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आज शिक्षकों की हैसियत बैल की 

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चिन्मय मिश्रा

डूबे हुए जहाज पे क्या तबसरा (टिप्पणी) करें,
ये हादसा तो सोच की गहराई ले गया।
राहत इंदौरी

उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में एक आठ वर्षीय मुस्लिम छात्र को अन्य छात्रों से पिटवाना, कोई साधारण घटना नहीं है। यह भारत में शिक्षा के जहाज में छेद हो जाने की दास्तां है। छेद अभी छोटा है, इसलिए शिक्षा का जहाज डूबता नजर नहीं आ रहा है, लेकिन यदि छेद मूंदा नहीं गया तो जहाज डूबने में अधिक समय नहीं लगेगा। 

उधर गुजरात के एक विद्यालय में अपनी कक्षा में प्रथम आई मुस्लिम लड़की को मंच पर अपना पुरस्कार लेने से रोक दिया जाता है। मणिपुर में महीनों से पठन-पाठन का कार्य बंद है। कोटा (राजस्थान) में ट्यूशन पढ़ने वाले करीब 28 विद्यार्थी इस वर्ष अभी तक आत्महत्या कर चुके हैं। तमाम आईआईटी के छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। भारत की शिक्षा प्रणाली ने ऐसे छात्र तैयार करने का बीड़ा उठा लिया है, कि वह एक ऐसी पौध तैयार कर देगा, जो विद्यालय या महाविद्यालय गई ही न हो। 

दसवीं कक्षा पढ़ने के बाद बड़ी संख्या में छात्र ’’डमी स्कूल’’ में चले जाते हैं और अब ट्यूशन, शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण बन गई है। मगर अधिकांश शिक्षकों को, माता-पिताओं को, शिक्षाविदों को, राज्य व केंद्र के शिक्षा सचिवों को, राज्य व केंद्र के शिक्षा मंत्रियों को इससे कोई तकलीफ नहीं हो रही है। एक नया छात्र वर्ग जिसे हम एन.सी.जी.जी यानी नॉन कालेज गोइंग ग्रेजुएट, (महाविद्यालय न जाने वाले स्नातक) की संज्ञा दे सकते हैं, देशभर में तैयार हो रहा है। अनेक निजी विश्वविद्यालयों में तो स्नातकोतर तक में बिना एक दिन कक्षा में गए विद्यार्थी डिग्री प्राप्त कर रहे हैं। ये सब नियमित छात्र डिग्रीधारी हैं।

 भारतीय शिक्षा जगत में अब शिक्षक सबसे गैरजरूरी ’’वस्तु’’ बनकर रह गया है। शिक्षा के निजीकरण का सबसे भयावह पक्ष यही है। विनोबा कहते हैं, “आचार्य के तीन लक्षण हैं, पहला शीलवान, दूसरा प्रज्ञावान और तीसरा करुणावान’’ शीलवान साधु होता है। प्रज्ञावान ज्ञानी होता है। करुणावान मां होती है। लेकिन आचार्य साधु, ज्ञानी और मां तीनों होता है। ऐसे आचार्यों के द्वारा ही हमारा देश बना है।’’ वर्तमान में निजी शिक्षण संस्थाओं में सब कुछ प्रबंधन समूह या वर्ग के हाथ में होता है और शिक्षक का आंख उठाना भी अधिकांश शिक्षण संस्थानों में सहन नहीं किया जाता है। यदि शिक्षक ही दबा-कुचला है, तो विद्यार्थीं कैसे ओजस्वी बन सकते हैं। 

यही स्थिति देशभर के सरकारी विद्यालयों की भी है, वहां तो अधिकांश शिक्षिक संविदा पर हैं और त्रि-स्तरीय शासन प्रणाली के सबसे निचले पाए के नीचे दबे पड़े हैं। वहीं सरकारी विश्वविद्यालयों की बात करें तो उनमें से अधिकांश में ’’दशकों’’ से व्याख्याताओं की नियुक्ति ही नहीं हुई है। परतुं जो भी विद्यार्थी  आ रहे हैं उनको प्रवेश मिल रहा है। और वे उत्तीर्ण भी हो रहे हैं। भारत देश ऐसे ही ’’बिस्वगुरू’’ बनने की ओर अग्रसर हो रहा है।

 अभी भारत में वैदिक युग को वापस लाने का जैसे अभियान सा चल रहा है। अब तो वैज्ञानिक भी इसको प्रचारित कर रहे हैं। परंतु वेद में कहा है, ’’शिक्षा शचिष्ठ गातुविद ’’ (गातुविद के मायने हैं मार्ग को ढूंढने वाला, जिसे अंग्रेजी में पाथ फाइंडर कहा जाता है।) अर्थात हे अत्यन्त शक्तिशाली गुरु, हे मार्ग संशोधक, आप हमें शिक्षा दीजिएगा। शिक्षक को अत्यन्त शक्तिशाली बताया गया है और यह भी माना गया है कि यदि वह कमजोर होगा तो उसके द्वारा दिया गया मार्गदर्शन भी कमजोर होगा और इसके परिणामस्वरूप देश भी कमजोर होगा। वहीं वर्तमान समयकाल के भारत में सबसे दयनीय स्थिति में प्राथामिक शिक्षक ही है। जितनी अपमानजनक स्थिति में वह कार्यरत है, वह भारत में अकल्पनीय ही थी। 

