विनय रेबोर्न
आरएसएस और भाजपा का एक धड़ा शुरू से समान नागरिक संहिता की वकालत करता रहा है। यह मुद्दा भाजपा के एजेंडे में शामिल है।प्रथम दृष्टया यह कानून बड़ा लुभावना भी लगता है। इसके पीछे का तर्क यह है कि देश के सभी नागरिकों पर सामान कानून लागू होनी चाहिए, जो सतही तौर पर उचित भी लगती है लेकिन इस बात का विरोध क्यों किया जा रहा है ? आपका सिंपल जवाब होगा कि इससे चूंकि अल्पसंख्यक वर्ग प्रभावित होगा इसलिए। लेकिन इस कानून से सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि एक बड़ा समुदाय भी प्रभावित होने वाला है, समान नागरिक संहिता की बात करने वालों की नजर सिर्फ अल्पसंख्यकों के अधिकारों को हड़पने भर का नहीं बल्कि संसाधनों से भरी जमीन पर भी अपना अधिकार हासिल करना है।
हमारा संविधान लोगों को अपनी धारणा, आस्था और परंपरा के साथ रहने और जीने की आजादी देता है। यदि आप किसी धर्म को मानते हैं तो आप उसके अनुसार आचरण करें, उसकी परंपराओं का निर्वहन करें। लेकिन जब भी समान नागरिक संहिता की बात होती है तो कहा जाता है कि इससे सिर्फ मुसलमान प्रभावित होगा। वह चार शादियां नहीं कर सकता, वह आसानी से तलाक नहीं ले सकता वगैरह। कुल मिलाकर यह कानून सिर्फ मुसलमानों के लिए ही मुसीबत साबित होगा लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। समान नागरिक संहिता जब लागू होगी तो देश का मूल निवासी यानी आदिवासी भी इसके जद में आएगा। क्या आपको पता है कि देश के कई जन जातीय समुदायों में भी अलग -अलग परंपराएं और मान्यताएं हैं, उन्हें भी इस संविधान के तहत उनकी मान्यताओं के अनुरूप रहने, व्यवहार करने, विवाह करने की स्वतंत्रता है ? उनके लिए भी उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने अलग से कानून हैं ? इसमें सबसे महत्वपूर्ण है धारा 170 ख, जिसके तहत आदिवासी विकास खंडों में उनकी जमीन कोई गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता, सामान्य विकास खंडों में उनकी जमीन सामान्य आदमी बिना कलेक्टर के परमिशन के नहीं खरीद सकता। इस नियम पर कई बार उद्योगपतियों ने उंगली उठाई है क्योंकि इसके कारण आदिवासी इलाकों में संसाधनों का दोहन या उद्योगों की स्थापना में कई रोड़े आते हैं। आपको ओडिशा का नियमगिरि याद होगा। वहां वेदांता कंपनी का आयरन ओर माइंस इसी कारण रद्द कर दिया गया था। जब यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होगा तब 170 ख जैसे नियमों को हटाया जा सकेगा और उद्योगपतियों को मुक्त हस्त से आदिवासियों और उनके क्षेत्र के संसाधनों को लूटने का अवसर मिलेगा।
जब सबके लिए एक कानून होगा तब आरक्षण की व्यवस्था भी बेमानी हो जायेगी क्योंकि सबके लिए एक कानून में यह व्यवस्था भी फिट नहीं बैठती। इस तरह की मांग बीजेपी के अंदरखाने से उठने लगी है उनके आईटी सेल ने यह सब सोशल मीडिया में लिखना शुरू भी कर दिया है। इसके अलावा यदि सबके लिए एक कानून होगा तो अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम, जिससे इस तबके की सुरक्षा का बड़ा बेहतर कानून माना जाता है उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता क्या होगी, सोचिए। संभवतः तुरंत इन सभी कानूनों पर कोई निर्णय न हो पाए लेकिन कालांतर में ये सभी कानून असंवैधानिक हो जायेगी और कोर्ट के जरिए या अमेंडमेंट के जरिए ही इन्हें खत्म किया जाता रहेगा। क्याइस कानून के पास होने के बाद सिक्ख कृपाण लेकर कहीं जा पाएगा ?
अलग अलग धर्मों में अपनी अलग परंपराएं, मान्यताएं, धारणाएं हैं। मुस्लिम और ईसाई धर्म में विवाह एक समझौता है और हिंदू धर्म के लिए यह जन्म जन्मांतर का रिश्ता। इस यूनिफॉर्म सिविल कोड में विवाह को क्या माना जाएगा ? जन्म जन्मांतर का रिश्ता या एक समझौता ? और कोई यह कैसे तय करेगा कि हम अपने विवाह संस्कार को समझौता समझें या जन्म जन्मांतर का रिश्ता। यह तो हमें तय करना है। हिंदू विवाह अधिनियम में तलाक की प्रक्रिया क्लिष्ट है, मुस्लिमों में आसान, ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड इस प्रक्रिया को आसान करेगा या सरल ? कई आदिवासी समुदायों को भी एक से अधिक विवाह करने की छूट है, उनके साथ क्या सलूक किया जाएगा ? ऐसे कई ज्वलंत सवाल हैं।
अव्वल यही माना जा रहा है कि सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड ला कर आदिवासियों के हितों, उनकी परपराओं, उनकी जमीनों के अधिकार को सबसे पहले संकुचित करेगी और धीरे – धीरे उन्हें इससे वंचित होना पड़ेगा। क्योंकि मुस्लिमों की परंपराओं, ईसाइयों की आस्था से किसी को नुकसान नहीं है लेकिन आदिवासियों के अधिकारों से उद्योगपति सबसे ज्यादा परेशान हैं और उन्हीं के परंपराएं, मान्यताएं और उनके अधिकारों को कम करने या खत्म करने सरकार या यूं कहें उद्योगपतियों के पक्षकार इस कानून के साथ हैं और उससे ही उन्हें फायदा होने वाला है।