अग्नि आलोक
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आज की शुरुवात 11 बेहतरीन कविताओं के साथ

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जंगलराज*

गदहे खच्चर मंत्री बन गए, राजा रंगा सियार
जंगलराज हुआ स्थापित, बनी धूर्त सरकार
दुमदोलन और चाटुकारिता करे जो पाए मान
‘चीपों-चीपों, हुआ-हुआ’ बन गया राष्ट्र का गान

गिद्धराज गृह मंत्री बनकर पावर लगा दिखाने
राष्ट्रद्रोह के केस में कोयल बुलबुल को फंसवाने
रक्षा मंत्री बना भेड़िया निज सेना मरवाता
जब चुनाव के मौसम आए तब हमले करवाता

बंदर बन गया मुख्यमंत्री करे ढोंग पाखंड
अधिकारों की बात करें जो, उसको देता दंड
मुख्य सचिव गिरगिट भी हरपल बदले अपने रंग
कभी चोर का साथी बनता कभी सिपाही संग

स्वर सम्राट की ऊंची पदवी पाया कौवा काला
जो उसको मल भोगी बोले उसे जेल में डाला
बनी लोमड़ी वन मंत्री हाथी की करे सवारी
है सियार की प्रेयसी उससे डरती दुनिया सारी

उल्लू शिक्षा मंत्री बन गया नयी नीति ले आया
रंगे सियार की जीवन गाथा नए कोर्स में लाया
त्राहि-त्राहि पशु पक्षी करते संसद है मदमस्त
घना अंधेरा लोकतंत्र का सूरज हो गया अस्त

तीन कानून नया जंगल का संसद में जब आया
रंगे सियार ने ध्वनिमत से तीनों को पास कराया
शेर बाघ हाथी पशु पक्षी सब जुट किया एलान
सत्ताच्युत करने सियार को सबने ली है ठान

मोहन लाल यादव

………………………………………

इंकलाब लिख दूंगा

तुम आंखों से पैग़ाम तो भेजो, मैं इश्क के साथ इंकलाब लिख दूंगा।

गीत जो है प्रेम वाली, उसमें आज़ादी का राग लिख दूंगा।

जो हवा में तनी हुई मुठ्ठी है, उन लोगों को मैं अकबर लिख दूंगा।

प्रेम वाले संदेश में, मैं क्रांतिकारियों का विचार लिख दूंगा।

राज्य की सीमाओं को फना कर, मैं प्रेम के लिए संसार लिख दूंगा।

हाथ में लेकर लाल झंडा, इंकलाब का इतिहास लिख दूंगा।

मेरे क्रांति का हिस्सा तो बनो, मैं प्रेम की किताब लिख दूंगा।

राहुल दीपक

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अवैध

धरती पर कुछ साम्राज्य थे
जिनका राष्ट्रों पर अवैध कब्जा था।
राष्ट्र लड़ रहे थे साम्राज्यवादियों के खिलाफ।

राष्ट्र में धरती थी हरी-भरी
जंगल, नदी, पहाड़ थे
कुछ कॉर्पोरेट्स का अवैध कब्जा था इन पर
आदिवासी लड़ रहे थे कॉर्पोरेट्स के खिलाफ।

राष्ट्र में उपजाऊ जमीनें थीं
सामंतों का अवैध कब्जा था इन पर।
जमीन जोतने वाले लड़ रहे थे, सामंतों के खिलाफ।

राष्ट्र में कारखाने थे, खदान थे कई
मेहनत पर अवैध कब्ज़ा था पूंजीपतियों का
मजदूर लड़ रहे थे पूंजीपतियों के खिलाफ।

राष्ट्र में धर्म थे कई
एक धर्म का अवैध कब्जा था संस्थानों पर
अल्पसंख्यक लड़ रहे थे, हिंदू फासीवाद के खिलाफ।

राष्ट्र में न्यायपालिकाएं थीं
कानून पर अवैध कब्ज़ा था जिसका।
न्याय लड़ रहा था न्यायपालिका के खिलाफ।

राष्ट्र में परिवार थे
पितृसत्ता का अवैध कब्जा था घरों पर
औरतें बच्चे लड़ रहे थे पितृसत्ता के खिलाफ।

राष्ट्र के इन अवैध कब्जाधारियों की एक अवैध सरकार थी
अवैध सरकार के पास बुलडोजर थे
इसलिए ये सारे अवैध कब्जे वैध थे
अवैध थी जनता,
उसकी लड़ाइयां अवैध थीं।

वैधता की इस व्याख्या में
लड़ती जनता ने
अवैध होना अपना नया नागरिक धर्म चुना है
अवैध होना सच्ची नागरिकता है।

यह कविता
लड़ते नागरिकों के
अवैध होने की खुली घोषणा हैं।

आओ, अपना बुलडोजर इधर भी लाओ।

सीमा आज़ाद

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दैत्य सरीखे पांव

उसने कहा हम लड़ेंगे !
मैंने कहा उतावला न बनो
अभी खुद को तौलो
हवा के रुख़ को परखो
थोड़ा विचार और दर्शन को भी जानो
फिर लड़ने की बात करो !

