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श्रद्धांजलि: आचार्य विद्यासागर जी महाराज…. धर्म से आंतरिक मुठभेड़

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कनक तिवारी 

शीर्ष जैन गुरु आचार्य विद्यासागर जी महाराज से मुझे उनके दर्शन हेतु आने का सन्देश मिला। कुछ अरसा पहले मैंने उनके दर्शन तथा सत्संग का लाभ उठाया। लगभग नब्बे मिनट तक उनके प्रवचन की आत्मा जैसे अन्तर में पैठती रही। धर्म मेरी जिज्ञासा का विषय तो रहा है लेकिन समझ या ज्ञान का नहीं। लगा जैसे एक कुंजी मिली है जो तर्कों की जड़ता के ताले को खोल रही है। जो महसूस हुआ, वही इस टिप्पणी में समाहित है। 

सदियों की यात्रा करने के बाद संसार के सबसे महान वैचारिक मुल्क भारत में तत्कालीन प्रचलित और बहुमत के पंथ-वैदिक धर्म-की कई मान्यताओं से नैतिक दृष्टि से असंतुष्ट होकर समानांतर बौद्धिक श्रृंखलाएं अपने आप उपजीं। आमफहम भाषा में इन्हें बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसी संज्ञाओं से संबोधित किया गया। जैन धर्म का अपना अनोखा इतिहास है। उसकी तात्विक गवेषणा के शोध में पड़े बिना मनुष्य की अपरिमित संभावनाओं को बूझने के उसके संदेश एक साथ इतने सरल और कठिन हैं कि नियंताओं की रचनात्मक शक्ति को देखकर अचरज होता है। जैन धर्म का एक शब्द अत्यंत दिलचस्प लगता है और वह है चौबीस तीर्थंकर। ये चौबीस तीर्थंकर जैन धर्म के विचार का गोवर्धन पर्वत कृष्ण की उंगली की तरह उठाए हुए हैं। उनकी उंगली दुख भी रही होगी क्योंकि शरीर के प्रतीक ऐसा ही हमें इंगित करते हैं। उनकी इच्छाशक्ति और सेवाभावना लेकिन एक अद्भुत मानव प्रयोजन है जो इतिहास और भूगोल के संधि बिन्दु पर एक नये तरह का फलसफा हमारी सदी के हवाले कर रहा है। चौबीस घंटों से बना हमारा समय और जीवन इन चौबीस तीर्थंकरों के हवाले है। इस तरह पूरे काल पर इन आत्मिक पहरेदारों का कब्जा है। जो काल पर कब्जा कर ले, वही कालजयी है। अभय, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे ढेरों नैसर्गिक गुणों का समीकरण लिखते ये चौबीस तीर्थंकर हमारे क्षण क्षण के कामों के अंकेक्षक हैं। उनकी रपट ही हमारे विश्वसनीय होने का प्रमाणपत्र है। समय बहती हुई नदी की तरह है। वह ठहरा हुआ नहीं है। समय के हर घंटे पर काबिज ये कालप्रहरी भी ठहरे हुए महापुरुष नहीं हैं। वे बहती हुई इंसानी अभिव्यक्तियां हैं। भूगोल और इतिहास दोनों के आयामों में महापुरुष वही है जो प्रसरणशील अभिव्यक्ति हो। वह हर पीढ़ी के लिए सूर्य, चन्द्रमा और अन्य नक्षत्रों की तरह पहली बार और नये तौर पर उपलब्ध है। पीढि़यों से चंद्रमा बच्चों का मामा बनता चला आया है। उसकी गोद में बैठी कोई बुढि़या बच्चों को कहानी सुना रही है। पीढि़यों से प्रभु ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीर जैसे युग प्रवर्तक हर पीढ़ी से पहली बार मिलते हैं। यही उनका यश है। चौबीस तीर्थंकरों में किसी को भी चुनकर चौबीस घंटों से बने दिन, फिर तीस दिन से बने माह और बारह माह से बने वर्ष और फिर उससे बनती शताब्दियों के पैमाने के जरिये इतिहास की उम्र नापी जा सकती है। वही इतिहास जो भूगोल में भी पसरा होता है। जैन धर्म ने हिन्दू धर्म के पुरोहितवाद के पिछले दो हजार वर्षों से ज्यादा इतिहास को सामाजिक धरातल पर बचाकर रखा है। हालांकि प्रभु ऋषभ देव का उल्लेख ऋग्वेद में भी होना बताया जाता है। 

