डॉ. विकास मानव
जीबी रोड, दिल्ली. इस रेड लाइट क्षेत्र में मै अपने मित्र के साथ खड़ा वहां हो रहे मोल भाव को देख रहा था।
मानव जिस्म की बोली लगाई जा रही थी और बोली के बाद कोई बहकते, कोई लड़खड़ाते तो कोई सधे हुए कदमों के साथ अंधेरे की ओर खुलने वाले दरवाजों में लुप्त हो रहा था।
दरवाजों पर पंक्तिबद्ध खड़ी औरतें हमें इशारा कर रही थी और मैं असमंजस में था कि किसके पास जाऊं और किसके पास न जाऊं।
मेरे मित्र मेरी ओर देख रहे थे और मैं रात के अंधेरे में बल्बों की रोशनी में सजने वाली इस देह की मंडी को।
सहसा अपनी अंगुलियों पर किसी बच्चे का स्पर्श पाकर मैं चौंका। कोई 6-7 साल की बच्ची थी। ‘‘अंकल-अंकल! मेरी दीदी है ना! वो आपको बुला रही है।’’ लड़की ने बड़ी ही मासूमियत से कहा।
‘‘कहां है आपकी दीदी?’’ मैंने आश्चर्य से उसको देखते हुए पूछा।
‘‘वो वहां… अंदर… थोड़ा-सा भीतर रहती है’’ बच्ची ने बताया।
‘‘लेकिन बेटा वो मुझे क्यों बुला रही है?’’
‘’अंकल, वो आपको जानती हैं. वो बहुत अच्छी हैं! मुझे पैसे भी देती है। इसलिए।’’ लड़की भोलेपन से कह गई।
लड़की अपनी बहन के लिए ग्राहक ढ़ूढ़ने आई है? सोचते ही शरीर में सिर से पांव तक सिरहन दौड़ गई। हे भगवान इस अबोध को अभी ज्ञान हो आया है? मैं सोचने लगा।
‘‘चलो न अंकल, चलो ना प्लीज। फिर मुझे खाना भी खाना है, चलो ना प्लीज।’’ कहकर वह मेरा हाथ खींचने लगी।
मै अपने साथी मित्र की ओर देखा तो वो बोला, ‘’तुम जा आओ यार, हम यहीं इंतजार करते हैं।’’
‘‘नई जगह है यार, मैं अकेला नहीं जाउंगा।’’ मैंने कहा तो मेरे साथ चलकर मुझे वहाँ तक छोड़ने के लिए मित्र तैयार हो गया.
हम जब चलने लगे तो बच्ची का चेहरा खिल गया। कूदती, फुदकती गिलहरी-सी वो कई गलियों से होते हुए मुझे एक घर के आगे ले गई और एक परिचित सी दस्तक देकर मेरी ओर देखकर हंसने लगी।
पीले व काले दांतों में फंसे कुछ गुटखे के अंश साफ दिख रहे थे। तभी दरवाजा खुला और एक अधेड़-सा आदमी बाहर निकला।
अंदर 10-12 कमरे थे पर सारे ही बाहर से बंद थे। साफ था कि इस समय वहाँ कोई और नहीं है। मेरा साथी बाहर उस व्यक्ति के पास बैठ गया.
लड़की मुझे और भीतर एक कमरे की ओर दीदी! दीदी! चिल्लाती हुई ले बढ़ी। भीतर से भी एक जनानी आवाजआई- “हां भीतर ले आ।”
मैं कमरे में दाखिल हुआ तो एक 28-30 वर्षीय औरत की ओर इशारा करती हुई वह लड़की बोली, ‘‘ये है मेरी दीदी।’’
मुझे वहीं छोड़कर बच्ची बाहर चली गई। मैं उसे बाहर जाता देखता रहा। तभी वह औरत बोली “बैठिए।”
मैंने उसकी ओर देखा तो वह मुस्कराती हुई बैड पर बैठने का ईशारा कर रही थी। मैं बैठ गया।
‘‘पानी लेंगे आप?’’ औरत ने पूछा।
‘‘जी नहीं शुक्रिया।’’ प्यास लगी होने के बावजूद भी मैं मना कर गया।
‘‘ठीक है फिर पहले पैसे दीजिए।’’ मुस्कुराहट गंभीरता में बदल गई थी।
‘‘कितने?’’ मैंने पर्स निकालते हुए कहा।
‘‘500 मेरे और 100 बाहर बैठे दरबान के।’’
मैंने 600 रुपए निकालकर उसकी और बढ़ा दिए। उसने लिए और एक पोस्टर के सामने खड़ी होकर माथे से लगा लिए।
‘‘ये गुड़िया आपकी छोटी बहन है?’’ मैंने पूछा !
