पिछले दिनों में राष्ट्रीय रंगमंच पर जिस प्रकार का राजनीतिक चरित्र उभरकर आ रहा है, वह एक गंभीर चिंता का विषय है। ऐसा लगता है, राजनीति का अर्थ देश में सुव्यवस्था बनाए रखना नहीं, अपनी सत्ता और कुर्सी बनाए रखना है। राजनीतिज्ञ का अर्थ उस नीति-निपुण व्यक्तित्व से नहीं है, जो हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास-विस्तार और समृद्धि को सर्वोपरी महत्व दे; किंतु उस विदूषक-विशारद व्यक्तित्व से है, जो राष्ट्र के विकास और समृद्धि को अवनति के गर्त में फेंककर भी अपनी कुर्सी को सर्वोपरि महत्व देता हो।
राजनेता का अर्थ राष्ट्र को गति की दिशा में अग्रसर करने वाला नहीं, अपने दल को सत्ता की ओर अग्रसर करने वाला रह गया है। यही कारण है कि आज राष्ट्र गौण है, दल प्रमुख है। सिद्धांत गौण है, सत्ता प्रमुख है। चरित्र गौण है, कुर्सी प्रमुख है। एक राजनेता में राष्ट्रीय चरित्र, न्याय-सिद्धांत और नेतृत्व क्षमता के गुणों की आवश्यकता नहीं, किंतु आज कुशल राजनेता वही है, जो अपने दल के लिए राष्ट्र के साथ भी विश्वासघात कर सकता हो, अपनी कुर्सी के लिए अपने दल के साथ भी विश्वासघात करने का जिसमें साहस या दुस्साहस हो। बहुत बार मन में प्रश्न उभरता है, क्या राजनीति का अपना कोई चरित्र नहीं होता अथवा सत्ता प्राप्ति के लिए राष्ट्र, समाज, दल और व्यक्ति की विश्वासपूर्ण भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना ही राजनीति का चरित्र होता है?
जनता की कोमल भावनाओं का शोषण करके सत्तासीन होने के बाद क्या राजनेता का व्यक्तित्व जनता और राष्ट्र से भी बड़ा हो जाता है? यदि ऐसा नहीं है तो आज की राजनीति क्यों अपने प्रिय पुत्रों, संबंधियों और चमचों-चाटुकारों के चप्रव्यूह में फंसकर रह गई है? राष्ट्र को स्थिर नेतृत्व प्रदान करने के नाम पर क्यों सिद्धांतहीन समझौते और स्तरहीन कलाबाजियां दिखाई जा रही हैं? संप्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद और प्रांतवाद को भड़का करके क्यों सत्ता की गोटियां बिठाई जा रही हैं? आज की राजनीति को देखकर मन ग्लानि और वितृष्णा से भर जाता है। आखिर यह सबकुछ कब तक चलता रहेगा?