समान नागरिक संहिता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान के बाद इस मुद्दे पर फिर से बहस शुरू हो गई है. बीती 27 जून को भोपाल में भाजपा के देश भर के कार्यकर्ता जुटे थे. कार्यक्रम का नाम था ‘मेरा बूथ, सबसे मजबूत’. इसी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘समान नागरिक संहिता’ (UCC) लागू करने की वकालत करते हुए कहा था कि –
‘अगर एक घर में एक सदस्य के लिए एक कानून और दूसरे सदस्य के लिए दूसरा कानून होगा तो क्या घर चल सकता है ? देश दोहरी व्यवस्था से कैसे चलेगा ? हमें याद रखना चाहिए भारत के संविधान में भी नागरिकों के समान अधिकारों की बात कही गई है. सुप्रीम कोर्ट भी कई मौकों पर कॉमन सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) लागू करने के लिए कह चुका है.’
ये मोदी सरकार का दोगलापन हैं. मान लीजिये कांग्रेस सरकारों ने नहीं लागू किया तो अटल की सरकार क्या कर रही थी ? मोदी 9 साल से क्या नोंच रहे थे, आज जब सिर पर चुनाव आ गया है तो विवादित मुद्दे पर राजनीति करके हिंदू मुस्लिम का खेल खेल रहे हैं.
इससे पहले भी 14 जून को 22वें विधि आयोग (Law Commission) ने आम जनता और मान्यता प्राप्त धर्मिक संगठनों से UCC पर एक महीने के भीतर राय देने के लिए कहा था. अदालतें भी कई मौकों पर UCC लागू करने की सिफारिश करती रही हैं. लेकिन इस बार प्रधानमंत्री के UCC पर दिए गए बयान की टाइमिंग की वजह से इस मुद्दे पर जोरदार बहस छिड़ी है.
विपक्ष का आरोप है कि भाजपा लोकसभा चुनाव से पहले ध्रुवीकरण कर रही है. वहीं राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा ने चुनाव का एजेंडा सेट कर दिया है. कांग्रेस-बीजेपी की बाइनरी खिंची हुई है. बहस बंटी हुई है. अलग-अलग स्टेक होल्डर अपने हितों की बात कर रहे हैं. मोर्चे खुले हुए हैं. मुखामुखम का मौसम है.
नेता क्या कह रहे हैं आप देख-सुन ही रहे हैं. हम आप को बताएंगे UCC के मसले पर देश के प्रणेताओं ने क्या कहा था. क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने बयान में संविधान और सुप्रीम कोर्ट का भी हवाला दिया था, इसलिए जरूरी हो जाता है कि आपको पता हो कि भारत का संविधान UCC के विषय में क्या कहता है. संविधान सभा में इस मसले पर क्या बहस हुई थी और उसमें किसने क्या और कैसे कहा था ?
संविधान में UCC (समान नागरिक संहिता)
संविधान के भाग 4 में आर्टिकल 36 से 51 तक नीति निदेशक तत्व (Directive Principle of State Policy:DPSP) दिए गए हैं. इन्हीं नीति निदेशक तत्वों में आर्टिकल 44 यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात करता है. इसके अनुसार देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक कानून की व्यवस्था की जानी चाहिए.
यहां नीति निदेशक तत्वों के बारे में जानना जरूरी है. ये आदर्श सिद्धांत हैं. इन्हें ध्यान में रख कर सरकारों को नियम-कानून और नीतियां बनाने के निर्देश हैं. सरकार या कोई भी नागरिक इनका पालन करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, बाध्य नहीं. यही समस्या की जड़ है. मोदी सरकार प्रेरित नहीं कर रही बल्कि बाध्य कर रही है.
नीति निदेशक तत्व कोर्ट ऑफ लॉ में ‘इंर्फोर्सेबल’ नहीं हैं. यह भारतीय राज्य व्यवस्था की आदर्श स्थिति है. इसके लिए कहा गया है अगर राज्य नीति निदेशक तत्वों का पालन करता है तो लोक कल्याण और सामाजिक सद्भाव बढ़ेगा. नीति निदेशक सिद्धांतों को कोर्ट ऑफ लॉ में ‘इंर्फोर्सेबल’ बनाने के लिए इसके अनुच्छेदों पर अलग से कानून बनाने की आवश्यकता होती है. उसके पहले ये आर्टिकल सरकार और नागरिकों को सलाह मात्र माने जाते हैं. कई बार नीति निदेशक तत्व और मौलिक अधिकार आमने-सामने आ जाते हैं.