उसने कहा यह धंधा तुम्हारा है
लेकर किताबी ज्ञान और कुर्सी पर पैर तान
तुम्हीं करो तौल और परख की बातें
हमें तो बस दुश्मन से लड़ना है
मरना या मारना है !

मैंने कहा आत्मघाती होगा
दुश्मन की ताकत को जाने-समझे बिना
लड़ने की बातें करना
यह तो जैसे तिनके के सहारे
है सागर में उतरना!
हो सके तो
अध्ययन-शिविर का करो आयोजन
तलवार भांजने में ही नहीं रहो मगन !

उसने कहा तुमने देखी नहीं है क्या
हाथी और चींटी की लड़ाई
दुश्मन चाहे कितना हो विशाल
कितने ही हों उसके मारक हथियार
हमारी अचूक रणनीति
उधेड़ देगी उसके पतित साम्राज्य की खाल
हमारा गोरिल्ला-दस्ता है लाजवाब
जंगल हैं हमारी ढाल !

मेरे और उसके बीच का यह संवाद
जाने कब से खूब चल रहा है
जाने कितने मौसम बीते दिन कितने रीते
न वह डिगा न हम डिगें
हुआ बस इतना
कि शत्रु के पांव थे जहां सूअर जैसे
इस बीच बढ़ते-बढ़ते दैत्य सरीखे दिखें!

सरन सुमन्त

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भरोसा

बीजों में, धरती में, सागर में भरोसा करना,
मगर सबसे अधिक लोगों में भरोसा करना।
बादलों को, मशीनों को, और किताबों को प्यार करना,
मगर सबसे ज्यादा लोगों को प्यार करना।
ग़मज़दा होना
एक सूखी हुई टहनी के लिए,
एक मरते हुए तारे के लिए,
और एक चोट खाए जानवर के लिए,
लेकिन सबसे गहरे अहसास रखना लोगों के लिए।
खुशी महसूस करना धरती की हर रहमत में —
अँधेरे और रोशनी में,
चारों मौसमों में,
लेकिन सबसे बढ़कर लोगों में।

नाज़िम हिकमत (‘मेरे बेटे के नाम आख़िरी चिट्ठी’ से)

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याद है कि भूल गये..?

इस देश के सभी,
हिंदू, मुसलमान…!
कर्ज़ में दबे किसान..!!
बेरोजगार नौजवान…!!!

तुम्हे याद है…?
या भूल गये.?
कि जब,
दिल्ली से सटे-
खोरी गांव में बसे,
मज़दूरों की बस्तियों पर,
बुलडोजर चलने से,
सब के सब,
कितना ख़ुश हुए थे..!

चिल्ला रहे थे,
“दूसरों की जमीन पर,
अवैध कब्जा करने का-
यही अंजाम होगा।…!”

ये याद है..?
या इसे भी भूल गये..?
कि जब,
दिल्ली की सीमा पर,
सर्दी, गर्मी, बरसात की,
मार से ज्यादा मारक,
अपने ही बेटे-बेटियों की-
लाठियां सहते,
किसानों की,
हालत देखकर,
हम कितना आनंदित थे..!

चिल्ला रहे थे,
कि इन खालिस्तानी,
आतंकवादियों को-
सबक सिखाया जाना,
बेहद ज़रूरी है..!

चलो कुछ नहीं;
इतना तो याद है न..?
या भूल गये ये भी..?
कि जब,
रेलवे भर्ती बोर्ड की,
सरासर गलती पकड़कर,
बेरोजगार अभ्यर्थी,
कर रहे थे शांतिपूर्ण आन्द़ोलन,
और, प्रशासन ने,
लाल कर दी थी, उनकी पीठ,
जिसे टीवी पर देखकर,

चिल्ला रहे थे हम,
सब के सब,
कि अराजक तत्वों का दमन करो,
वंचित करो, अयोग्यों को,
नौकरी के उनके,
मूलभूत अधिकार से..!

चलो छोड़ो,
कम अज़ कम,
ये तो याद ही होगा.?
या भूल गये,
उस ख़ौफनाक मंज़र को भी,
कि जब,
बीस बार उकसाने पर,
आपा खो बैठे मुसलमानों पर,
कितना बर्बर हमला किया था-
बुलडोज़र राज ने..!

और, तब भी हम,
चिल्ला रहे थे,
सब के सब,
कि कानून तोड़ने वालों का,
पिछवाड़ा तोड़ना,
सत्ता का जन्मसिद्ध अधिकार है.!

हलांकि हमें,
याद तो ये भी नहीं,
और हो भी नहीं सकता,
क्योंकि ये भविष्यवाणी है,
कि जब हम,
देश के,
हिंदू राष्ट्र घोषित होने की-
औपचारिक घोषणा के,
कुछ साल बाद,
सवाल उठाएंगे,
कि क्या यही रामराज्य है…?
तो तोड़ा जाएगा,
हमारा भी पिछवाड़ा..!

