श्रवण गर्ग
वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग के पास 50 साल से भी अधिक पत्रकारिता का अनुभव है। इतने वर्षों में उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी और गुजराती के विभिन्न अखबारों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है। एक रिपोर्टर और सब-एडिटर के रूप में अपनी यात्रा शुरू करने वाले श्रवण गर्ग ने शीर्ष संपादकीय दायित्वों का निर्वहन किया है। उनसे बातचीत के प्रमुख अंश-
आपने अपने जीवन के 50 वर्ष पत्रकारिता को दिए हैं। अपने प्रारंभिक जीवन और शिक्षा के बारे में कुछ बताइए।
मेरी शिक्षा तो सरकारी स्कूल में ही हुई है। उस समय सिर्फ सरकारी स्कूल में जिनकी फीस भी बेहद कम होती थी, मेरे ख्याल से मेरी फीस कोई 25 पैसे महीना थी। लेकिन अब वो सरकारी इमारतें ध्वस्त हो चुकी हैं। उनके साथ भी वही हुआ है, जैसा बाकी सरकारी संस्थानों के साथ होता आया है। चिमनी की रोशनी में पढ़े, नंगे पैर चले और किराए की साइकिल लेकर 15 रुपये महीने में ट्यूशन पढ़ाकर काम चलाते थे।
जीवन में ऐसा अनुभव होता है कि बचपन देखा ही नहीं, परिवार और मेरा दोनों का संघर्ष चलता रहा। वैसे मैं छोटी उम्र में ही पढ़ने-लिखने लग गया था, इसलिए शायद मन हमेशा से लेखन में ही रहा। इंजीनियरिंग भी की और कलकत्ता (अब कोलकाता) नौकरी करने भी गया, लेकिन 1966 में नौकरी छोड़कर वापस आ गया। तबसे आज तक पत्रकारिता ही कर रहा हूं। इंग्लिश, हिंदी और गुजराती भाषा में भी काम किया, पूरा देश घूमा और खूब अनुभव लिया।
आपने पत्रकारिता की पढ़ाई कहां से की? उसके बारे में बताइए।
देखिए, ये पढ़ाई तो बस एक बहाना है। इस फील्ड की कोई पढ़ाई नहीं होती है, ये तो जीवन से निकलती है। वैसे, भारतीय विद्या भवन से पढ़ाई की। उसके बाद स्कॉलरशिप पर लंदन, ऑस्ट्रिया, जापान जैसी जगह पर भी सीखने का मौका मिला, लेकिन मेरा कहना है कि ये पत्रकारिता तो जीवन के अनुभव से आती है।
हमारी पत्रकारिता पश्चिम से थोड़ी अलग है। वैसे हमारे यहां अखबार और प्रिंटिंग मशीन आजादी के काफी पहले ही आ गए थे, लेकिन फिर भी हमारी पत्रकारिता आजादी से निकली हुई है। वैसे भी आजकल तो लगभग हर नागरिक ही पत्रकारिता कर रहा है, उसके पास न तो डिग्री है और न ही अनुभव है। जिसके मन में जो आ रहा है, वो बोले जा रहा है। इसलिए मुझे लगता है कि आज तो देश में करोड़ों पत्रकार हैं। जो मुख्यधारा के पत्रकार हैं, वो भी सरकार के नजदीक ही नजर आ रहे हैं।
आपने 70 के दशक में बिहार आंदोलन को देखा, किताब भी लिखी, उस अनुभव के बारे में बताएं।
वो तो बड़े रोमांचक अनुभव रहे थे। उस समय इंदिरा जी के खिलाफ आंदोलन था और उस समय मैं जयप्रकाश नारायण जी के साथ सहयोगी के तौर पर था। मैं पूरे देश में उन दिनों घूम रहा था। उस समय हम ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में काम कर रहे थे और उस दौर में काम करने का एक अलग ही रोमांच था। आपातकाल लागू हो गया था और लगातार पाबंदी लगाई जा रही थी। उस दौर में भी हमने काम करने का साहस दिखाया था, आज के समय को देखकर ऐसा लगता है कि कुछ डरे हुए पत्रकार हैं या कुछ गुलाम पत्रकार हैं। उस समय स्पष्ट था कि कौन पत्रकार समर्थन में है और कौन विरोध में है! आज किसी पत्रकार को देखकर आप अंदाजा नहीं लगा सकते हैं कि वो क्या करेगा?