नीति निदेशक तत्व बनाम मौलिक अधिकार
यूनिफॉर्म सिविल कोड को धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों (आर्टिकल 25-28) के खिलाफ बताया जाता है. संविधान के भाग 3 में आर्टिकल 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का प्रावधान है. मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व आदर्श स्थिति में एक-दूसरे के पूरक कहे जाते हैं. लेकिन कई बार इनके बीच संघर्ष और विवाद की स्थिति बनी है.
दरअसल ये एक तराजू के दो पलड़े हैं. इनके बीच संतुलन बना कर चलना सरकारों का काम है. किसी एक पक्ष पर अधिक ध्यान देने से दूसरे पक्ष का संतुलन बिगड़ता है और मामले अदालतों तक पहुंचते रहे हैं. मूल अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक तत्वों के बीच विवाद संसदीय बहसों और न्यायिक निर्णयों के आधार पर समझे और निपटाए जाते हैं. नीति निदेशक सिद्धांत बनाम मौलिक अधिकार के लिए कुछ लैंडमार्क जजमेंट रहे हैं. मसलन –
- चंपकम दोरायराजन बनाम मद्रास राज्य (1951) के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच किसी भी संघर्ष की स्थिति में नीति निदेशक तत्वों के मुकाबले मौलिक अधिकार मान्य होगा.
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा कि निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए संसद द्वारा मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है.
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ (1967) के अपने ही फैसले को पलटते हुए घोषणा की कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह अपनी “मूल संरचना” को बदल नहीं सकती. इसी फैसले के बाद संपत्ति के अधिकार (आर्टिकल 31) को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया. 44वां संशोधन के तहत संविधान के भाग 12 में नया आर्टिकल 300A जोड़ कर संपत्ति के अधिकार का प्रावधान किया गया. संपत्ति का अधिकार अब मूल अधिकार की जगह संवैधानिक अधिकार है.
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती के फैसले को फिर से दोहराया कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान के ‘मूल ढांचे’ को नहीं बदल सकती.
इन फैसलों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि संसद नागरिकों के मौलिक अधिकार में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन ये संशोधन संविधान की मूल संरचना या बुनियादी ढांचे को प्रभावित करने वाला नहीं होना चाहिए.
संविधान सभा में UCC (समान नागरिक संहिता)
संविधान सभा में यूनिफॉर्म सिविल कोड पर जोरदार बहस हुई थी. देश उस समय बंटवारे की त्रासदी से गुजर रहा था. अविश्वास और कौमी हिंसा का माहौल था. देश में समान नागरिक संहिता लागू करना एक चुनौती थी. मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग पहले ही कहते थे कि ‘कांग्रेस के हिंदुओं की सरकार’ मुस्लमानों को इस्लाम के हिसाब से जीने नहीं देगी. उनके लिए भारत में धर्म के आधार पर भेदभाव होगा.
ऐसी स्थिति में यूनिफॉर्म सिविल कोड को नीति निदेशक सिद्धांतों में डाल दिया गया कि कभी भविष्य में उस पर कानून बना कर लागू किया जा सकेगा. उसके बाद UCC हमेशा से सियासी बहसों और चुनावी राजनीति के केंद्र में रहा है.
संविधान सभा में कब उठा मुद्दा ?
23 नवंबर, 1948 को पहली बार संविधान सभा में यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला उठा. इसे बंबई (अब मुंबई) से संविधान सभा के सदस्य कांग्रेसी मीनू मसानी ने प्रस्तावित किया. आर्टिकल 35 में UCC की बात कही गई और इस मुद्दे पर संविधान सभा में जोरदार बहस छिड़ गई. मुद्दा उठने के अगले दिन 24 नवंबर, 1948 को टाइम्स ऑफ इंडिया ने संविधान सभा की इन बहसों को ‘a series of full-blooded speeches’ (जोरदार बहसों की श्रंखला) कहकर छापा.
किसने समर्थन किया ?
यूनिफॉर्म सिविल कोड को सबसे पहले महिला सदस्यों से समर्थन मिला. संविधान सभा में 15 महिला सदस्य थी. इनमें हंसा मेहता शामिल थी. उन्होंने मौलिक आधिकार उप-समिति के सदस्य के तौर पर UCC की पैरवी की. उनके अलावा राजकुमारी अमृतकौर, डॉ. भीमराव आंबेडकर, मीनू मसानी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का मुखर समर्थन किया और इसके पक्ष में जोरदार बहस की. जवाहरलाल नेहरू समेत लगभग पूरी कांग्रेस भी UCC लागू किए जाने के समर्थन में थी, हालांकि आज कांग्रेस इसके विरोध में तर्क दे रही है.