यक़ीन मानिए,
तब कोई नहीं चिल्लाएगा,
और न ही,
किसी को हमदर्दी होगी हमसे,
क्योंकि टूटे हुए पिछवाड़े से,
बस पादा जा सकता है,
चिल्लाया नहीं जा सकता..!

सन्तोष ‘परिवर्तक’

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वे डरते हैं

वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन दौलत
गोला बारूद पुलिस फौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डराना
बंद कर देंगे

गोरख पांडेय

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लोकतंत्र

कोई नफरत के टोल्टैक्स पर कब तक रुका रहेगा
कारवां भूख बेकारी का आखिर कबतक रुका रहेगा

गरीब मुर्गे का कत्ल कर देने से सवेरा नहीं रुकेगा
अस्त सूरज का उदय आखिर कब तक रुका रहेगा

सागर की ठंडी हवाओं से कहीं प्यास बुझती है
नदियों का बहाव आखिर कब तक रुका रहेगा

कहानी उन्माद की गढ़ लेने से किरदार नहीं बनते
बलिदानो का इतिहास आखिर कब तक छुपा रहेगा

कानून अवाम के लिए है या अवाम कानून के लिए
जम्हूरियत में तानाशाह आखिर कब तक छुपा रहेगा

सरल कुमार वर्मा
उन्नाव

9695164945

………………………………………

औरत तेरी कहानी

औरत ने जनम दिया मर्दों को,
मर्दों ने उसे बाज़ार दिया,
जब जी चाहा मसला कुचला,
जब जी चाहा धुत्कार दिया।

तुलती है कहीं दीनारों में,
बिकती है कहीं बाज़ारों में
नंगी नचवाई जाती है,
ऐय्याशों के दरबारों में
ये वो बेइज्ज़त चीज़ है जो,
बंट जाती है इज्ज़तदारों में।

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवां,
औरत के लिए रोना भी खता
मर्दों के लिए लाखों सेजें,
औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश का हक,
औरत के लिए जीना भी सज़ा।

जिन होठों ने इनको प्यार किया,
उन होठों का व्योपार किया
जिस कोख में इनका जिस्म ढला,
उस कोख का कारोबार किया
जिस तन से उगे कोपल बन कर,
उस तन को ज़लील-ओ-खार किया।

मर्दों ने बनायीं जो रस्में,
उनको हक का फरमान कहा
औरत के ज़िंदा जलने को,
कुर्बानी और बलिदान कहा
किस्मत के बदले रोटी दी,
और उसको भी एहसान कहा।

संसार की हर इक बेशर्मी,
ग़ुरबत की गोद में पलती है
चकलों ही में आ के रूकती है,
फाकों से जो राह निकलती है
मर्दों की हवस है जो अक्सर,
औरत के पाप में ढलती है।

औरत संसार की इस्मत है,
फिर भी तकदीर की हेटी है
अवतार पयम्बर जनती है,
फिर भी शैतान की बेटी है
ये वो बदकिस्मत माँ है जो,
बेटों की सेज पे लेटी है।

साहिर लुधियानवी

………………………………………

कल के लिए आज ही लड़ना होगा

अब न बोलोगे तो कब बोलोगे?
चुप रहने की भी एक सीमा है
जिंदगी भर फिर पछताना होगा
कल के लिए आज ही लड़ना होगा
वरना बे मौत तुम्हें मरना होगा।

व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त
………………………………………

आओ चलें

आओ चलें,
भोर के उमंग-भरे द्रष्टा,
बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर
उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने
जिसे तुम इतना प्यार करते हो ।

आओ चलें,
अपने माथों से
जिन पर छिटके हैं दुर्दम बाग़ी नक्षत्र
अपमानों को तहस-नहस करते हुए ।

वचन देते हैं
हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे ।
जब पहले ही धमाके की गूँज से
जाग उठेगा सारा जंगल
एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में
तब हम होंगे वहाँ,
सौम्य अविचलित योद्धाओ,
तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए ।

जब चारों दिशाओं में फैल जाएगी
तुम्हारी आवाज़ :
कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,
तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,
उसी स्वर में बोलते ।

और जब दिन ख़त्म होने पर
निरंकुश तानाशाह के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई
पहुँचेगी अपने अन्तिम छोर तक,
तब वहाँ तुम्हारे साथ-साथ,
आख़िरी भिड़न्त की प्रतीक्षा में
हम होंगे, तैयार ।

जिस दिन वह हिंस्र पशु
क्यूबाई जनता के बरछों से आहत हो कर
अपनी ज़ख़्मी पसलियाँ चाट रहा होगा,
हम वहाँ तुम्हारी बग़ल में होंगे,
गर्व-भरे दिलों के साथ ।

यह कभी मत सोचना कि
उपहारों से लदे और
शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू
हमारी एकता और सच्चाई को चूस पाएँगे ।
हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और
एक चट्टान चाहते हैं । बस,
और कुछ नहीं ।

और अगर हमारी राह में बाधक हो इस्पात
तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक
कफ़न चाहिए
जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ,
अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर ।
और कुछ नहीं ।

कॉमरेड अर्नेस्टो चे ग्वेरा

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