जैन मतावलंबियों के एक बड़े वर्ग ने सामाजिक शक्ति के रूप में उभरकर भारत के कुलीन समाज की आधारशिला भी रखी है। अपरिगृह और उदारता के बरक्स ऐसे वर्ग का पूंजी की शक्ति में विश्वास भी इतिहास ही की कथा है। कुछ अपवादों को छोड़कर जैन धर्म की उपस्थिति व्यापक भारतीय समाज को सभ्यता के जिन मानदंडों से संपृक्त करने की रही है, वह भी भारत के इतिहास का एक उज्जवल लक्षण है। भारत के हर प्रदेश, विशेषकर पर्वत श्रृंखलाओं में, एकांतिक निष्ठा के प्रतीक जिनालय हैं जो साधना का अप्रतिम उदाहरण हैं। इन मंदिरों में जाने पर एक गहरी दार्शनिक अनुभूति होती है क्योंकि इनके चेहरों पर आत्मविश्वास, अभय, शांति और वैराग्य का अद्भुत अक्स झिलमिलाता रहता है। इनकी मूर्तियां पत्थर मिट्टी या धातुओं की बनी कलाकृतियां भर नहीं हैं, यद्यपि कलाकार की सर्जक दृष्टि अपने आप में एक कालजयी शक्ति होती है। मनुष्य मन के विश्वविद्यालय के कुलपति की तरह ये धर्मगुरु उनकी उंगली पकड़कर इतिहास को चलने की प्रेरणा देते हैं। ये जितने जितने पुराने और बुजुर्ग होते जायेंगे, नूतन बने रहने की दुविधा के कारण ये उतने उतने विश्वसनीय बनते जायेंगे। 

चौबीस तीर्थंकरों ने तो असंख्य अनुयायी रचे हैं जिन्होंने प्रकारांतर से भूगोल और इतिहास को रचा है। उनके अनुयायी होने का अर्थ है उनके रास्ते पर चलकर वही करने की कोशिश की जाए जो उन्होंने किया है। सत्ता, शक्ति, सम्पत्ति, श्रेष्ठता, जातीयता, अभिजात्य आदि दुर्गुणों को उनके दंभ से यदि अलग कर दिया जाये तो सच्चे इन्सानी धर्म का उदय होता है। भविष्य तो सदैव एक मिथक होता है जो अनिश्चित होता है। इसलिए उसके प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करना चाहिए। अतीत भी एक मिथक हो जाता है यदि उसे वैज्ञानिक गवेषणा के साथ नहीं देखा जाए। कुछ लोगों को तो अतीत में चमत्कार ही चमत्कार दिखाई देता है। असल समय होता है वर्तमान जिसकी कडि़यल छाती में ही महत्वाकांक्षाएं और सेवा भावना होती है। मैं उन अवधारणाओं से खुद को सींच रहा हूं जिन्होंने मुझ जैसे सौ करोड़ से अधिक व्यक्तियों को भारत में अपने होने का अर्थ बूझने के लिए धर्म के इतिहास का यह क्षण आचार्य श्री के चरणों में मुझे मिला था। 

