यूक्रेन में पिछले चार दिनों से रूस के लड़ाकू विमान बम बरसा रहे हैं। आर्थिक रूप से भारत पर इसका असर पड़ना शुरू भी हो चुका है। क्रूड हो या कुकिंग ऑयल भारत पर इसका असर होगा। इन सबके बीच दुनिया दो ध्रुवों में बंटी दिख रही है। एक तरफ यूक्रेन के साथ अमेरिका और उसके सहयोगी देश खड़े हैं तो दूसरी तरफ रूस के समर्थन कई देश आ गए हैं। भारत के लिए भी ऐसा वक्त आया जब उसमें किसी एक खेमे को चुनना था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC Vote on Ukraine) में रूस के खिलाफ प्रस्ताव आया तो भारत ने रूस के हमले की निंदा तो की लेकिन वोटिंग से परहेज किया और वह अनुपस्थित रहा। अब पश्चिमी प्रॉपगैंडा फैलाने वाले लोग नरेंद्र मोदी सरकार के इस फैसले को अपनी जिम्मेदारी या प्रतिबद्धता से भागना करार दे रहे हैं।
ईस्ट या वेस्ट में चुनने की कोई वजह नहीं
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे और विदेश मामलों पर पैनी नजर रखने वाले संजय बारू ने टाइम्स ऑफ इंडिया में अपने लेख में इस पर अपना दृष्टिकोण सामने रखा है। उन्होंने लिखा है कि ऐसी कोई वजह नहीं है कि यूरोप में पूर्व और पश्चिम के बीच बने इस विवाद में भारत किसी का पक्ष ले, जो कोल्ड वॉर की शुरुआत मानी जा रही है। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसी रास्ते पर चले हैं जिसे मूल रूप से पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने चुना था और बाद की सरकारें बदलते वैश्विक परिदृश्य में उसका अनुसरण करती रहीं।
बर्लिन संकट याद है!
1961 में बर्लिन संकट के दौरान भी नेहरू ने फैसला किया था कि भारत किसी एक तरफ खड़ा नहीं होगा बल्कि तटस्थ बना रहेगा। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के सलाहकार रहे हेनरी किसिंजर ने तब एक भारतीय पत्रकार से स्वीकार किया था, ‘मुझे छोड़कर केनेडी प्रशासन को काफी निराशा हुई थी। मुझे पता था कि अगर नेहरू बर्लिन पर अपनी पोजीशन लेते तो सोवियत के लिए महत्वपूर्ण इस मामले के चलते भारतीय हितों को काफी नुकसान हो सकता था। बर्लिन पर भारत ने रुख स्पष्ट नहीं किया क्योंकि इसके लिए उसे बड़ी डील को खतरे में डालना पड़ता।’ अगस्त 1961 में बर्लिन शहर पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में बांट दिया गया। इस फैसले के पीछे रूस खड़ा था और दूसरी तरफ अमेरिका।
फिर वक्त आया सोवियत के विघटन का
बारू लिखते हैं कि सोवियत संघ (USSR) के पतन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao) ने भारत के रास्ते को मध्यमार्ग बताया था। अप्रैल 1992 में AICC को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘कुछ लोगों को लगता है कि कम्युनिस्ट सिस्टम के पतन के साथ दुनिया अब एकध्रुवीय हो जाएगी, कोई भी मध्य मार्ग नहीं हो सकता… यह समझना कि नेहरू का मध्य मार्ग केवल दोध्रुवीय स्थिति में ही मान्य है, इसका मतलब हमने अपने प्राचीन दर्शन को नहीं समझा…. बीच का रास्ता लगातार यह याद दिलाता है कि कोई भी दावा या राय या उसका उलटा पूर्ण और पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो सकता।’
यूक्रेन संकट और भारत
वास्तव में, यूक्रेन पर UNSC में वोटिंग को लेकर भारत सरकार का रुख और बयान इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हैं कि कोई भी रुख या दावा या फिर उसका उलटा पूर्ण और पूर्ण रूप से सत्य नहीं हो सकता है। इस तरह से, भारत ने रूस की आक्रामक कार्रवाई का न तो समर्थन किया और न ही पश्चिमी देशों की उकसाने वाले रुख और प्रतिक्रियाओं का।