वो दौर अलग था और उस समय के पत्रकार और लेखन शैली वापस नहीं लाई जा सकती है। आज लोगों को सिर्फ एकतरफा जानकारी मिल रही है, जो उनके लिए ठीक नहीं है। उस समय मोबाइल नहीं थे और पत्रकार फील्ड पर होता था, उसे किसी भी हालत में शाम तक अपनी स्टोरी टाइप करने वापस आना होता था, क्योंकि उस जमाने में हम टाइपराइटर पर लिखा करते थे। उस समय एक जुनून था, जिसकी आज मुझे कमी नजर आती है। दुर्भाग्य है कि आज की पत्रकारिता सिर्फ ग्लैमर में फंसकर रह गई है और एंकर पर निर्भर हो गई है। और देखिए मैं कोई आरोप नहीं लगा रहा हूं। दरअसल, आज जब हम किसी एंकर को कोसते हैं तो वो गलत है, क्योंकि उसके पीछे एक पूरी टीम काम करती है। कई बार संस्थान के कुछ ऐसे हित होते हैं, जो हमें दिखाई नहीं देते हैं और हम पूरा दोष कई बार एंकर पर लगा देते हैं। आज टीवी में आपको क्राइम, स्पोर्ट्स और ग्लैमर ही दिखाई देता है और आजकल तो पॉजिटिव न्यूज का भी एक दौर आ गया है।
आपने चंबल के डाकुओं का आत्मसमर्पण देखा है। आपकी किताब भी काफी प्रसिद्ध हुई। उस दौर के अनुभव बताइए।
आज के समय में वो अनुभव करना कठिन है। उस समय करीब 500 गिने-चुने डाकू थे, लेकिन आज देखा जाए तो लाखों-करोड़ों ‘डाकू’ हो गए हैं। अप्रैल 1972 में डाकुओं का समर्पण हुआ और उसे मैंने बड़े करीब से अनुभव किया था। वो भी एक बड़ा रोमांचक अनुभव था, जब चंबल में रहना पड़ा। उस दौर की कल्पना करना ही आज मुश्किल है। खूंखार डाकुओं से मैंने बात की और उनके इंटरव्यू भी किए। उनके आत्मसमर्पण की पक्रिया भी काफी लंबी चली थी।
उस समय सरकारों से बात करना, उनसे सहमति लेना बड़ा काम था। मैं आपको बता दूं कि इस कार्य की बुनियाद बिनोवा भावे ने 1960 में रखी थी, उनके सामने भी डाकुओं का आत्मसमर्पण हुआ था। आज तो समर्पण इस समाज से खत्म हो गया है, सीधे एनकाउंटर कर दिया जाता है। उस समय जयप्रकाश नारायण को इंदिरा जी और एमपी के सीएम से समर्थन भी मिला था, जब उन्होंने डाकुओं के आत्मसमर्पण की बात की थी।
हमने अक्सर ऐसा सुना है कि उस जमाने में डाकू सिर्फ अमीरों को परेशान करते थे, महिलाओं-बच्चों को नहीं मारते थे। क्या आपने ये सब अनुभव किया, जब उनसे बात की?
आदमी डाकू क्यों बनता था? दरअसल, वो एक ऐसे तबके से ताल्लुक रखता था, जिसको प्रताड़ित किया गया है। इसलिए उसको लोगों से मदद मिलती थी। गांव के लोगों से भी मदद मिलती थी। डाकू के पास कोई बैंक तो होता नहीं तो वो धन गरीबों में बांट देता था। उस समय तो आदमी सिर्फ अपमान का बदला लेने के लिए कई बार डाकू बन जाता था। आज भी हमारे यहां नक्सल की समस्या है। उस समय डाकू थानों को लूटकर हथियार जमा कर लेते थे। हालांकि किसी प्रकार की हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता है। जेपी आंदोलन का तो मकसद ही यही था कि हिंसा से सदैव दूर रहना है। उस समय राजमाता सिंधिया जी तो साफ़ कहती थीं कि इनका महिमामंडन नहीं होना चाहिए। वो डाकुओं के समर्पण के बिल्कुल खिलाफ थीं।
आपने जीवन के 50 साल मीडिया को दिए हैं। क्या कुछ ऐसे लोग याद आते हैं, जिनका व्यक्तित्व अद्वितीय था! जिनकी लेखन क्षमता मन को मोहने वाली थी?
मैंने तो इन 50 सालों में हिंदी और अंग्रेजी के जितने भी बड़े नाम हैं, सबके साथ काम किया है। जिस छत के नीचे उन्होंने काम किया, उसी छत के नीचे मैंने भी काम किया है। कुछ नाम मैं लेना चाहूंगा और जिनमें पहले हैं राजेंद्र माथुर जी, उनके साथ मैं काफी जुड़ा रहा और मेरे भावनात्मक संबंध भी उनके साथ थे। उनकी ईमानदारी, बेबाक बोलना, उनकी लेखन क्षमता आज भी याद आती है। दूसरे हैं प्रभाष जोशी जी, उनके साथ वर्षों काम करने का मौका मिला और शानदार अनुभव रहे। इसके अलावा वेद प्रताप वैदिक जी, उनके साथ भी बड़े अच्छे संबंध रहे और आज भी हैं।
ऐसे बहुत नाम हैं लेकिन ये तीन का नाम मैं प्रमुखता से लेना चाहूंगा। आज हिंदी मीडिया के जितने भी बड़े संपादक हैं, उन्होंने मेरे साथ कभी न कभी काम किया है और सब अच्छे हैं, जवान हैं और अच्छा काम कर रहे हैं। कई बड़े संपादक ‘नई दुनिया‘ से निकले हैं और उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वो एक लोकतांत्रिक अखबार है। उस समय में इस अखबार का एमपी ही नहीं, बल्कि पूरे देश में बड़ा नाम था लेकिन आज वो चीज बची नहीं है। आज के समय में अगर आप मुझसे पूछेंगे कि हिंदी का कौन सा अखबार आप पढ़ना चाहेंगे तो मुझे आधा घंटा सोचना पड़ेगा कि मैं आपके सवाल का क्या जवाब दूं? जब मैं ‘दैनिक भास्कर‘ में था तो दबाव हमारे ऊपर भी आता थे, लेकिन हम उसे झेलते थे। उस समय हमारे मालिकों का हमें पूरा समर्थन होता था। आज के समय में जिस तरह एक विचारधारा का प्रभाव मीडिया पर आ गया है, उस दौर में मालिकों के लिए भी बड़ा मुश्किल हो गया है।