किसने किया विरोध ?
संविधान सभा में यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध सबसे पहले मद्रास के सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने किया. वो पांच मुस्लिम सदस्यों (मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग, बी पोकर साहब, अहमद इब्राहिम) के समूह में शामिल थे, जो UCC के खिलाफ संशोधन लेकर आए थे. इसके अलावा ‘इन्किलाब जिंदाबाद’ का नारा देने वाले उर्दू शायर मौलाना हसरत मोहानी ने भी बहस में हिस्सा लिया था. उन्होंने भी UCC का विरोध किया था.
विरोध करने वाले ज्यादातर लोग ऑल इंडिया मुस्लिम लीग (AIML) के सदस्य थे. इस समूह का तर्क था कि समान नागरिक संहिता लागू करना अन्यायपूर्ण होगा. सरकार को किसी समुदाय के नागरिक कानूनों (Personal Laws) में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है. उनका कहना था कि भारत विविधताओं से भरा देश है. अंग्रेजों ने भी यहां की जनता के धार्मिक कानूनों को नहीं छुआ तो फिर आजाद भारत की सरकार ऐसा क्यों करना चाहती है.
UCC के विरोध में बहस
AIML के सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने आर्टिकल 35 में संशोधन पेश करते हुए, ये सुनिश्चित करने की मांग की –
‘यदि किसी समूह, वर्ग या समुदाय के पास उसका अपना निजी कानून है तो उसे अपने निजी कानून को छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.’
मोहम्मद इस्माइल का तर्क था –
‘समुदायों में निजी कानूनों का होना और उनका पालन करना उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का मसला है. ये उनका मौलिक अधिकार है. अगर सरकार धर्म और संस्कृति से जुड़े मसलों पर कानून बनाती है तो यह मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप के समान होगा. हम जो पंथनिरपेक्ष सरकार बनाना चाहते हैं उसे भारत के लोगों के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.’
मोहम्मद इस्माइल ने अपनी बहस में यूरोपीय देशों और उनके कानूनों के उदाहरण देते हुए कहा कि वहां भी अल्पसंख्यकों के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा के प्रावधान हैं. उनका कहना था कि उन्होंने जो संशोधन पेश किया है वह सिर्फ अल्पसंख्यकों के हितों के लिए नहीं, बल्कि बहुसंख्यकों के हितों के लिए भी है, क्योंकि संशोधन में ‘किसी समूह, वर्ग और समुदाय’ की बात कही गई है. इस संशोधन से सभी के धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों के हितों की रक्षा हो सकेगी.
दूसरा संशोधन पश्चिम बंगाल के सदस्य नज़ीरुद्दीन अहमद ने पेश किया. उनका सुझाव था कि संघ (केंद्र सरकार) को उस धार्मिक समूहों की स्वीकृति लेनी चाहिए, जिसके सामुदायिक कानून नए कानूनों से प्रभावित होंगे. उन्होंने बहस ये कहते हुए खत्म की –
‘अभी सही समय नहीं है. इन मामलों में समय के साथ धीरे-धीरे हस्तक्षेप होना चाहिए. मुझे इस बात का कोई संदेह नहीं है कि एक समय ऐसा आएगा जब देश में समाज नागरिक कानून होंगे.’
महबूब बेग के संशोधन में ये सुनिश्चित करने को कहा कि अनुच्छेद 35 के चलते नागरिकों के सामुदायिक कानून प्रभावित नहीं होने चाहिए. उन्होंने कहा –
‘जहां तक मैं समझता हूं, सिविल कोड संपत्ति के कानून, संपत्ति के हस्तांतरण का कानून, अनुबंध और साक्ष्यों के कानून आदि से ही संबंधित होगा. किसी धार्मिक समुदाय के निजी धार्मिक कानून आर्टिकल 35 में नहीं आएंगे.’
उन्होंने आगे कहा –
‘सिविल कोड पर स्थिति स्पष्ट करने के लिए ही मैंने संशोधन का नोटिस दिया है. अब इस आर्टिकल (article 35) को बनाने वाले इसका अर्थ स्पष्ट करें. ये लोग बहुत ज़रूरी तथ्य को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. पर्सनल लॉ कुछ धार्मिक समूहों के लिए दिल के बहुत करीब है. जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उनके अपने इस्लाम आधारित उत्तराधिकार, विरासत, विवाह और तलाक के कानून हैं.’