‘‘क्यों?’’ वो चाहिए? उसने बिल्कुल ऐसा दर्शाया जैसे उसे ऐसे सवाल की मुझसे उम्मीद नहीं थी।
‘‘देखो! मैं उस इरादे से यहां नहीं आया हूं बल्कि कुछ बताने आया हूं। ” मैंने थोड़ा सा हकलाते हुए कहा।
‘‘तो फिर किस इरादे से आये हो?’’ उसकी आंखों की चमक और बढ़ गई।
’’आप ये धंधा छोड़ दो और शादी कर लो!’’ मैं एक ही सांस में कह गया।
‘‘शादी, किससे? हमारी हर रोज कितनी ही शादियां होती हैं साहब! किसी से घंटे के लिए तो किसी से रात के लिए। हमें क्या जरूरत है शादी की?”
“आप बात नहीं करना चाहती हो?”
“आप टाईम खोटी ना करो। काम निपटाओ और जाओ। मेरा बोहनी का टाईम है।’’ पता नहीं कितने भाव इन वाक्यों के दौरान उसके चेहरे पर आए और गए।
“कितना समय दोगी?”
“जितना चल सकते हो. पांच, सात या दस मिनट और कितना!”
“दो घंटे चलूं तो.”
“देखो यार, प्लीज टाइम खोता नहीं करो. पेंट उतारो और…!”
“सच बोल रहा हूँ. एक घंटे तो दे दोगी ना?”
“रोबोट हो? फिर बकवास.. ओके दो घंटे करो, देखूँ तो सही किस ग्रह के प्राणी हो!” कहकर वो अपनी नाईटी उतार दी. पैंटी उतारने लगी तो, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया.
‘‘नहीं बहन! आप घंटे के पैसे ले लो लेकिन मेरी बात तो सुन लो।’’ मैंने जेब से पर्स निकलते हुए कहा और 200 का नोट उसकी ओर बढ़ा दिए।
वह थोड़ी देर नोट को देखती रही। शायद सोच रही थी कि रखे या ना रखे, पर फिर उसने रख लिए।
‘‘हां! सुनाओ, क्या सुनाना है।’’ मेरे पास बैठते हुए वह बोली।
‘‘तुम शादी करवा लो ना?’’ मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।
“किससे? कौन करेगा मुझ बेस्या से शादी?”
” मैं!”
“भगवान हो? इस समाज के नहीं हो? यहां सैकड़ों हैं मेरे जैसी, सब से करोगे? कृष्ण भगवान तो हो नहीं. “
“अपनी बात करो ना आप!”
‘‘मेरे घर वाले मेरी शादी कर दिये हैं। जिसने मेन दरवाजा खोला था, वो पति है मेरा।’’ उसने बताया तो मेरे पांव के नीचे की जमीन खिसक गई।
‘‘और ये बच्ची?’’ मैंने फटी आंखों से पूछा।
‘‘ये…….ये मेरी बेटी है।’’उसने आत्म विश्वास के साथ कहा।
‘‘बेटी? तो आपको दीदी क्यों कहती है?’’ मैंने फिर आश्चर्य भरे लहजे में पूछा?
