आशुतोष रांका
कोरोना की दूसरी लहर से देश त्राहि-त्राहि कर रहा है. प्रतिदिन संक्रमित मरीजों की संख्या में इजाफा हो रहा है..हो सकता है जिस दिन आप ये लेख पढ़ रहे हों उस सिर्फ एक दिन में मरीजों की आने वाली संख्या दो लाख को पार कर गई हो. याद कीजिए इसी महीने में ठीक एक साल पहले जब देश में कोरोना की पहली लहर उठी थी तब तबलीग़ी जमात के काफी सारे लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे. यह तो याद होगा ही कि कैसे मीडिया ने इस मामले को उछाला था. 72 घंटे के भीतर देश के कोने-कोने से तबलीगियों को ढूंढ ढूंढ कर निकाला गया. दिल्ली में मौजूद मरकज़ की इमारत से बसों में भरकर जमातियों को कोविड सेंटर भेजा गया था. सरकार ने इस पूरे मामले की कठोर निंदा की और कोरोना फैलाने के लिए तबलीगियों को ज़िम्मेदार ठहराया.
कुंभ का तीसरा शाही स्नान आने वाला है. लेकिन 12 अप्रैल को सोमवति अमावस्या के दिन हुए दूसरे स्नान में लगभग 35 लाख साधु संतों और लोगों ने डुबकी लगाई. अनुमान है कि 1 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच रोज़ाना लगभग 10 लाख श्रद्धालु कुंभ में हिस्सा लेंगे. रविवार रात से सोमवार शाम के बीच कुंभ मेले के इलाके में लगभग 18000 टेस्ट हुए, जिसमें 100 पॉजिटिव आये थे. निरंजनी अखाड़े के महंत नरेंद्र गिरी के अलावा अन्य अखाड़ों से जुड़े कई अन्य संत भी कोविड-19 की चपेट में आए हैं. अब तक कुल नौ संत कोविड-19 पीड़ित पाए गए हैं ज़रा सोचिये, 3 करोड़ लोगों में, जो अप्रैल में इस महाकुम्भ में हिस्सा लेंगे, उनमें कितने लोग पॉजिटिव होंगे. और इतनी भीड़ वाले इलाके में वे कितने और लोगों को कोरोना फैलाएंगे.
‘हेल्थ सिस्टम कोलैप्स’
भारत में कोरोना के मरीजों की संख्या हर दिन रिकॉर्ड बना रही है. बुधवार को 1,84,000 नए केस आये और लगभग 1000 लोगों की जानें गयी. भारत में कोरोना की Ro. value फिलहाल 1.32 है यानी 100 व्यक्ति औसतन 132 व्यक्तियों को कोरोना फैला रहे हैं. बड़ी बात नहीं है कि देश आने वाले दिनों में प्रतिदिन 2-3 लाख केस और 3-4 हज़ार मौतें देखे. कल तक भारत में लगभग 10 करोड़ लोगों को कोरोना की पहली वैक्सीन लगी थी. किसी भूल में मत रहिएगा- भारत में वैक्सीनशन की रफ़्तार बेहद धीमी है. इस रफ़्तार से हम अगले 5 महीनों में 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन नहीं लगा पाएंगे, जिसका टारगेट खुद सरकार ने जुलाई के अंत तक रखा था.
ऐसे में यह समझने में बहुत दिमाग की ज़रूरत नहीं है कि इतनी बड़ी संख्या में कुम्भ में लोगों का भाग लेना कितना ज़्यादा खतरनाक हो सकता है. यही साधु-संत और श्रद्धालु जब कोरोना लेकर वापस अपने गांव जाएंगे तो सोचिये देश में कितनी तबाही मच सकती है. कितने शहरों ही नहीं राज्यों में हेल्थ सिस्टम कोलैप्स हो रहा है, कितने अस्पतालों में ICU बेड्स, ऑक्सीजन, वेन्टिलेटर की कमी पड़ रही सकती है.