विनोबा एक बड़ी मजेदार बात कहते हैं, ’’आज तो शिक्षक की हैसियत ही क्या है? जैसे खेत में बोते वक्त किसान बैल को पूछता नहीं कि, “अरे, बैल भाई हम क्या बोयेंगे? वह तो किसान ही तय करेगा। वैसे ही भारत के शिक्षक आज ’’बैलभाई’’ हो गए हैं। पढ़ाने के विषय, उसके घण्टे, अभ्यास क्रम आदि सब ऊपर से तय होकर आता है। आज इस तरह शिक्षकों की हैसियत बैल की है। उन्हें ’’नौकर’’ की ’’पदवी’’ प्राप्त हो गई है। उसमें न तो बुद्धि का विकास होता है, न राष्ट्र बनता है।’’ गौरतलब है, विनोबा तो यह सब कुछ तब कह रहे हैं, जबकि भारत में निजी शिक्षण संस्थाओं का बोलबाला नहीं था। आज की परिस्थिति तो और भी भयावह हैं। वे मानते थे कि 15 अगस्त 1947 को जैसे झण्डा बदला वैसे ही शिक्षा भी तुरंत बदलनी चाहिए। गौरतलब है यहा बात उन्होंने 15 अगस्त को एक सार्वजनिक सभा में कह भी दी थी।

 परंतु आज कथित अमृत काल के दौर में जब नई शिक्षा नीति की घोषणा हो चुकी है, और उसके क्रियान्वयन की बात की जा रही है, तो लग रहा है, जैसे कुछ भी बदला नहीं है। नई शिक्षा नीति में सब कुछ आधा-अधूरा सा है। इतना ही नहीं इसे लेकर वैचारिक और विचारधारा केंद्रित गतिरोध भी बढ़ता जा रहा है और कई गैर भाजपा राज्य सरकारों ने इस लागू करने से इंकार भी कर दिया है। जाहिर है भारत के शिक्षा जगत में जिसकी सबसे कम हैसियत है, वह ’’शिक्षक’’ ही तो है। हम भले ही शिक्षक दिवस मनाकर उस वर्ग को सम्मानित करने का ढोंग करते रहें, लेकिन यह तो तय है कि हमने शिक्षक से उसकी स्वायतता और स्वतंत्रता दोनों छीन ली हैं। इसका नवीनतम उदाहरण अशोका विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर द्वारा प्रकाशित शोधपत्र पर उठा बवाल है। इसके पहले हम जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों को देशविरोधी ठहराने का कार्य भी संपन्न कर चुके हैं।

 गांधी कहते हैं, “सच्ची शिक्षा वह है जो आपके भीतर के उत्तम गुणों को बाहर लाए और उसका विकास करे। मानवता की पुस्तक से बढ़कर दूसरी कौन सी पुस्तक हो सकती है?’’ परंतु आज तो हमारे शिक्षण संस्थान इस कदर असंवेदनशील होते जा रहे हैं कि वहां मानवता की तो जैसे गुंजाइश ही नहीं है। यदि प्राथमिक विद्यालय में ही धर्म के आधार पर भेदभाव शुरू हो जाएगा तो सोचिए हमारा समाज और देश का भविष्य क्या होने वाला है। हमारा सामाजिक तानाबाना अंततः तो प्राथमिक शिक्षा के आधार पर ही बुना जाएगा। 

गांधी जी ने एक बार सरदार पटेल से कहा था, “मेरी मां की सिखावन है। वह मुझे वैष्णव मंदिर में जाने को कहती, शिवजी के मंदिर में भी जाने को कहती। और मजे की बात कहूं? जब मेरा विवाह हुआ, तब हम दोनों को उसने पूजा करने के लिए केवल सभी हिन्दू मंदिरों में ही भेजा, सो नहीं, बल्कि दरगाह को भी ले गयी थीं।’’ एक सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण तो इसी तरह होता है। परंतु आज हमारे अनेक शिक्षण संस्थान सांप्रदायिकता निर्माण के कारखानों में बदल गए है और जो नहीं बदले हैं वे भयानक संकट और दहशत के दौर से गुजर रहे हैं।

शिक्षा का मूल उद्देश्य आज भुला सा दिया गया है। और इसके शुरूआत शिक्षकों के अपमान से ही शुरू हुई थी। हम बड़ी आसानी से मॅकाले की शिक्षा पद्धति को कोसते हुए बचने की राह ढूंढ लेते हैं। परंतु आजादी के कुछ बरसों के बाद शिक्षक के सम्मान में जो कमी का दौर चला उसके लिए भी क्या मकाले ही जिम्मेदार हैं? शिक्षा में जिस तरह से सांप्रदायिकता के विचार को घुसेड़ा जा रहा है और विज्ञान और इतिहास की जैसी मनमानी व्याख्याएं, उन लोगों द्वारा की जा रही है, जिनका कि शैक्षणिक जगत से कोई लेना-देना नहीं है, बेहद खतरनाक और लज्जाजनक भी है। आज की सबसे बड़ी जरूरत तो यही है कि शिक्षा में नैतिकता की वापसी हो और शिक्षा जगत को पूरी स्वायतता और स्वतंत्रता प्राप्त हो। तभी वास्तव में शिक्षक को सम्मान मिल सकता है।

राहत इंदौरी ने लिखा भी है,
हालांकि बेजबान था, लेकिन अजीब था
जो शरुस मुझसे छीन के गोयाई (बोलने की शक्ति ) ले गया।

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