक वे जो अपने को नया करने का राज खोज लेते हैं।

 -दूसरे वे जो अपने को पुराना बनाए रखते हैं और चीजों को नया करने में लगे रहते हैं। *जिसको मैटीरियलिस्ट कहना चाहिए, भौतिकवादी कहना चाहिए, वह वह आदमी है जो चीजों को नये करने की तलाश में है।* 

शायद भौतिकवादी की, मैटीरियलिस्ट की यह परिभाषा हमारे खयाल में ही न हो। भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में फर्क है-

अध्यात्मवादी रोज अपने को नया करने की चिंता में संलग्न है। 

क्योंकि उसका कहना यह है कि अगर मैं नया हो गया तो इस जगत में मेरे लिए कुछ भी पुराना न रह जाएगा। क्योंकि जब मैं ही नया हो गया तो पुराने का स्मरण करने वाला भी न बचा, पुराने को देखने वाला भी न बचा, हर चीज नई हो जाएगी। 

भौतिकवादी कहता है कि चीजें नई करो, क्योंकि स्वयं के नये होने का तो कोई उपाय नहीं है। नया मकान बनाओ, नई सड़कें लाओ, नये कारखाने, नई सारी व्यवस्था करो। सब नया कर लो, लेकिन अगर आदमी पुराना है और चीजों को पुराना करने की तरकीब उसके भीतर है, तो वह सब चीजों को पुराना कर ही लेगा। फिर हम इस तरह धोखे पैदा करते हैं।

*उत्सव हमारे दुखी चित्त के लक्षण हैं*

 चित्त दुखी है वर्ष भर, एकाध दिन हम उत्सव मना कर खुश हो लेते हैं। वह खुशी बिलकुल थोपी गई होती है। 

क्योंकि कोई दिन किसी को कैसे खुश कर सकता है? दिन! अगर कल आप उदास थे और कल मैं उदास था, तो आज दिवाली हो जाए तो मैं खुश कैसे हो जाऊंगा? हां, खुशी का भ्रम पैदा करूंगा। दीये और फटाके और फुलझड़ियां और रोशनी धोखा पैदा करेंगी कि आदमी खुश हो गया।

*लेकिन ध्यान रहे-*

 जब तक दुनिया में दुखी आदमी हैं तभी तक दिवाली है। जिस दिन दुनिया में खुश लोग होंगे उस दिन दिवाली जैसी चीज नहीं बचेगी, क्योंकि रोज ही दिवाली जैसा जीवन होगा।

 जब तक दुनिया में दुखी लोग हैं तब तक मनोरंजन के साधन हैं। जिस दिन आदमी आनंदित होगा उस दिन मनोरंजन के साधन एकदम विलीन हो जाएंगे। 

*कभी यह सोचा न होगा*

 अपने को मनोंरजित करने वही आदमी जाता है जो दुखी है। इसलिए-

 दुनिया जितनी दुखी होती जाती है उतने मनोरंजन के साधन हमें खोजने पड़ रहे हैं। चौबीस घंटे मनोरंजन चाहिए सुबह से लेकर रात सोने तक, क्योंकि आदमी दुखी होता चला जा रहा है।

*आमतौर से हम समझते हैं*

जो आदमी मनोरंजन की तलाश करता है, बड़ा प्रफुल्ल आदमी है। ऐसी भूल में मत पड़ जाना।

 सिर्फ दुखी आदमी मनोरंजन की खोज करता है। और सिर्फ दुखी आदमी ने उत्सव ईजाद किए हैं। 

 सिर्फ पुराने पड़ गए चित्त में, जिसमें धूल ही धूल जम गई है, वह नये दिन, नया साल, इन सबको ईजाद करता है। और धोखा पैदा करता है थोड़ी देर।

 *कितनी देर नया दिन टिकता है?*

 कल फिर पुराना दिन शुरू हो जाएगा। लेकिन-

 एक दिन के लिए हम अपने को झटका देकर जैसे झड़ा लेना चाहते हैं सारी राख को, सारी धूल को। उससे कुछ होने वाला नहीं है। ये धोखे जुड़े हुए हैं। पुराना चित्त नये की तलाश से जुड़ा हुआ है। 

*चाहिए ऐसा कि रोज नया चित्त हो सके*

 तब नया साल न होगा, नया दिन न होगा; नये आप होंगे। और तब कोई भी चीज पुरानी नहीं हो सकती। और जो आदमी निरंतर नये में जीने लगे, उस जीवन की खुशी का हिसाब आप लगा सकते हैं?

जिसके लिए पत्नी पुरानी न पड़ती हो, पति पुराना न पड़ता हो; जिसके लिए कुछ भी पुराना न पड़ता हो। वही रास्ता जो कल जिससे गुजरा था, आज गुजर कर फिर भी नये फूल देख लेता हो, नये पत्ते देख लेता हो- उन्हीं वृक्षों पर, उसी सूरज में नया उदय देख लेता हो, उसी सांझ में नई बदलिया देख लेता हो, जो आदमी रोज नये को ईजाद कर सकता है भीतर से, उस आदमी की खुशी का हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते। वैसा आदमी सिर्फ बोर नहीं होगा, बाकी सब लोग ऊब जाएंगे।

*पुराना उबाता है। उस ऊब से छूटने के लिए थोड़ी-बहुत तरकीब करते हैं, तड़फड़ाते हैं। लेकिन-*

 उससे कुछ होता नहीं है। फिर पुराना सेटल हो जाता है। एक-दो दिन बाद फिर पुराना साल शुरू हो जाएगा।

 फिर अगले वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। नया दिन आएगा, फिर नये दिन हम थोड़े नये कपड़े पहनेंगे, थोड़े मुस्कुरा के, थोड़ी चारों तरफ खुशी की बात करेंगे, और ऐसा लगेगा कि सब नया हो रहा है।

 *यह सब झूठा है*

 क्योंकि यह बहुत बार नया हो चुका, और बिलकुल नया कभी नहीं हुआ है। यह हर साल दिन आता है और हर साल पुराना साल वापस लौट आता है।

इससे हमारी आकांक्षा का तो पता चलता है, लेकिन हमारी समझदारी का पता नहीं चलता। आकांक्षा तो हमारी है कि नया दिन हो, वर्ष में एक ही हो तो भी बहुत। 

*लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है?*

 अगर एक दिन को नया करने की तरकीब पता चल जाए, तो हम हर दिन को नया क्यों नहीं कर सकते❓

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