तो क्या मेरे इस आर्टिकल का मकसद यह बताना है कि मरकाज़ियों को बेवजह फंसाया गया? जी नहीं. सरकार और मीडिया ने तब्लीगी जमात का मसला उछाल कर ठीक किया था. जब पूरे विश्व में कोरोना कहर बरपा रहा था, देश में लॉकडाउन लगा था, तब वह लोग धर्म के नाम पर कोरोना फैला रहे थे. ऐसी गैर-ज़िम्मेदारी भरे बर्ताव की भर्तसना होनी चाहिए और हुई भी. यह एक सत्य है कि दिल्ली जैसे अनेक शहरों में कोरोना के नियंत्रण से बाहर निकलने का एक बड़ा कारण तब्लीग़ी जमात के लोग थे. मैं खुद दक्षिण-पूर्वी दिल्ली (जहां मरकज़ की बिल्डिंग है) कलेक्टर ऑफिस में कार्यरत था और उस ज़िले में कोरोना देखते ही देखते काबू से बाहर हो गया. बहुत से क्षेत्रों में कम्युनिटी स्प्रेड का मुख्य कारण जमात के लोग थे.
मरकज से कोरोना फैल रहा था तो क्या कुंभ से नहीं फैल रहा? यह तो समझाने की ज़रुरत नहीं है कि कुम्भ मेले में इतनी भीड़ हर तरीके से गलत है. इतनी भीड़ को मैनेज कोई भी राज्य नहीं कर सकता. तो फिर आज मीडिया और सरकार चुप क्यों है? क्यों सरकार ने बल्कि 25 स्पेशल ट्रेनों का इंतज़ाम और किया है? क्यों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री स्वयं इस मेले में हिस्सा ले रहे है? यही नहीं उन्हें ये कहने से भी गुरेज नहीं कि मरकज की तुलना कुंभ से नहीं की जा सकती..
जवाब बेहद आसान है. दिक्कत ना मुसलमानों में है, दिक्कत ना हिन्दुओं में. गलत उस समय जमाती भी थे, गलत आज साधू संत भी है. धार्मिक कट्टरता कुछ मुसलमानों में भी है, कुछ हिन्दुओं में भी है. धार्मिक कट्टरता एक साल पहले भी थी, आज भी है. बस फर्क यह है कि उस समय आपको गुमराह किया गया यह कहकर कि देखो भारत में कोरोना मुसलमानों ने फैलाया है.
तब सरकार को अपनी नाकामियां छुपाने, और हमें बेवक़ूफ़ बनाने के लिए एक बढ़िया मुद्दा मिल गया था. सीएम तीरथ सिंह कह रहे हैं ‘मरकज बंद कमरे में हो रहा था यह खुले में हो रहा है इसलिए कुंभ से कोरोना नहीं फैलेगा.’ और सरकार ने कुम्भ पर प्रतिबंध नहीं लगाया.
लोकतंत्र, नियंत्रण और संतुलन
मुझसे अक्सर मेरे आसपास के लोग पूछते थे कि इन संस्थानों की स्वतंत्रता से आम आदमी के जीवन में क्या फर्क पड़ जाएगा? हमारे देश में लोकतंत्र क्यों ज़रूरी है? जवाब आपके सामने है. लोकतंत्र ज़रूरी है नियंत्रण और संतुलन के लिए. लोकतंत्र ज़रूरी है सरकार को जनता की सेवा में झुकाए रखने के लिए. लोकतंत्र ज़रूरी है सरकार की जवाबदेही के लिए. वो जवाबदेही, जो चुनाव से पांच साल में एक बार आती है, पर लोकतंत्र होने पर हर दिन रहती है. जब इस तरह से धार्मिक सम्मेलनों का गैर ज़िम्मेदारी से आयोजन हो रहा होगा, राजनेता धड़ल्ले से चुनावी रैलियां कर रहे होंगे, कोरोना काल में सभाओं में आने वाली भीड़ की संख्या का व्याख्यान कर रहे होंगे, उन्हें ठीक करने के लिए ज़रूरी है लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थान.
पूर्व में भी सरकारों ने धर्म और तुष्टिकरण के नाम पर ऐसी नीतिया अपनायी है. पर उन सरकारों और आज में एक बड़ा अंतर है- अंतर है लोकतान्त्रिक संस्थानों कावहीं संस्थान जिन्हें सुनियोजित ढंग से खत्म कर दिया गया. आज मेरे ननिहाल पक्ष के लगभग हर परिवार में कोरोना का एक मरीज है. गनीमत है कि कोई भी अस्पताल में नहीं है. होते तो क्या होता यह कल्पना भी नहीं करना चाहता पर आप में से कइयों के होंगे. कइयों को रेमडेसिवीर का इंजेक्शन नहीं मिल रहा होगा. कइयों के अपने, अस्पतालों की दयनीय हालत के चलते अपनी जान गवाएंगे. पर उनकी आवाज़ कौन उठाएगा?
