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पारिस्थितिकी तंत्र : ख़तरनाक होगा दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार समाप्त करना 

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डॉ. प्रिया (पुडुचेरी)

     _सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में जारी स्टेट आफ इंडियाज एनवायरमेंट 2022 रिपोर्ट के अनुसार मानवीय हस्तक्षेप मसलन जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और जंगलों की अंधाधुंध कटाई आदि का खामियाजा जैव प्रजातियां भुगत रही हैं।_
 रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियादी तानेबाने में छेड़छाड़ के लिए 75 प्रतिशत तक इंसानी गतिविधियां जिम्मेदार हैं। वनों में रहने वाले स्तनधारियों के तेजी से विलुप्त होने के लिए 83 प्रतिशत तक इंसान दोषी है और महासागरों में हो रहे प्रतिकूल परिवर्तनों के लिए भी 66 प्रतिशत तक इंसानी क्रियाकलाप ही जिम्मेदार हैं।
    _वर्ष 2018 में प्रोसीडिंग्स आफ द नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया था कि पृथ्वी एक और वैश्विक जैविक विलोपन घटना की गिरफ्त में है। वैश्विक जैविक विलोपन उस घटना को कहते हैं, जिसके दौरान पृथ्वी पर मौजूद 75 से 80 प्रतिशत जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं।_
    पृथ्वी अब तक वैश्विक विलोपन की पांच घटनाओं को ङोल चुकी है। अब हम छठे वैश्विक विलोपन के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। आशंका जताई गई है कि इसकी चपेट में इंसान भी आएंगे। इसी तरह की घटना आज से छह करोड़ 50 लाख साल पहले हुई थी, जब संभवत: एक उल्कापिंड के टकराने के बाद धरती से डायनासोर विलुप्त हो गए थे। 

आज भी कई लोग ऐसा मानते हैं कि कुछ प्रजातियों के विलुप्त होने से मानव अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं आएगा। यह दावा गलत है, हकीकत यह है कि पूरी पारिस्थितिकी तंत्र एक विशाल इमारत की तरह है।
इमारत की एक ईंट के कमजोर होने या गिरने से पूरी इमारत के धराशायी होने का खतरा रहता है। छोटे से छोटे जीव की पारिस्थितिकी संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे इंसान को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वह अपने साथ-साथ लाखों अन्य जीवों के लिए इस धरती पर रहना कितना दूभर बनता जा रहा है।
हमने अपनी सुख-सुविधाओं और तथाकथित विकास के नाम पर धरती पर मौजूद संसाधनों का प्रबंधन और दोहन इस तरह से किया है कि दूसरे जीवधारियों के जीवन के आधार ही समाप्त हो गए हैं।

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘पृथ्वी में देने की इतनी क्षमता है कि वह सबकी जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन पृथ्वी मनुष्य के लालच को नहीं पूरा कर सकती।’ ऐसा प्रतीत होता है कि मानव सभ्यता ने प्रकृति के खिलाफ एक अघोषित जंग का एलान कर रखा है और स्वयं को प्रकृति से अधिक शक्तिशाली साबित करने में जुटा हुआ है।
यह जानते हुए भी कि प्रकृति के खिलाफ युद्ध में अस्थायी रूप से जीतकर भी वह अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पाएगा।
{लेखिका चेतना विकास मिशन की संचालिका हैं)

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