दो बहुत ही अलग-अलग विचारों ने भारत की विदेश और सामरिक नीति को आकार दिया है। पहला भूगोल और दूसरा दुनिया में स्वतंत्र भारत के विचार की जगह। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राजनीति से यूं ही छुटकारा नहीं पाया जा सकता। देशों और राज्यों को अपने राष्ट्रीय हितों को समझना होता है और उसकी सर्वप्रथम रक्षा करनी होती है। अपनी भौगोलिक परिस्थिति और प्रभाव को भी देखना होता है। हिंद महासागर के उत्तर में एशिया में स्थित भारत की लोकेशन, यूरोपीय देशों के साथ उसके संबंध और सुरक्षा समीकरणों और हिंद-प्रशांत क्षेत्र को देखते हुए उसे यूरोपीय सुरक्षा पर अपना रुख तय करने की जरूरत नहीं है।
वास्तव में, यह जर्मनी, फ्रांस और यूरोपीय संघ को करना है और अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करनी है। जितनी जल्दी यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेंगे, दुनिया के लिए उतना ही बेहतर होगा। जैसे चीन ने जापान को इस स्थिति में लाने के लिए मजबूर किया, अब उसी तरह से रूस ने जर्मनी और फ्रांस को अलर्ट कर दिया है।
चीन और भारत
लोगों में एक विचार यह बन रहा है कि चीन से मिल रही चुनौतियों को देखते हुए भारत को नाटो गठबंधन के साथ खड़ा होना चाहिए लेकिन रूस के साथ संबंधों को बिगाड़ने की भारत को कीमत चुकानी होगी। चीन की चुनौती से भारत को खुद निपटना होगा। सीमा विवाद पर दोनों पक्षों की बैठक के साथ-साथ बीजिंग और नई दिल्ली दोनों राजधानियों को राजनीतिक दूरदर्शिता और साहस दिखाना होगा तभी मतभेद दूर किए जा सकते हैं।
उधर, यह अमेरिका और यूरोपीय संघ के हित में होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत हो और दुनिया में ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो। सशक्त भारत ही आक्रामक चीन पर अंकुश लगा सकता है। ऐसे में भारत को पश्चिमी देशों का समर्थन मिलना कोई उदारता नहीं है। यह एक रणनीतिक विकल्प है जो दोनों पश्चिम और भारत के हित में है। रूस-भारत संबंध की तरह अमेरिका और भारत के संबंध पारस्परिक लाभ और राष्ट्रीय हित पर आधारित है। यह एकतरफा संबध नहीं हो सकते।
भारतीय ही करेंगे भारत की सुरक्षा
ऐसा भी कहा जा रहा है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण पर जैसा भारत ने रुख दिखाया है, अगर उसे भी इसी तरह से बाहरी आक्रमण का सामना करना पड़ा तो टेंशन पैदा हो जाएगी। यह एक अनाड़ी और कानूनी दृष्टिकोण जैसा लगता है। भारत की राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता की रक्षा केवल भारतीयों द्वारा ही की जा सकती है। ऐसे ही समय में आत्मनिर्भरता की अवधारणा सामने आती है।
ये सब भारत को चाहिए
भारत को स्वदेशी वैज्ञानिक, तकनीकी, साइबर, स्पेस और डिफेंस उत्पादन क्षमता और सामर्थ्य की जरूरत है। यह हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकता है। कोई भी बड़ा देश दूसरों पर निर्भर रहकर अपनी संप्रभुता की रक्षा नहीं कर सकता है। यह 21वीं सदी की चुनौतियां है जिसका सामना भारत कर रहा है।
दुनिया के मामलों में न्यूट्रैलिटी (तटस्थता) काफी सोच-विचार कर उठाया गया कदम है। राजनीतिक, प्रशासनिक, बिजनस और प्रबुद्ध लीडरशिप को यह समझना होगा कि वाह्य सुरक्षा और आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को बड़ी ताकत के रूप में खुद को स्थापित करना होगा।
मनमोहन के पूर्व सलाहकार कहते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन संकट एक तरह की खतरे की घंटी है। आर्थिक और विदेश नीति के लिहाज से 1991 में उठाए गए कदमों से भारत आगे ही बढ़ा। विदेशी दबाव में फंसने या पूरब-पश्चिम के विवाद में एक तरफ उलझने की बजाय हमें अपनी क्षमताओं और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए जिससे हम अपनी घरेलू क्षमता को मजबूती दे सकें।
1991 में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने अवसर का लाभ उठाया था। ऐसे में देखना यह होगा कि क्या आर्थिक विकास और आधुनिकीकरण पर फोकस कर पीएम मोदी आज वैसा ही कर पाएंगे?