क्या उस मीडिया से, जिसने आजतक देश के प्रधानमंत्री से एक अनस्क्रिप्टेड सवाल नहीं पूछा, कुछ उम्मीद की जा सकती है? अपने 7 साल के कार्यकाल में मोदी ने आज तक एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं की, आपको लगता है वो आज प्रेस बुलाकर देश की जनता की शंकाओं को दूर करेंगे? बताएंगे कि देश ने पिछले 1 साल में कितने वेंटिलेटर, आईसीयू और ऑक्सीजन बेड्स बढ़ाए? या फिर क्यों देश में अचानक रेमडेसिवीर की किल्लत पड़ रही है? या फिर क्यों कुंभ मेले पर सरकार ने प्रतिबन्ध नहीं लगाया?
क्या आज हमारे सुप्रीम कोर्ट में इतनी ताकत है की वो सुओ मोटो लेकर कुम्भ मेले और चुनावी रैलियों पर प्रतिबंध लगा पाए?
क्या उस चुनाव आयोग से, जो अपनी EVM तक नहीं संभाल पा रहा, उम्मीद की जा सकती है कि वो चुनाव रैलियों पर प्रतिबन्ध लगाएगा? या मास्क ना पहनने पर गृहमंत्री पर जुर्माना ठोकेगा?
क्या उस पुलिस से, जो अपने आकाओं के आदेश मात्र से देश-द्रोह और UAPA जैसी संकीर्ण धाराओं में लोगों को गिरफ्तार कर लेती है, कुछ भी उम्मीद की जा सकती है?
याद है जब देश में कोयला, 3G घोटाला हुआ था या फिर निर्भया की घटना हुई थी, तब कैसे मीडिया ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया था? कैसे प्रेस कांफ्रेंस और इंटरव्यू में मनमोहन सिंह पर सवालों की बौछार होती थी? याद करिये 1975 का वो समय, जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने देश के प्रधानमंत्री का चुनाव परिणाम पलटते हुए उन्हें electoral malpractices करने के लिए किसी भी पद पर रहने से प्रतिबंधित कर दिया था? याद करिये 1990s में टीएम शेषण को, जिन्होंने किसी का खौफ खाये बिना देश में चुनाव का हुलिया बदल कर रख दिया.
क्या यह सब आज हो पाना मुमकिन है?
जब इन संस्थानों को खत्म किया जा रहा था तब आपमें से ज़्यादातर लोग चुप थे. कुछ तो यह भी सोचते थे कि देश में टू मच डेमोक्रेसी है. शायद विकास का पहिया ऐसे ही आगे बढ़ेगा. उस पहिये की कोरोना के पहले ही दयनीय हालत थी, अब तो सोचने का भी मतलब नहीं है. कुछ को तो सही में लगता था कि देश मुसलामानों के कारण पीछे जा रहा है. कुछ को यह सबकुछ लिब्रल्स का इंटेलेक्चुअल टाइमपास लगता था. आज जब इन्हीं लोगों में से कुछ बेहद कठिन परिस्थितियों से गुज़र रहे है, तब उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई है नहीं. आज जब यही लोग अस्पताल की लाइनों में जूझ रहे है, अपनों को मरते हुए देख रहे है, तब इनके दुख पर मरहम लगाने वाला कोई है नहीं.
कल जब कुम्भ और चुनावी रैलियों के कारण आपके परिवार में किसी को कोरोना होगा और उसकी जान को खतरा हो जाएगा, तब किस पर चिल्लायेंगे? कल जब देश में त्राहि -त्राहि मचेगी, और आपके किसी अपने को इलाज के लिए अस्पताल में बेड नहीं मिलेगा, तब किसे बोलेंगे? कौन होगा आपको आवाज़ देने के लिए?
मान कर चलिएगा कि एक दिन आपकी भी बारी आएगी. तब लोकतंत्र नहीं होगा, आपको बचाने के लिए.
समझ रहे है या अब भी नहीं?
(लेखक आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र है और वर्तमान में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर्स कर रहे है. व्यक्त विचार निजी हैं)