वहीं उत्तर प्रदेश से संविधान सभा के सदस्य हसरत मोहानी ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के खिलाफ बहस करते हुए कहा –
‘किसी भी राजनीतिक या सांप्रदायिक पार्टी को किसी भी समूह के पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, खास तौर पर मुसलमानों के तलाक, विवाह और विरासत से संबंधित कानून कुरान पर आधारित हैं. उनकी व्याख्याएं भी कुरान में ही हैं. अगर कोई सोचता है कि वो मुसलमानों के निजी कानूनों में हस्तक्षेप करेगा तो मैं उससे कहना चाहूंगा कि नतीजा बहुत ही भयानक होगा.’
हसरत मोहानी की ही तरह केरल से संविधान सभा के सदस्य बी. पोकर साहिब बहादुर ने ललकारते हुए कहा था –
‘इस संविधान सभा में कौन सदस्य है जो धार्मिक अधिकारों और प्रथाओं में हस्तक्षेप करने की सोच रहा है.’
यूनिफॉर्म सिविल कोड पर संविधान सभा में मुस्लिम सदस्यों की तरफ से इसी तरह की हंगामाखेज़ बहस हुई थी. काजी करीमुद्दीन, रागिब अहसन जैसे और भी नेता UCC का विरोध कर रहे थे. उनके सभी के तर्कों का लुब्ब-ए-लुबाब यही था कि –
- यूनिफॉर्म सिविल कोड संविधान में प्रस्तावित धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है.
- समान नागरिक संहिता से मुस्लिम समुदाय में वैमनस्यता पैदा होगी.
- धार्मिक समूहों की अनुमति के बिना उनके निजी कानूनों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए.
UCC पर आंबेडकर ने क्या कहा था ?
यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में सबसे जोरदार बहस डॉ. भीमराव अंबेडकर, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (के. एम. मुंशी) की तरफ से की गई. के. एम. मुंशी ने तर्क दिया –
‘यूनिफॉर्म सिविल कोड देश की एकता को कायम रखने और संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखने के लिए जरूरी है. अभी तक की बहस मुसलमानों की भावना को केंद्र में रख कर हुई है, पर हिंदू भी समान नागरिक संहिता से असुरक्षित हैं. मैं इस संविधान सभा के सदस्यों से पूछता हूं कि हिंदू समाज में भी यूनिफॉर्म सिविल कोड के बिना सुधार कैसे संभव होगा, खास तौर पर महिलाओं के अधिकारों से जुड़े हुए मसलों में इसकी जरूरत है.’
केएम मुंशी ने मुस्लिम सदस्यों से सवाल किया –
‘विरासत, विवाह आदि का पर्सनल लॉ से भला क्या लेना देना है. इस कानून से जितना मुस्लिम प्रभावित होंगे उतना ही ये हिंदुओं को भी प्रभावित करेगा. ये प्रावधान मौलिक अधिकारों के खिलाफ नहीं है, बल्कि ये संविधान में प्रस्तावित मौलिक अधिकारों की रक्षा का प्रावधान है, खास तौर पर इससे लैंगिक समानता आएगी.’
केएम मुंशी ने बहस में भारत में मुस्लिम सल्तनत की नींव रखने वाले अलाउद्दीन खिलजी का उदाहरण देते हुए कहा –
‘खिलजी ने भी शरीयत के खिलाफ कई परिवर्तन किए थे. और जब दिल्ली के काजी-मौलवी शरीयत का खुला उल्लंघन करने के लिए उससे नाराज़ हुए तब उसने सीधा जवाब दिया था कि उसने देश की भलाई के लिए ऐसा किया है और सर्वशक्तिमान अल्लाह उसे माफ करेगा.’
वहीं अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में बहस करते हुए मुस्लिम सदस्यों के तर्कों का जवाब दिया –
‘मुस्लिम सदस्य कहते हैं कि समान नागरिक संहिता मुसलमान नागरिकों के बीच अविश्वास और कटुता लाएगी. मैं कहता हूं इसके विपरीत होगा. समान नागरिक संहिता समुदायों के बीच एकता का कारण बन सकती है.’
कृष्णास्वामी अय्यर ने मुसलमान सदस्यों से सवाल किया कि उस समय क्यों कोई विरोध नहीं किया गया, जब अंग्रेजों ने उनके धार्मिक मान्याताओं में हस्तक्षेप करते हुए यूनिफॉर्म क्रिमिनल कोड बनाया था. उन्होंने सवाल किया कि क्या भारत को एक साथ जोड़ा जाना चाहिए या फिर हमेशा ही प्रतिस्पर्धा करने वाले समुदायों में ही बंटे रहने देना चाहिए ?