नहीं मालूम था ‘हरिभूमि‘ के मेरे नियमित कॉलम ‘जिरहनामा‘ के एक अकल्पनीय पाठक का मेरे जीवन पर प्रभाव पड़ने वाला है। मेरे छात्र रहे छुईखदान के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर जैन ने फोन किया। डांेगरगढ़ में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज प्रवास पर हैं। मुझे याद किया है। आमंत्रण सुखद आष्चर्य का कारण था। कुछ बरस पहले दुर्ग में मेरे घर के सामने मैदान में उनका कुछ दिनों तक प्रवचन होता रहा। दिगंबर साधु समाज के षीर्ष आचार्य के संभाषण को मैं साधारण श्रोता बना सुनता रहा। वर्षों पहले इंदौर में उनके सत्संग समारोह में संक्षिप्त उद्बोधन का अवसर भाई ललित जैन की वजह से मिला था। यह स्नेह सना आदेष साधारण उथल पुथल पैदा कर गया। लिहाजा मैं और भिलाई के साहित्यकार अषोक सिंघई सपत्नीक सुधीर जैन की अगुवाई में डोंगरगढ़ पहंुचे।

सुना था आचार्य श्री के दस मिनट भी आगंतुक के लिए पुरस्कार होते हैं। चाहे मंत्री हों, न्यायाधीष हों या धनपति। उनकी आंखों की चमक मेरी आत्मा की परतों को बींधती चली जा रही थी। डेढ़ घंटे से अधिक वार्तालाप जारी रहा। समझ नहीं आ रहा था देष के मौजूदा बुनियादी प्रष्नों पर मेरी दृष्टि को बार बार नैतिक समर्थन मिल जाने का बोध क्यों हो रहा है। उनके विनम्र लहजे सवाल का जवाब भी मांगते थे। वैचारिक धरातल पर मजबूर होता रहा। सर्वस्वीकृत मानवीय मूल्य ऊर्जा की तरह भाषा की अभिव्यक्ति में किस तरह ढाले जाएं। धर्म, समाज, नैतिकता, भारतीय लोकतंत्रीय तथा सियासी जीवन, भविष्य की संकुलताएं, आत्मा का साहस, अपरिग्रह और स्थितप्रज्ञता की बानगियां छोटे छोटे किस्से, कहानियों, मुहावरों, प्रतीकों और लोकोक्तियों में भी गढ़कर तर्कों की बानगी में तैर रहे थे। उस उपस्थिति में चिंताएं, तनाव, किंकर्तव्यविमूढ़ता, घबराहट, हीनता और भय को अनुपस्थित रहने का आदेष मिला होगा। उसके बाद भी मैं बार बार उनकी आज्ञा के अनुसार उनसे प्रेरित अनुष्ठानों में जाता रहा। 

आत्मिक केन्द्र जिनालय केवल आत्मगर्व का परचम नहीं हैं। सदियों बाद जो कष्ट आ सकेगा उससे निपटने की एक अचूक ताकत उनमें है। समकालीन वक्त सहभागी और साक्षी है। यह अनुभूति मन में भुरभुरी भर देती है। अनुयायी होने का अर्थ है उस रास्ते पर चलकर वही करने की कोशिश की जाए जो उन्होंने किया है। सत्ता, शक्ति, सम्पत्ति, श्रेष्ठता, जातीयता, अभिजात्य आदि दुर्गुणों को दंभ से अलग कर दिया जाये तो सच्चे इन्सानी धर्म का उदय होता है। भविष्य तो सदैव मृगतृष्णा या मिथक होता है। वह अनिश्चित होता है। उसके प्रति शुभकामनाएं व्यक्त की जाती हैं। अतीत भी मिथक हो जाता है। यदि उसे वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं देखा जाए। कुछ लोगों को अतीत में चमत्कार ही चमत्कार दिखता है। असल होता है वर्तमान का कर्म। उसकी कडि़यल छाती में महत्वाकांक्षाएं और सेवा भावना होती है। मैं उन अवधारणाओं से खुद को सींच रहा हूं। उन्होंने मुझ जैसे करोड़ों भारतीयों को अपने होने का अर्थ बूझने के लिए धर्म की समझ दी है। यह क्षण आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में मुझे मिला।

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