‘‘मैने ही सिखाया है! मैंने मां शब्द इसको कभी रटाया ही नहीं। शुरू से ही दीदी कहलाया है इससे।’’ औरत ने बताया।
“क्यों ?” मैंने एकदम पूछा।
‘‘क्योंकि ये लोगों को जाकर कहेगी कि मेरी मां बुला रही है तो कौन आएगा यहां?’’ सवाल का जवाब सवाल में ही दे गई वह औरत और मेरा दिमाग लगभग सुन्न-सा हो गया।
‘‘प……पानी मिलेगा थोड़ा।’’ मैने कहा तो वह औरत बाहर चली गई।मैं सोच रहा था कि कैसी विडम्बना है ये ?कैसा संसार है जहाँ एक बच्ची से उसकी माँ ने माँ कहने का हक़ भी छीन लिया। थोड़ी देर बाद पानी का गिलास लेकर वापिस आई और मुझे पानी थमा दिया।
‘‘इस बाजार का यही उसूल है साहब! हमारी लड़कियां सिर्फ हमारी होती हैं। उनके बाप का हमें भी पता नहीं होता। वेश्या की लड़कियां वेश्या ही बनती हैं और वेश्या के लड़के दलाल बन जाते हैं।
फिर किसी दलाल से शादी कर उसे अलग कर दिया जाता है और वो उसके यहां धंधे पर लग जाती है। यही तो उसूल है इस ज़िस्म के बाजार का।’’ औरत ने संक्षेप में इस बाजार का इतिहास वर्तमान और भविष्य एक साथ दिखा दिया।
‘‘तुुम लोग छोड़ क्यों नहीं देते ये धंधा?’’ मैंने पूछा।
‘‘अच्छा, तो क्या करूंगी? नौकरी! कितनी सारी हाई एजुकेटेड गर्ल्स बिना कोठे बसाए ज़िस्म का धंधा कर रही हैं. कितनों को बचाये हो आप? हमारे यहां एक पीचडी होल्डर बंदा नौकर है. क्यों नहीं मिली आपकी व्यवस्था में उसे नौकरी? आप कहते हो ‘तुम लोग..’ तो सबको दोगे नौकरी आप? हमें तो इसके सिवा कुछ और आता भी नहीं।’’ औरत बोली.
वह फिर बोली :
‘‘और हां साहब! यहां इस बात का जिक्र किसी दलाल के सामने या कहीं और मत करना। आपके लिए खतरनाक हो सकता है।’’ औरत ने मुझे हमदर्दी दिखाते हुए नई सीख दी।
तभी बाहर दस्तक हुई।
बच्ची चिल्लाई ‘‘दीदी टाइम हो गया है।’’ मैं फिर हिल गया उस मासूम की आवाज सुनकर।
‘‘सुनो इस बच्ची का नाम क्या है!’’ मैंने पूछा।
‘‘पूजा।’’
‘‘इसके बारे में सोचा है कुछ?’’ मैंने पूछा।
‘‘इसका क्या सोचना? मेरी बेटी मेरा ही धंधा करेगी और मेरा सहारा बनेगी। आप फालतू में अपना टाइम बर्बाद कर रहे हो साहब!’’ औरत ने कहा तो मैं खड़ा हो गया और बाहर निकल आया।
बाहर बच्ची हसरत भरी निगाहों से मुझे देख रही थी।
‘‘मेरी बख्शिश?’’ बच्ची ने हाथ फैलाकर चहकते हुए कहा तो मेरा गला रूंध गया।
‘‘क……क्या चाहिए?’’ खुद पे काबू करते हुए मैंने कहा।
‘‘50 रुपए।’’ उसने मुस्कुराकर कहा।
‘‘आह!’’ लंबी सांस खींचते हुए मैंने 50 रुपए उसकी हथेली पर रख दिए।
‘‘चलो अब आपको छोड़कर आती हूं……’’! कहकर वह फुदकती हुई हमारे आगे-आगे हो ली। मित्र वहाँ से चला गया था.
चार गलियां बदलने के बाद वह बोली, ‘‘अंकल अब आप सीधे चले जाना, वो सामने बड़े खंभे के पास से ही मैं आपको लेकर गई थी। ठीक है?’’ अपनी छोटी सी हथेली आगे करके उसने तसल्ली के लहजे से कहा ।
‘‘हां ठीक है बेटा!’’ मैंने भी उसे देखकर कहा।
‘‘ओके बाए।’’ कहकर वह चिड़िया-सी फुदकती हुई फिर वापिस हो ली।
मैं उस चौराहे पर खड़ा-खड़ा इस भविष्य की वेश्या को तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हुई।