इनके अलावा संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इस बहस के निष्कर्ष पर बोलते हुए 2 दिसंबर 1948 को कहा –
‘इसमें कोई नई बात नहीं है. देश में विवाह, विरासत आदि मसलों को छोड़ कर पहले ही कई समान नागरिक संहिताएं हैं.’
आंबेडकर ने तर्क दिया कि मुसलमानों में शरीयत का पालन पूरे देश में एक जैसा नहीं है. उन्होंने नार्थ-वेस्ट फ्रांटियर प्रोविंस का उदाहरण देते हुए कहा कि इस इलाके में उत्तराधिकार के मामले में हिंदू कानूनों का पालन 1939 तक किया जाता रहा. उसके बाद वहां के विधान मंडल ने कानून बना कर मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में शरीयत को अनिवार्य कर दिया. उत्तराधिकार के मामले में यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश), सेंट्रल प्रोविंस (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़) और बॉम्बे (मुंबई) में मुस्लिम कहीं हद तक हिंदू कानूनों से ही संचालित होते हैं. आंबेडकर ने मुसलमान सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा –
‘मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि धर्म कैसे इतनी जगह घेर सकता है कि सारा जीवन ही ढंक ले और विधायी नियमों को धरातल पर उतरने से रोके. आखिर हमें ये आजादी किस लिए मिली है ? हमें ये आजादी हमारी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए मिली है.’
उन्होंने बहस समाप्त करते हुए निष्कर्ष में कहा –
‘यूनिफॉर्म सिविल कोड वैकल्पिक व्यवस्था है. ये अपने चरित्र के आधार पर नीति निदेशक सिद्धांत होगा. और इसी वजह से राज्य तत्काल यह प्रावधान लागू करने के लिए बाध्य नहीं है. राज्य जब उचित समझें तब इसे लागू कर सकता है. शुरुआती संशोधनों का जवाब देते हुए आंबेडकर ने कहा कि भविष्य में समुदायों की सहमति के आधार पर ही इस प्रावधान पर कानून बनाए जा सकते हैं और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जा सकता है.’
आंबेडकर का भाषण इस बहस पर आखिरी भाषण था. इसके बाद आर्टिकल 35 का ड्राफ्ट संविधान सभा में वोटिंग के लिए रखा गया. वोटिंग के बाद आर्टिकल 35 को नीति निदेशक सिद्धांतों में डाल दिया गया और इसकी संख्या बदल कर आर्टिकल 44 कर दी गई.
संविधान सभा की कार्यवाही पढ़ते हुए साफ लगता है कि उस समय संविधान निर्माताओं की मंशा इस यूनिफॉर्म सिविल कोड को मौलिक अधिकारों में रखने की थी, न कि नीति निदेशक सिद्धांतों में जगह देने की. विरोध करने वालों और समर्थन करने वालों के बीच समझौते के चलते यूनिफॉर्म सिविल कोड नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा बन कर रह गया.
यूसीसी पर चर्चा के अंत में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने आश्वासन दिया कि यूसीसी को लोगों पर फिलहाल लागू नहीं किया जाएगा, क्योंकि आर्टिकल 44 सिर्फ ये कहता है कि राज्य एक नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा. हालांकि अंबेडकर ने ये भी कहा कि भविष्य में स्वैच्छित तरीके से संसद यूसीसी को लागू करने का प्रावधान कर सकती है, लेकिन सांस्कृतिक विविधता के मिटाने के कीमत पर नहीं.
यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर लॉ कमीशन ने कहा था कि ऐसा कानून बनाते समय, यह याद रखना चाहिए कि सांस्कृतिक विविधता से किसी भी हाल में समझौता नहीं किया जा सकता है, इसमें कहा गया कि इस बात का खयाल रखा जाना चाहिए कि ये एकरूपता हमारे देश की क्षेत्रिय अखंडता के लिए खतरा न बन जाए.
लेकिन आज जो मोदी सरकार UCC पर बिल लाने की बात कर रही है उसका मंशा हिंदू मुस्लिम के घृणा पर आधारित है. अगर मोदी सरकार जिद करेगी तो कहीं बगीचे में सिर्फ कमल खिलाने यह एकरूपता की सोच देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा न बन जाए…!
- Singh Bhu Ji